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Tuesday, October 4, 2011

प्रधानमंत्री की बिगड़ती छवि



हरिराम पाण्डेय
29सितम्बर 2011
आप मानें या ना मानें नवरात्र की निसबत सत्ता से भी है और उसके पहले दिन जब कोई आदमी सत्ता के शीर्ष पर बैठे इंसान की छवि को लेकर चिंता जाहिर करता है तो बेशक सोचना पड़ता है। कहते हैं कि 'सत्ता का रास्ता जनता को हटाकर बनता है।Ó लेकिन पिछले कुछ दिनों में जनता ने सत्ता को थोड़ा सा हटाकर अपना रास्ता बनाया है।
सत्ता ताकतवर होती है। उसे अपने होने का बहुत गुरूर होता है। इसलिए शायद वह स्वीकार न करे कि ऐसा हुआ है। ये बहसें होती रहेंगी कि आज जो कुछ भी हो रहा है वह सही है या गलत। लेकिन इस बात पर कोई बहस नहीं हो सकती कि इस स्थिति ने एक ऐसे शख्स की धज बिगाड़ दी, जो विवादों से और शंकाओं से परे था। और वो शख्स है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह। एक बरस पहले तक वे इस सरकार के मुकुट थे। सरकार के धुर विरोधी भी उन पर बड़े एहतियात के साथ आरोप लगाते थे। लेकिन पिछले एक बरस ने इस छवि को निर्ममता के साथ बदल दिया है। अभी भी उनकी ईमानदारी पर सवाल नहीं उठ रहे हैं लेकिन लोग महसूस कर रहे हैं कि वे बेईमानी को रोक नहीं पाए।
टेलीकॉम घोटाले से लेकर राष्टï्रमंडल खेलों के घोटाले तक जो बयान प्रधानमंत्री ने दिए वे एक-एक करके गलत साबित हुए हैं। कहते हैं न कि 'बात निकली तो बहुत दूर तलक जायेगीÓ, अगर निकली हुई बात सचमुच दूर तक गयी तो नोट के बदले वोट वाले मामले में भी उनकी किरकिरी हो सकती है। जनलोकपाल के मामले में उनकी सरकार ने एक के बाद एक जिस तरह से फैसले लिए उसने एकबारगी उनकी राजनीतिक समझ पर प्रश्नचिन्ह लगा दिये हैं। एक आंदोलन जो भ्रष्टाचार के खिलाफ था, उसे मनमोहन सिंह की सरकार ने अपनी नासमझी से अपनी सरकार के खिलाफ बना लिया। चोर की दाढ़ी में तिनका मुहावरा शायद ऐसे ही मौकों के लिए बना होगा। वर्ष 2009 के चुनाव के बाद विश्लेषकों ने कहा था कि मनमोहन सिंह ही यूपीए के तारणहार साबित हुए हैं। उन्होंने ये भी कहा कि अगर आडवाणी ने उन्हें 'निकम्मा प्रधानमंत्रीÓ न कहा होता तो एनडीए को इतना नुकसान नहीं होता। अब आडवाणी या किसी और नेता में वही पुराना आरोप दुहराने की हिम्मत नहीं है लेकिन अब अगर कोई ऐसा ही आरोप लगाएगा तो शायद जनता बुरा नहीं मानेगी। आज मनमोहन सिंह वैसा ही बर्ताव कर रहे हैं जैसा कि अमरीकी राष्ट्रपति अपने दूसरे कार्यकाल में करते हैं। उन्हें पार्टी की तो चिंता होती है लेकिन वे अपनी छवि की बहुत चिंता नहीं करते क्योंकि उन्हें अगला चुनाव नहीं लडऩा होता। जिस तरह से राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाए जाने की चर्चा गाहे-बगाहे हो रही है, उससे मनमोहन सिंह को ये समझने में दिक्कत नहीं है कि यह उनकी आखिरी पारी है।
मनमोहन सिंह एक सफल नौकरशाह रहे हैं और प्रधानमंत्री की भूमिका भी वे उसी तरह निभाना चाहते हैं। एक राजनीतिक आंदोलन पर लोकसभा में उनका बयान एक राजनीतिक की तरह नहीं आता, किसी नौकरशाह की तरह ही आता है। लोकतंत्र में प्रधानमंत्री के पद पर लोग एक राजनेता को देखना चाहते हैं। अनिर्णय में फंसे किसी ऐसे नौकरशाह को नहीं तो अपने लिए किसी आदेश की प्रतीक्षा कर रहा हो। अभी इस सरकार के पास इतना समय है कि वह अपनी डगमगाती नैया को भंवर से निकाल ले और इतना ही समय प्रधानमंत्री के पास है कि वे अनिर्णय से निकलकर कुछ ठोस राजनीतिक कदम उठाएं। इतिहास बहुत निष्ठुर होता है और वह किसी को माफ नहीं करता और जनता सबक सिखाने पर उतर आये तो किसी से सहानुभूति नहीं रखती।

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