कश्मीर समस्या पर एक सुझाव
कश्मीर में हालात सुधरने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। प्रधानमंत्री जी की अपील भी बेकार हो गयी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की नीतियों में कश्मीर का प्रमुख स्थान रहा है, लेकिन कश्मीर की समस्या है कि हल होने का नाम ही नहीं ले रही है। दरअसल कश्मीर स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ताकतों का अखाड़ा बन गया है। जब भी ऐसा लगता है कि मामला सुलझ रहा है उसी समय कुछ ऐसा हो जाता है कि सब कुछ नियंत्रण से बाहर चला जाता है। अटल बिहारी वाजपेयी ने मुशर्रफ से वार्ता शुरू की। मुशर्रफ चले गये। उसके बाद जो सरकार आयी वह अपने पैरों पर ही कांप रही थी, तब भी वार्ता चलती रही।
अचानक 26/11 की घटना घटी। वह एक तरह से आतंकियों की ओर से संदेश था कि 'हमें शांति नहीं चाहिये।
इसके बाद भी एक मौका मिला और कश्मीर में निर्वाचन हुए। सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था कि अचानक पथराव और आगजनी शुरू हो गयी। इससे जाहिर होता है कि कश्मीर की समस्या भारत और पाकिस्तान की समस्या नहीं है बल्कि इसके भीतर ही तनाव हैं। स्थानीय राजनीतिक दल हैं, जिन्होंने चुनाव में भाग लिया और उन पर उदारवादी होने का ठप्पा लग गया। कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने चुनाव में हिस्सा नहीं लिये उन्हें उग्रपंथी या हार्ड लाइनर घोषित कर दिया गया। उन्होंने रस्साकशी का अपना जटिल खेल शुरू कर दिया। इसके बाद कश्मीर की जनता है जिनकी शिकायतों से पूरा देश वाकिफ है। परन्तु अपनी पहचान कायम करने की उनकी तमन्ना को देशद्रोह कह कर बात का बतंगड़ बना दिया गया। इसकी सीमा पर पाकिस्तान है जहां की सरकार और मुजाहिदीन दोनों कश्मीर में जब मौका मिलता है गड़बड़ी कर डालते हैं। यही नहीं अंतरराष्ट्रीय ताकतें भी हैं, जो इस मसले पर डंक मारने से कभी चूकती नहीं हैं, पर जैसा कि देखा गया है उनकी चिन्ता बहुत गलत नहीं है। वे कश्मीर के मामले को विस्फोटक समझते हैं और उनका यह समझना भ्रामक भी नहीं है। विगत 63 वर्षों से कश्मीर की समस्या अनसुलझी पड़ी हुई है।
कुछ राजनीतिक दलों का मानना है कि कश्मीर में सुलझाने के लिये अब कुछ रह नहीं गया है या किसी भी समाधान की प्रक्रिया में कश्मीरियों को शामिल नहीं किया जाना चाहिये, लेकिन कश्मीरियों को शामिल नहीं किये जाने की समरनीति बहुत शक्तिशाली नहीं कही जा सकती है। सरकार यदि कश्मीर विधानसभा के सभी दलों को न्यूनतम साझा कार्यक्रम के तहत एक गठबंधन में शामिल करने में कामयाबी पा जाती है तो उसे सांस लेने की फुर्सत मिल जायेगी और तब वह बड़े आराम से उन मुश्किलों को मिटा सकती है जो सड़कों और नुक्कड़ों पर कायम हैं। सिर्फ सर्वदलीय गठबंधन ही मानवाधिकार और सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम के मामले पर निर्भय होकर काम कर सकता है क्योंकि उसे सत्ता के किसी दावेदार का डर नहीं रह जायेगा। केवल सर्वदलीय गठबंधन ही उन लोगों से बेखौफ होकर बातचीत कर सकता है, जो चुनाव में शामिल नहीं हो रहे हैं। हो सकता है किसी सियासी मामले में किसी पत्र का ऐसा प्रत्यक्ष सुझाव कुछ राजनीतिक पंडितों को नागवार लगे पर देश के सामने यह सबसे महत्वपूर्ण समस्या है और इसके समाधान पर सोचना हर देशवासी का कर्तव्य है।
Wednesday, August 18, 2010
Posted by pandeyhariram at 12:10 AM
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
0 comments:
Post a Comment