हरिराम पाण्डेय
2अक्टूबर2011
दुर्गापूजा के ढाक का रंग जम गया है और शहर के लगभग सभी पूजा पंडालों में मां दुर्गा की मूर्तियां आ गयी हैं और लोगों की भीड़ भी उमडऩे लगी है। इस भीड़ का अगर सामाजिक - मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें तो दो तथ्य दिखते हैं, पहला कि लोगों में धार्मिकता बढ़ गयी है और दूसरा कि लोग भाग्यवादी होते जा रहे हैं। अगर धर्म के लिए कोलकातावासियों का रुझान बढ़ा है तो हम मान सकते हैं कि लोग पहले से ज्यादा भले, इंसाफपसंद, सच्चे और उदार बन रहे होंगे। क्योंकि धर्म इंसान को अच्छे रास्ते पर चलने का सबक देता है। हम यह भी अंदाजा लगा सकते हैं कि लोगों को आध्यात्मिक शांति मिल रही होगी, क्योंकि वे जिंदगी के टुच्चे झगड़ों को अब बेमतलब मान रहे होंगे। इससे कुछ शांति पैदा हुई होगी। एक-दूसरे को सुनने-सहने की काबिलियत बढ़ी होगी। लेकिन क्या सचमुच? ज्यों-ज्यों साल 2011 अपने आखिरी महीनों में आगे सरक रहा है, 2012 में दुनिया के अंत की बातें रोजाना की बतकही में बार-बार लौट रही हैं। लोग तरह-तरह से इसका जिक्र करते हैं, लेकिन अगर वे अंदर से यकीन न कर रहे होते तो बात उनकी जुबान पर नहीं आती। कितना यकीन? आप कहेंगे 20 पर्सेंट। हो सकता है कोई 80 पर्सेंट तक भी जा पहुंचे। लेकिन 100 पर्सेंट यकीन का हलफनामा कोई नहीं देगा। कोई नहीं, क्योंकि हम शत-प्रतिशत यकीन करते ही नहीं। न 2012 पर, न भाग्य पर और न ही ईश्वर पर। इंसान की यही बेहद दिलचस्प खामी या खासियत है कि वह यकीन पर भी पूरा यकीन नहीं करता। वह यकीन पर भी शक करता है और खुद को कभी ऐसे वादे में नहीं बंध जाने देता, जिससे निकलने में उसका ईगो तकलीफ महसूस करे। कोई दूसरे ग्रह का आदमी धरती पर आए, इंसान के दिमाग में झांके तो उसे हैरानी होगी। शायद वह इसे सबसे बड़ा रहस्य मान बैठे। तर्क तो यही कहता है अगर आप ईश्वर पर यकीन करते हैं, मानते हैं कि उसी ने दुनिया बनायी और आपको इसमें एक रोल निभाने भेजा, तो फिर आपके जीवन में चिंता मिट जानी चाहिए। लेकिन हम इंसान हैं। हम ईश्वर पर यकीन के बाद उससे आंख चुराने के रास्ते खोज लेते हैं। हम भाग्यवाद की दुहाई देने के अगले पल संसार को चैलेंज करने निकल पड़ते हैं। वरना दूध पीने वाले गणेश जी के इस देश में उस चमत्कार के बाद अधर्म के लिए जगह बचनी ही नहीं चाहिए थी। दूध पी लेने से ज्यादा कोई ईश्वर अपने होने की और क्या गारंटी दे सकता है। क्या ईश्वर के साक्षात दर्शन कर लेने के बाद भी सांसारिकता बची रह सकती है? यही कारण है कि दुर्गा की प्रतिमा के सामने सिर नवाने वालों में कन्याओं पर फब्तियां कसते लोग भी दिखते हैं। ऐसा इसलिये होता है कि हम अधूरे हैं। हमारा यकीन अधूरा है। हमें अपने यकीन पर ही यकीन नहीं है। विश्वास का यह अधूरा सफर बहुत सी उलझनों को जन्म देता है। यह एक अनिश्चित दिमाग का संकेत है। आज हमारी त्रासदी का कारण यही है।
Tuesday, October 4, 2011
क्या आपको अपने यकीन पर यकीन है?
Posted by pandeyhariram at 10:47 AM
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