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Monday, August 3, 2015

बिहार : विकास के बाद भी पिछड़ा


बिहार : विकास के बाद भी पिछड़ा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना है कि राजनीति के कारण विकास प्रक्रिया बाधित नहीं होनी चाहिए। विगत शनिवार को पटना में आयोजित एक कार्यक्रम में उन्होंने इस बात पर दु:ख जताया कि सियासत के कारण बिहार का विकास ढंग से नहीं हो सका। मोदी जी यह कहते हुए खुद भी राजनीति ही कर रहे थे। कौन नहीं जानता कि बतौर प्रधानमंत्री उनकी पहली बिहार यात्रा राज्य में जल्द ही होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए समर्पित थी। अगर उन्हें सचमुच बिहार के विकास की चिंता होती तो उस स्पेशल पैकेज की घोषणा वे महीनों पहले कर चुके होते, जिसका जिक्र वे पिछले आम चुनाव के लिए जारी चुनाव प्रचार अभियान में अक्सर किया करते थे। बिहार पर इस समय देश की निगाहें हैं। हर दूसरा आदमी जानना चाहता है कि बिहार में चुनाव के दौरान और बाद में क्या होगा। वहां किस पार्टी की हवा है। लेकिन बिहार में खास कर पटना में ऐसा नहीं दिख रहा है। न जाने क्यों लोगों में वह सियासी गर्मजोशी और उत्तेजना नहीं दिखाई दे रही, जो कभी इस शहर की पहचान हुआ करती थी। महानगरीय तटस्थता और उदासीनता अब शायद यहां भी अपनी जड़ें जमाने लगी हैं। इसका एक कारण शहर के चरित्र का बदलना भी है। पटना का सामाजिक-आर्थिक जीवन पिछले दो दशकों में बड़ी तेजी से बदला है। आर्थिक विकास की​ बात कहें तो पटना में दो तरह के विकास दिखते हैं, एक है निजी नर्सिंग होम और दूसरा है कोचिंग संस्थान। चूंकि, बिहार की अर्थ व्यवस्था दूसरे शहरों या देशों में काम करने वाले श्रमिकों या यों कहें कि ट्रांजिशनल सर्विस सेक्टर पर निर्भर है। इसलिये यहां के लोगों के पास खर्च करने के लिये पैसा पर्याप्त है। पटना के किसी डॉक्टर का विजटिंग कार्ड देखिए। पता चलेगा, एक डॉक्टर पांच से दस निजी अस्पतालों का कंसल्टेंट है। दूसरी तरफ पटना में एम्स जैसा संस्थान खुल चुका है। इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान के अलावा पटना मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल (पीएमसीएच) जैसे सरकारी अस्पताल हैं, जिनमें हर समय भारी भीड़ लगी रहती है। इस स्थिति का लाभ उठाने के लिएं वहां निजी एम्बुलेंस सेवा की बाढ़ आ गयी है। अस्पतालों , दवा दुकानों और एम्बुलेंस के अलावा दूसरा धंधा है कोचिंग संस्थानों का। यह धंधा भी यहां खूब फल-फूल रहा है। गली-गली में कोचिंग इंस्टिट्यूट खुले हैं जो मेडिकल, इंजिनियरिंग और दूसरी प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी करवाते हैं। कई तो कोटा (राजस्थान) स्थित कोचिंग संस्थानों में ऐडमिशन के लिए कोचिंग करवाते हैं। आगे बढ़ने और तरक्की की चाह में वहां के लोगों का एक बड़ा तबका अपने बच्चे की कोचिंग पर पैसे खर्च कर रहा है, जो पहले नहीं करना चाहता था। पटना के कोचिंग संस्थानों में पढ़ रहे लड़के दूसरे राज्यों में पढ़ने जाएंगे। लेकिन पढ़कर लौटने के बाद अपने राज्य में कोई रोजगार उन्हें शायद ही मिल पाएगा। बिहार की यह नई तस्वीर विकास के असंतुलन को दर्शाती है। निस्संदेह, नीतीश राज में राज्य की हालत बदली है। कानून और व्यवस्था की स्थिति सुधरी है। उद्योग-धंधे के लिए जिस इंफ्रास्ट्रक्चर की जरूरत है, उसका अब भी अभाव है। सबसे बड़ी मुश्किल बिजली की है। बड़े उद्योग लगते हैं तो उससे कई छोटे-मोटे धंधे पनपते हैं। कुछ नई सेवाओं की जरूरत पड़ती है। बिहार में ऐसा नहीं हो पा रहा। ऐसे में जो बुनियादी जरूरत की चीजें हैं, उनमें ही थोड़ा बहुत निवेश हो पा रहा है। स्वास्थ्य और शिक्षा वैसे ही क्षेत्र हैं। थोड़ा या ज्यादा बदलाव के बावजूद अगर नहीं बदला तो जाति का समीकरण। बिहार में अहम राजनीतिक मुद्दों की बात की जाए तो जातिवाद बहुत ही हावी है। हर पार्टी एक खास जाति को साथ लेकर चलती है और ज्यादातर मामलों में उसी जाति को सहयोग देती नजर आती है। ऐसा यहां एक पार्टी नहीं बल्कि सभी पार्टियां करती हैं। लालू जहां यादवों के हितों को महत्व देते हैं तो नीतिश कुर्मी-कोयरी को प्राथमिकता देते नजर आते हैं, रामविलास जी की प्राथमिकताएं स्वाभाविक तौर पर स्वजाति पासवानों के लिए है, कुछ जातियां जैसे भूमिहार, कायस्थ, ब्राह्मण इत्यादि और वैश्य भारतीय जनता पार्टी की प्रायरिटी लिस्ट में हैं। उपरोक्त उदाहरणों का तात्पर्य ये है कि बिहार के संदर्भ में हरेक राजनीतिक दल या महत्वपूर्ण राजनेता अपने राजनीतिक हितों को पोषित करने के लिए जातिगत खेमों पर आश्रित दिखता है। ऐसे में समाज का एक अहम वर्ग यानी आम जनता सुविधाओं से वंचित नजर आता है। वोट- बैंक की खातिर हर क्षेत्र से टिकट देते समय हरेक पार्टी जाति का अहम ध्यान रखती है। बिहार का बदला सामाजिक-आर्थिक यथार्थ अगले चुनाव या आगे की राजनीति को कितना प्रभावित कर पाएगा, कहना कठिन है। लोग बदल गए हैं, धंधा बदल गया है लेकिन सियासत में मुहावरा अब भी जात-पांत वाला ही चल रहा है।

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