हरिराम पाण्डेय
20 सितम्बर 2011
बाढ़ और सूखे से पीडि़त इस देश की जनता को अब तक भूकंप जैसी आपदा से दो- चार होने का इस तरह का मौका नहीं मिला था। खास कर पश्चिम बंगाल की जनता को। इसके पूर्व कश्मीर और गुजरात में भूकंप आये थे और बेशक वे काफी विनाशक थे पर उसका प्रभाव इतना व्यापक और इतना विस्तृत क्षेत्र में नहीं फैला था। इस बार तो देश का लगभग समस्त पूर्वी और पूर्वोत्तर भाग ही हिल गया। यह देखना सचमुच दुखद है कि 6.9 तीव्रता (जी हां, 6.8 तीव्रता की शुरुआती सूचना बाद में संशोधित हो गयी थी) वाले भूकंप के 18 घंटे बाद भी हमारी खास तौर से प्रशिक्षित नेशनल डिजास्टर रिस्पॉन्स फोर्स (एनडीआरएफ) की टीम अभी तक पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी में बैठी हवाई जहाज का इंतजार कर रही है जिससे उसे सिक्किम के भूकंप प्रभावित एरिया में पहुंचाया जाना है। भूस्खलन की वजह से पश्चिम बंगाल से सिक्किम को जोडऩे वाली सड़क भी बंद हो गयी है।
हालांकि सीमित संसाधन की दिक्कत समझी जा सकती है, मगर फिर भी, शायद टाली जा सकने वाली यह देरी पीड़ादायक है। और यह पीड़ा तब गुस्से में बदल जाती है जब देश पर राज करने वाले नेताओं तथा अन्य बड़े लोगों द्वारा हवाई जहाजों के निर्मम दुरुपयोग का ख्याल आता है। जरा याद कीजिए उमर अब्दुल्ला की उन पिकनिकों को जो हाल ही में सुर्खियों में रही थीं और मायावती का पसंदीदा सैंडल मंगाने के लिए लखनऊ से मुंबई विमान भेजना भी।
ऐसा क्यों है कि जब बड़ी आपदा आती है तब हम मौके के अनुरूप प्रदर्शन करने में असमर्थ रहते हैं? हालांकि यह सच है कि कई मौकों पर प्रशासन ने तमाम बाधाओं के बावजूद बेहतरीन काम किया है, लेकिन यह अपवाद ही है। बल्कि, नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी का गठन ही ऐसी आपदाओं पर तुरत-फुरत और उचित कदम उठाने के लिए किया गया है। लेकिन, लगता है कि कुछ टॉप के राजनीतिज्ञ या बाबू जिन्हें यह तय करना होता है कि कब, क्या और कितना किया जाना है, उनकी सुस्त चाल के चलते सारे अच्छे इरादे धरे के धरे रह जाते हैं।
यह संभव है कि एनडीआरएफ की टीम को हवाई मार्ग से वहां पहुंचाने में देरी की वजह लॉजिस्टिक से जुड़ी हो। लेकिन, किसी भी आपातकालीन सेवा का मतलब ही यह है कि किसी आपदा के समय लालफीताशाही से परे हट कर तुरंत प्रशिक्षित कर्मचारियों को मौके पर तैनात किया जाए। सरकार और प्रशासन के लिए हेलिकॉप्टर्स की व्यवस्था करना और अलग- अलग निकायों ( जैसे, एयर फोर्स, सेना की एविएशन विंग, प्राइवेट हेलिकॉप्टर्स और आपदाग्रस्त राज्य से सटे राज्यों से सरकारी हेलिकॉप्टर्स) से जरूरी मशीनरी जुटाना कितना मुश्किल हो सकता है, वह भी तब जब वे वाकई गंभीर हों?
यहां तक कि एक स्कूली बच्चे को भी पता होता है कि जब आपदा आती है तो शुरुआती मदद सबसे जरूरी होती है, खासकर तब जब बात मेडिकल सहायता की हो। बाकी सब कुछ बाद में किया जा सकता है, पर पीडि़तों तक जितनी जल्दी संभव हो प्रशिक्षित मदद पहुंचना बेहद जरूरी हो जाता है। लेकिन, जब ऐसे क्षेत्र में मदद के लिए हाथ बढ़ाने वाले प्रशिक्षित कर्मचारियों को भी वहां तक पहुंचने वाले ट्रांसपोर्ट की तरह ही 18 घंटे लगें तो यह सवाल उठना लाजिमी है कि हम अपने देश के लोगों की जिंदगी को लेकर कितने सीरियस हैं।
सच तो यह है कि जब बात पूर्वोत्तर की सुख-समृद्धि की हो तो केन्द्र सरकार इसे नजरअंदाज कर जाती है। इस क्षेत्र के लोग शायद ही कभी खुद को भारत का हिस्सा मानते हैं और जब कोई देश के इस हिस्से के दौरे पर जाता है तो उसे अक्सर 'भारत से आयाÓ माना जाता है। लेकिन, एनडीआरएफ क र्मचारियों क ी तैनाती में होने वाली अक्षम्य देरी स्थानीय लोगों के ऐसे विश्वास क ो और मजबूत ही बनाती है।
Tuesday, October 4, 2011
इस निर्मम देरी को क्या कहेंगे?
Posted by pandeyhariram at 10:23 AM
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