उत्तर प्रदेश में बुधवार को किसानों ने रास्ता रोका। वे यमुना एक्सप्रेस वे के लिये जमीन अधिग्रहण को को लेकर गुस्से में हैं। और उनके इस गुस्से ने राजनीतिज्ञों को बढिय़ा मसाला पकड़ा दिया है।
अपने भूमि अधिग्रहण और उचित मुआवजे के सवाल पर छिड़ी किसानों की लड़ाई ने बैठे-बिठाए नेताओं को ज्वलंत मुद्दा पकड़ा दिया है। इसके सहारे पश्चिम बंगाल की तर्ज पर उत्तर प्रदेश की पार्टियां भी अपनी रणनीति बनाने में लग गई हैं।
संसद में पक्ष और विपक्ष दोनों मुखर हैं
बात ये है कि कहीं कोई पुल बना है
देश में तेजी से हो रहे शहरीकरण, उद्योगीकरण और बनने वाली सड़कों का संजाल सरकारों के लिए भले विकास के मानक हों, किंतु प्रत्यक्षत: इसकी आड़ में हो रहा जमीनों का अधिग्रहण यह सवाल खड़ा कर रहा है कि पूर्णतया विकसित हो जाने के बाद हमें रोटी कहां से मिलेगी ?
मस्लहत होते हैं सियासत के कदम
तू नहीं समझेगा तू अभी नादान है।
तेजी से बढ़ रही आबादी के कारण वैसे ही जोत की जमीनें सिकुड़ती जा रही हैं। जो बची हुई हैं, विकास के नाम पर उसका भी अधिग्रहण तेजी से जारी है। इसके एवज में किसान समुचित मुआवजा मांग रहे हैं तो संबंधित सरकारें व उनके अधिकारी उन्हें मुंह चिढ़ा रहे हैं। फलस्वरूप किसानों की कथित हितैषी राजनीतिक पार्टियां माओवाद, नक्सलवाद व आतंकवाद के समानांतर एक और वाद को जन्म देने पर तुली हुई हैं, जो सरकारों के लिए निकट भविष्य में मुसीबत बन सकता है।
सरकार को भूमि अधिग्रहण के तौर-तरीके बदलने होंगे। विकास के जो मापदंड सरकार अपना रही है वह चंद हाथों में मुनाफा देने का तरीका है। लगता है, यह बर्दाश्त करने के काबिल नहीं है। जब तक ग्रामीणों की जमीन पर कब्जा बंद नहीं होगा, उन्हें स्वाभिमान से जीने का अधिकार नहीं मिलेगा तब तक संघर्ष विराम होने की उम्मीद कम है। उदाहरण के तौर पर पिछले दिनों रेल मंत्री ममता बनर्जी ने माओवादियों के प्रवक्ता आजाद के एनकाउंटर को फर्जी करार देते हुए हत्या की जांच कराने की मांग उठा दी, तो बवाल मच गया।
ममता को लालगढ़ रैली की इस राजनीतिक धार पर उस संसदीय राजनीति को ऐतराज हो सकता है जो गठबंधन की राजनीति कर सत्ता की मलाई खाते हैं। इसीलिए बीजेपी का यह सवाल जायज लग सकता है कि माओवादियों के मुद्दे पर प्रधानमंत्री की कैबिनेट मंत्री यानी ममता बनर्जी ही जब उनसे इत्तेफाक नहीं रखतीं तो कैबिनेट में सहमति की संसदीय मर्यादा का मतलब क्या है। इस सवाल का जवाब जानने से पहले समझना यह भी होगा कि ममता न तो प्रधानमंत्री की इच्छा से मंत्री बनीं और न ही प्रधानमंत्री ने उन्हें अपनी पसंद से रेल मंत्रालय सौंपा।
ममता जिस राजनीतिक जमीन पर चलते हुए संसद तक पहुंची हैं, उसमें अगर कांग्रेस के सामने सत्ता के लिए ममता मजबूरी थी तो ममता के लिए अपनी उस राजनीतिक धार को और पैना बनाने की मजबूरी है।
खैर, सिंगूर से नंदीग्राम वाया लालगढ़ की जिस राजनीति को ममता ने आधार बनाया उसमें एसईजेड से लेकर भूमि अधिग्रहण और आदिवासियों से लेकर माओवादियों पर ममता का रुख सकारात्मक व स्पष्ट है। उन्होंने कैबिनेट की बैठक में भूमि अधिग्रहण, एसईजेड तथा विकास के इन्फ्रास्ट्रक्चर में किसान और आदिवासियों के मुद्दे पर सरकारी नीति का विरोध किया है। ऐसा नहीं है कि माओवादी आजाद के सवाल पर जो कांग्रेस आज खामोश है और जो बीजेपी या वामपंथी हाय-तौबा मचा रहे हैं उन्हें सवा साल पहले लोकसभा चुनाव के दौरान ममता बनर्जी का राजनीतिक मैनिफेस्टो याद न हो। ममता बनर्जी ने उस वक्त भी लालगढ़ के संघर्ष को यह कहते हुए मान्यता दी थी कि यह राज्य के आतंक और उसकी क्रूरतम कार्रवाइयों के खिलाफ विद्रोह का प्रतीक है।
ममता ने लालगढ़ में आदिवासियों के हथियार उठाने को उनके मान-सम्मान और न्याय से जोड़ा। यूं कहें कि हक के लिए मरने-मारने का जज्बा रखने वाले गरीबों, मजदूरों व किसानों को माओवादी व नक्सली बताया जाने लगा है। तब इनकी पहचान नक्सलबाड़ी के रूप में थी, जिन्हें संरक्षण देकर बंगाल की सत्ता पर सीपीएम काबिज हो गई। अब जब वही काम ममता कर रही हैं तो सीपीएम समेत अन्य दलों को बुरा लग रहा है।
दूसरे शब्दों में, जिस तरह बंगाल में ममता का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि किसान व मजदूर चाहे वह किसी भी वाद से संबद्ध हों, उनकी आवाजें बुलंद करना सत्ता की कुंजी के समान है।
हक के लिए वादी बने किसानों-मजदूरों पर तिरछी निगाहें फजीहत भी करा सकती हैं, जैसा छत्तीसगढ़ में भाजपा के नेतृत्व वाली रमन सिंह सरकार की हो रही है। कमोबेश यही हालात देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में भी बन रहे हैं।
यहां यमुना एक्सप्रेस वे के नाम पर किसानों की 1 लाख 76 हजार हेक्टेयर जमीन ली जा रही है। यह बेहद उपजाऊ जमीन है। बहरहाल किसानों में गजब का आक्रोश है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि निजी क्षेत्र की किसी भी योजना के लिये किसान अपनी जमीन नहीं देंगे। यानी गरीबों का खेत उजाड़ कर सड़कें नहीं बनने दी जायेगी।
फिलहाल आगाज तो हो चुका है अब देखना है कि अंजाम क्या होगा।
कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए
मैने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है।
Friday, August 27, 2010
रोटी का सवाल
Posted by pandeyhariram at 12:46 AM
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