हरिराम पाण्डेय
3अक्टूबर2011
आर्थिक मंदी, कामकाजी वर्ग में बढ़ती कंगाली और राजकोषीय पूंजी के बारे में सन्मार्ग कार्यालय में एक बहस के दौरान एक आर्थिक सलाहकार ने बड़ी दिलचस्प बात कही। पूंजी के आगमन और उसके विनियोग में भारी अंतर पैदा होता जा रहा है। मसलन किसी को किसी वित्तीय संस्थान से 100 करोड़ की सहायता मिलती है। अब वह निवेशक उसका आधा संचित कर लेता है और आधा ही विनिवेश के लिये प्रयुक्त होता है, इससे विकास सुस्त पड़ जाता है। ऐसी स्थिति में वह कटौती के लिये कदम उठाता है, नतीजतन कामकाजी वर्ग में गरीबी फैलने लगती है और धीरे- धीरे मंदी बढऩे लगती है। आज दुनिया का आर्थिक संकट, उससे निपटने के लिए सरकारों द्वारा कटौती उपायों की घोषणा और जनता द्वारा कथित मितव्ययिता के उपायों का विरोध विकास की खगोलीय अवधारणा की विफलता के साथ वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए खतरे की नयी आहट है। ब्रिटेन, यूनान, स्पेन से लेकर इटली और पूर्वी यूरोप तक के सभी राजनेता और अर्थशास्त्री संकट के कारणों से अधिक पूरी बहस को संकट के उपायों पर केंद्रित कर रहे हैं। कई देशों का कर्ज उसके सकल घरेलू उत्पाद के नब्बे या सौ प्रतिशत से भी अधिक हो चुका है। इस ऋण भार से निपटने के लिए यूरोपीय देशों की सरकारें अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और यूरोपीय सेंट्रल बैंक के निर्देश पर राजकोषीय घाटे में कमी लाने की कोशिश कर रही हैं। अब इस कटौती का भार मध्यवर्गीय परिवारों के जेबों से निकालने के लिए पूरी पश्चिमी दुनिया वालों के खर्च में कटौती की शुरुआत हो चुकी है। इससे उस वर्ग की वास्तविक आय और सामाजिक सुरक्षा बुरी तरह प्रभावित हो रही है। यह कटौती जहां मध्यवर्गीय कामगारों की आय और सामाजिक सुरक्षा को ध्वस्त कर रही है, वहीं बाजार के स्वामियों और उच्च मध्यवर्ग के लिए और अमीरी का कारण भी बन रही है। कमोबेश यही स्थिति भारत सहित सभी एशियाई देशों में पैदा हुई है। भारत का कुल ऋण उसके सकल घरेलू उत्पाद के 56 प्रतिशत के आसपास है। भारतीय विकास के नीति निर्माता ऊंची विकास दर के कारण इसे अपनी एक उपलब्धि कह सकते हैं। परंतु विकास के इस वितरण की तसवीर आर्थिक संकट में फंसे पश्चिमी देशों की तुलना में कहीं ज्यादा खराब है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के निर्देश पर मितव्ययिता का अर्थ है आम आदमी की आय में कटौती, जो निश्चय ही अर्थव्यवस्था में प्रभावी मांग को नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगी। फिर मांग में गिरावट का अर्थ है मांग और आपूर्ति के संतुलन का बिगडऩा। मांग और आपूर्ति का संतुलन बिगड़कर ही अर्थव्यवस्था में मंदी का कारण बनता है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद केन्स के राजकीय हस्तक्षेप के सिद्धांत पर चलकर ही विश्व अर्थव्यवस्था ने 1930 की महामंदी को झेला था। अब आर्थिक विकास की खगोलीय अवधारणा के पैरोकार पूंजी संचय के जुनून में भूमंडलीकरण के इस विरोधाभासी संबंध को समझना ही नहीं चाहते कि वर्तमान आर्थिक संकट बढ़ते राजकीय व्यय के कारण नहीं, बल्कि उनकी उत्पादन-विरोधी पूंजी संचय की नीतियों के कारण है।
Tuesday, October 4, 2011
मंदी का कारण पूंजी संचय की नीति है
Posted by pandeyhariram at 10:49 AM
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