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Tuesday, October 4, 2011

जाके बैरी चैन से सोये, वाके जीवन पर धिक्कार

हरिराम पाण्डेय
4अक्टूबर2011
इन दिनों पश्चिमी देशों में खास कर अमरीका में एक बहस चल रही है कि क्या फांसी की सजा जायज है? अमरीका में 1970 के पूर्व फांसी की सजा पर पाबंदी थी पर 1970 में सुप्रीम कोर्ट ने उसे लागू किया और आज उस पर फिर सवाल उठाये जा रहे हैं लेकिन उसमें कहीं भी यह बहस नहीं है कि देशद्रोह के अपराधी को फांसी नहीं दी जाए, लेकिन हमारे देश भारत में संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु को क्षमा देने के प्रस्ताव पर क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों के लिए हमारे राष्ट्रीय दलों-कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी तथा राज्य के प्रमुख दलों-नेशनल कान्फ्रेंस और पीडीपी ने जिस तरह की शर्मनाक भूमिका निभाई उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि इन पार्टियों में राष्ट्रीय स्वाभिमान और राष्ट्रप्रेम का कोई भी जज्बा नहीं है। अफजल गुरु को क्षमादान देने का प्रस्ताव विधानसभा में आना ही नहीं चाहिए था और अगर वह आ गया था तो इन चारों राजनीतिक दलों का यह फर्ज था कि वे सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित कराते कि अफजल गुरु को जल्द से जल्द मृत्युदंड दिया जाए। इसके विपरीत इन दलों ने ऐसा माहौल बनाया जिससे इस प्रस्ताव पर कोई चर्चा ही न हो सके। सबसे पहले भाजपा के विधायकों ने नारेबाजी करके सदन के काम में बाधा डाली जो निश्चय ही प्रस्ताव का विरोध माना जा सकता है, मगर कांग्रेस के उप मुख्यमंत्री सहित उसके विधायकों ने प्रस्ताव का विरोध करने के बजाय इन विधायकों की ही सदस्यता समाप्त करने की मांग उठा दी। दरअसल, विधान परिषद के चुनावों में भाजपा के कुछ विधायकों ने दूसरे दलों के पक्ष में वोट डाले थे। भाजपा ने इन्हें निलंबित कर रखा है मगर विधानसभा में इनकी सदस्यता बनी हुई है। कांग्रेस की इस मांग का औचित्य अपनी जगह है मगर इस समय विरोध करने का अर्थ इस बात के अलावा और क्या हो सकता है कि सरकार में नेशनल कान्फ्रेंस की सहयोगी कांग्रेस को नहीं मालूम कि संबंधित प्रस्ताव का विरोध किया जाए या समर्थन? उसने, जाहिर है, ऐसी रणनीति बनाई जिससे प्रस्ताव पर चर्चा ही न हो सके और बात विधानसभा के अगले सत्र तक के लिए टल जाए क्योंकि नियमों के अनुसार सदन की विषय सूची में दर्ज किसी विषय पर अगर निर्धारित दिन विचार नहीं होता तो फिर उस सत्र में उस पर विचार ही नहीं हो सकता। संसद पर हुआ हमला देश पर हुए आक्रमण के समान था, जिसमें कुछ पाकिस्तानी आतंकवादी मौके पर ही मार डाले गए थे। कश्मीरी आतंकवादी अफजल गुरु की हमले की साजिश में भूमिका मानकर सुप्रीम कोर्ट उसे मौत की सजा दे चुका है मगर हमारे ढीले राजनीतिक नेतृत्व की वजह से उस पर अमल नहीं हो पाया है। क्या कांग्रेस उसकी सजा के खिलाफ है? यदि नहीं तो कांग्रेस के विधायकों के लिए इस प्रस्ताव पर ह्विप क्यों नहीं जारी किया गया और क्यों मामला उनकी अंतरात्मा पर छोड़ दिया गया? जहां तक नेशनल कान्फ्रेंस का सवाल है तो यह आग ही मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की लगाई हुई है, जिन्होंने राजीव गांधी के हत्यारों को क्षमादान देने के तमिलनाडु एसेंबली के प्रस्ताव के बाद अपने यहां भी एक शोशा छोड़ा था और जिसे एक निर्दलीय विधायक शेख अब्दुल राशिद ले उड़े। विपक्षी पीडीपी की भूमिका तो और भी ज्यादा खतरनाक है जिसके विधायक सदन में भले ही शांत बैठे रहे हों मगर जिसने क्षमादान का समर्थन किया था। लोकतंत्र में न्याय का हर दरवाजा सभी के लिए खुला रहना चाहिए, मगर अफजल, भुल्लर और राजीव गांधी के हत्यारों को क्षमादान दिलाने के लिए वोटों की खातिर जो गंदी राजनीति की जा रही है, वह देश के लिए अंतत: खतरनाक होगी। क्योंकि अब तक एक राष्टï्र के रूप में हमारी छवि एक 'डरपोक राष्टï्रÓ की बन चुकी है और आहिस्ता- आहिस्ता यह छवि एक दब्बू और नालायक देश की बन जायेगी। इससे ज्यादा शर्म की बात क्या हो सकती है कि चार -छ: हथियारबंद लोग उस तरफ से आते हैं और हमारी संसद को उड़ाने का साहस कर लेते हैं, हाथ में ए के रायफलें लेकर हमारे सबसे बड़े कारोबारी शहर में सैकड़ों लोगों को मौत के घाट उतार देते हैं और हमारे नेता उन्हें बचाने में लगे हैं। यह देश की जनता के मुंह पर तमाचा है और कानून से बदतमीजी।
जाके बैरी चैन से सोये
वाके जीवन पर धिक्कार

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