डूबने के बढ़ते खतरे
अभी हाल में लद्दाख में बादल फटने की घटना का दर्द कम नहीं हुआ था कि देहरादून में स्कूल पर बादल फट गया। पाकिस्तान और चीन में! बाढ़ की विनाशलीला ने लोगों को दहला दिया है। कोलकाता कारपोरेशन के अफसर बताते हैं कि यदि जम कर बारिश हुई तो इस शहर को कोई नहीं बचा सकता है। डलहौजी इलाके के धंसने का खतरा स्थायी रूप से बना हुआ है।
बड़े बांध बनाने में तो चीन भारत से भी कहीं आगे रहा है तथा वहां की कुछ सबसे विशाल व प्रतिष्ठित बांध परियोजनाएं तो बाढ़ नियंत्रण के बड़े दावे कर रही थीं। यह समय तो बाढ़ में फंसे लोगों के बचाव व राहत का है, पर आगे चलकर यह भी सोचना होगा कि बाढ़ नियंत्रण के उपायों में निवेश का समुचित लाभ भारत तथा पड़ोस के देशों को क्यों नहीं मिला और बाढ़-नियंत्रण नीतियों-परियोजनाओं में क्या बदलाव जरूरी है।
वैसे तो देश के एक बड़े भाग में बाढ़ की समस्या काफी समय से व्यापक रूप में उपस्थित रही है, पर जलवायु बदलाव के दौर में यह और गंभीर हो सकती है तथा इसके रूप में कुछ और बदलाव आ सकते हैं। वैज्ञानिक जिस तरह के बदलते मौसम की तस्वीर हमारे सामने रख रहे हैं, उसमें प्राय: वर्षा की मात्रा बढऩे पर वर्षा के दिन कम होने की बात की गयी है। दूसरे शब्दों में अपेक्षाकृत कम समय में कुछ अधिक वर्षा होने की संभावना है। कम समय में अधिक वर्षा होगी तो बाढ़ की संभावना बढ़ेगी।
इसी तरह ग्लोबल वॉर्मिंग के दौर में ग्लेशियर अधिक पिघलने से भले ही दीर्घकालीन जलसंकट उत्पन्न हो, पर कुछ वर्षों तक इससे नदियों में जल की मात्रा बढ़ सकती है व अपेक्षाकृत कम वर्षा की स्थिति में भी बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। ग्लेशियरों के नीचे बनी नयी झीलों के अवरोध हटने पर फ्लैश फ्लड या अचानक अधिक वेग की बाढ़ आ सकती है। लद्दाख में बादल फटने को भी कुछ विशेषज्ञ जलवायु बदलाव से जोड़ रहे हैं। जिन नदियों में गाद-मिट्टी की मात्रा अधिक होती है (जैसा कि हिमालय की अनेक नदियों में है) उन पर बांध व तटबंध निर्माण की उपयोगिता और भी संदिग्ध है। हिमालय व अन्य पर्वतों में भू-स्खलन की और गंभीर होती समस्या अपने आप में बड़ी चिंता का कारण है तथा साथ ही इससे नीचे के मैदानों में बाढ़ की समस्या और विकट होती जा रही है। बढ़ते भू-स्खलन के कारण अनेक पर्वतीय आवासों, गांवों व सड़कों का अस्तित्व संकट में है। अनेक गांवों की हालत ऐसी हो गयी है कि किसी बड़े हादसे से बचाने के लिए उन्हें अन्यत्र बसाना होगा। यह समस्या बहुत हद तक मानव निर्मित कारणों से बढ़ी है। विभिन्न निर्माण कार्यों के लिए संवेदनशील तथा कच्चे पर्वतों में विस्फोटकों का अंधाधुंध उपयोग किया गया है। बांध-निर्माण के क्षेत्र में विशेषकर भू-स्खलन बढ़ गये हैं। सड़क निर्माण में पर्याप्त सावधानी न बरतने के कारण भी भू-स्खलन की समस्या विकट होती है। हिमालय जैसे अधिक भूकम्प वाले क्षेत्र में यदि बहुत से भूस्खलन के क्षेत्र बढ़ते रहे तो भूकम्प से होने वाली क्षति भी बहुत बढ़ जाएगी। भू-स्खलनों से नदियों में गाद व मलबा गिरता है तो उनमें बाढ़ की संभावना बढ़ती है। यदि मलबे से किसी नदी का प्रवाह रुक जाए व कृत्रिम झील बन जाय, तो यह झील टूटने पर बहुत प्रलयंकारी बाढ़ आती है, जैसा कि कुछ वर्ष पहले उत्तराखंड में कनोडिया गाद की बाढ़ के समय देखा गया।
यदि भू-स्खलन में भारी चट्टानें व मलबा बाँध के जलाशय (जैसे टिहरी जलाशय) में गिर जाय, तो भी बहुत प्रलयंकारी बाढ़ आ सकती है। दूसरी ओर वन-रक्षा व हरियाली बढ़ाकर तथा भू-संरक्षण उपायों से भू-स्खलन कम किया जा सकता है। इस तरह जहाँ विभिन्न कारणों से अधिक वेग की अचानक बाढ़ आने की आशंका बढ़ रही है, वहीं अनेक स्थानों पर बाढ़ के पानी के देर तक रुके रहने से जल-भराव की समस्या विकट हो रही है। सड़कों, हाईवे, रेल लाइनों, तटबंधों, नहरों आदि के निर्माण में निकासी व पुलिया पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया जिससे यह समस्या बढ़ी है। लेह में बाढ़ के अधिक विनाशकारी होने का एक कारण निकासी का अभाव बताया गया है। सदियों से बाढ़ से प्रभावित कुछ क्षेत्रों में पहले बाढ़ के साथ जीना इसलिए सरल था कि बाढ़ का पानी बड़ी मात्रा में आता था पर तेजी से निकल भी जाता था। उसके साथ आयी उपजाऊ मिट्टी से बाद में अच्छी खेती होती थी, परंतु अब देर तक जल-भराव रहने के कारण खेती समय पर नहीं हो पाती तथा मच्छरों और बीमारी का प्रकोप बढ़ता जा रहा है। शहरों में निर्माण कार्यों में असावधानी, निकासी की गड़बड़ी व मलबों के ढेर के कारण जल-भराव की समस्या तेजी से बढ़ रही है। पॉलीथिन के बढ़ते कूड़े ने भी यह समस्या बढ़ायी है। जहां पहले वर्षा का बहुत-सा पानी तालाबों, पोखरों में समा जाता था, वहां इनके अतिक्रमण या इन्हें पाट दिये जाने से पानी रिहायशी इलाके में घुस जाता है या बाढ़ का रूप ले लेता है। यह अक्सर माना जाता है कि पूरब में बारिश ज्यादा होती है और पश्चिम में कम पर मानसून के शुरुआती दिनों में देखें कि पश्चिमी प्रांत राजस्थान और अहमदाबाद में बाढ़ आ गयी और बिहार तथा बंगाल में सूखा पड़ा है। ऐसे में बड़े- बड़े बांधों की योजनाएं बेशक कागज पर खूबसूरत लगें पर तबाही का कारण बन सकती हैं, क्योंकि इससे नदियों के नैसर्गिक बहाव में विघ्न पड़ता है।
Friday, August 20, 2010
Posted by pandeyhariram at 2:45 AM
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