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Wednesday, August 12, 2015

इंसान को इंसान समझने की जरूरत है


संसद में हंगामा बरपा हो रहा है। काम- काज नहीं हो रहा है। देश की गरीब जनता की गाढ़ी कमाई का बड़ा हिस्सा उस संसद के चलाने में खर्च होता है। एक आंकड़े के मुताबिक संसद को चलाने में प्रति मिनट 2.5 लाख रुपये खर्च होते हैं। कामकाज नहीं होता है तब भी देश चल रहा है। अब आप सोच सकते हैं कि देश को चलाने के नाम पर कितनी बड़ी रकम खर्च होती है और तब भी संसद नहीं चलती।
उधर जम्हूरियत का ढोल पीटे जा रहे हैं वो
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है ,नवाबी है।
आपने सोचा है कभी कि हमारे लोकतंत्र का कोई नेता गरीब क्यों नहीं होता। यही नहीं, भोपाल गैस कांड से लेकर सोमवार की सुबह देवघर के भगदड़ में मरने या घायल होने वालों में आज तक एक नेता नहीं मिला। इस हुजूम में जिसे संसद कहते हैं क्या कभी सुना है आपने कि जिस देश में दुनिया भर में सबसे ज्यादा कुपोषण के शिकार लोग रहते हों, उस देश में की संसद में कुपोषण से मरने वाले बच्चोंपर कार्य स्थगन की नोटिस दी हो और उसपर चर्चा हुई हो? हो? कभी गंदगी और कूड़े कर्कट के जहरीले पानी में उगायी जाने वाली सब्जियों के बाजार में बिकने और उसके कारण होने वाले भयानक रोगों से जनता को बचाने के लिए सदन की गांधी मूर्ति पर किसी ने सत्याग्रह और प्रदर्शन किया? नहीं न। क्योंकि ये नेता उस वर्ग के नहीं होते जो हावड़ा पुल के नीचे से या गांव मुहल्ले के फुटपाथों पर बिकने वाली स​​ब्जियों को खरीदने जाते हैं तथा मोल- भाव करते हैं।
दरअसल,हमारे देश में इंसान इंसान से अलग हो रहा है। अब शहरों में जाति से ज्यादा वर्गभेद होता है। सड़क पर चलते हुए कार वाले साइकिल या पैदल वालों को इंसान समझने को राजी नहीं हैं। गरीब-अमीर का फर्क बड़ा हो रहा है। गाड़ी से चार लोगों को रौंदने के बाद बड़ी तादात में लोगों का सलमान खान के समर्थन में आना ये बताता है कि हम गरीबों की मौत को शायद इंसानी मौत मानने को तैयार नहीं हैं। समानता के अधिकार का हर रोज मजाक उड़ा है, और यह सब पाप किया है देश की बहुमत प्राप्त सरकारों ने। चाहे कोई इसे माने या न माने यह एक कड़वी सच्चाई है कि हमारे देश की राजनीतिक व्यवस्था में बहुमत का मतलब निरंकुशता होकर रह गया है। बहुमत के जोर पर केंद्र और राज्यों में सत्ता के संस्थान देश की संपदा और संसाधनों का दोहन वर्ग विशेष के लिए करते आ रहे हैं।
बहुमत की निरंकुशता ने लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को वोट बैंक की राजनीति का पर्याय बना दिया है। देश का बड़ा हिस्सा आज भी कल्याण की बाट जोह रहा है, लेकिन उसके हिस्से में आज भी उपेक्षा , तिरस्कार और ग्लानि ही है। किसान और मजदूर आज भी अपने हक से वंचित हैं। आजादी के बाद शुरुआती वर्षों में जो कानून किसान और मजदूरों के न्यूनतम हितों की रक्षा के लिए बनाए गए थे उन्हें भी बहुमत की निरंकुशता के जोर पर बदला जा रहा है। शिक्षा और स्वास्थ्य पहले सेवाएं हुआ करती थीं, लेकिन बहुमत की सरकारों ने उन्हें भी धंधा बना दिया। आज हिंदुस्तान में औसत मध्यवर्ग के नागरिक की महीने भर की कमाई शिक्षा और स्वास्थ्य के दुकानदार लूट लेते हैं।
ये बन्दे-मातरम् का गीत गाते हैं सुबह उठकर
मगर बाज़ार में चीज़ों का दुगुना दाम कर देंगे
पिछले 6 दशकों में रोटी, कपड़ा और मकान का मूलभूत सपना देखते-देखते न जाने कितनी आंखे पथरा गई हैं। अवसाद से भरे इन तमाम वाकयों से बहुमत वाली किसी सरकार ने कोई सरोकार नहीं दिखाया है। बहुमत के जोर पर बनने वाले कानूनों का मकसद लोगों को राहत पहुंचाना नहीं अपनी बात मनवाना हो गया है।
जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे
कमीशन दो तो हिन्दोस्तान को नीलाम कर देंगे
मिडिल क्लास, अपर मिडिल क्लास और विचारवान लोगों को देश और देश भक्ति एक गाली की तरह लगती है। हमारे देश की राजनीतिक पार्टियों में बौद्धिकता हाशिए पर पड़ी है।
तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है
हमने बीते साठ सालों में खासी तरक्की की है लेकिन अब इंसान को इंसान समझने की जरूरत है। अगर हम ये नहीं समझ सके तो हमारी पैसे वाली तरक्की समाज के उस ताने-बाने को खत्म कर सकती है जिसके केंद्र में इंसानियत और भेदभाव मिटाने का संकल्प है।
तुम्हारी मेज़ चांदी की तुम्हारे जाम सोने के
यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है

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