भारत में दरअसल चुनाव जीतने के लिए सरकार द्वारा किये गये कामकाज जरूरी हैं लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी है कि अगली अवधि के लिए जनता उस पार्टी के बारे में क्या सोचती है। उसकी धारणा क्या है? पिछले चुनाव में कांग्रेस की पराजय और भाजपा की भारी विजय के पीछे यही धारणा सक्रिय थी। अपने सारे प्रयासों के बावजूद कांग्रेस आम जन को यह यकीन नहीं दिला सकी कि वह उनके दु:ख- सुख के बारे में सोचती है जबकि भाजपा ऐसा करने में कामयाब रही। इसी परिप्रेक्ष्य में अगर बिहार का चुनाव देखें तो यहां भी धारणा ही विकसित होती दिख रही है और पक्ष तथा प्रतिपक्ष दोनों ही धारणाओं को अपने पक्ष में करने की कोशिश करते नजर आ रहे हैं। जैसे लालू-नीतीश के ‘‘बेमेल’ गठबंधन, लालू राज के जंगल राज का शोर और इस दोस्ती को नीतीश के सुशासन के लाभों पर पानी फेरने वाला बताना भाजपा की बहुत सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है। दूसरी तरफ , नीतीश अब भी सुशासन और विकास की बात को प्राथमिकता देते लग रहे हैं, जबकि लालू जनगणना के जातिवार आंकड़ों के मुद्दे से लेकर मंडल-कमंडल की लड़ाई वापस लाने के लिए प्रयास करते दिख रहे हैं। अपनी पहली यात्रा के दौरान मोदी ने राष्ट्रीय जनता दल के नए नामकरण और नीतीश के डीएनए का मसला छेड़कर कुछ मनचाहा नतीजा हासिल किया और एक बार में बिहार का चुनावी परिदृश्य गरमा गया। लालू तो बौखलाए ही, नीतीश ने डीएनए वाले मसले को एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा और बिहारियों के अपमान से जोड़कर सियासी लाभ लेने की कोशिश की। अब भी यह कोशिश जारी है और मोदी को पचास लाख बिहारियों के डीएनए नमूने भेजने का अभियान चल रहा है। मोदी की यात्रा के कुछ घंटों के अंतराल में ही लालू और नीतीश ने प्रेस के माध्यम से लगभग हर बात का जवाब उसी लहजे में दिया। अगर प्रधानमंत्री ने लालू-नीतीश गठबंधन का लक्ष्य जंगल राज पार्ट-2 बताया, तो लालू ने इसे मंडल-2 की तैयारी बताया। अपने जेल के अनुभव से अधिक शोर अमित शाह के जेल जाने का मचाया। बिहार चुनाव लालू और नीतीश के लिए जीवन-मरण का प्रश्न है, तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह के लिए भी यह उतना ही महत्वपूर्ण है। यही कारण है कि लोकसभा चुनाव में मोदी के हाथों बुरी तरह धुन दिए जाने के बाद सबसे पहले नीतीश ने ही मोदी की काट के लिए नई रणनीति अपनाई और लालू की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया। भले ही लोकसभा चुनाव में लालू की पार्टी का प्रदर्शन नीतीश के जदयू से बेहतर था, पर उनकी राजनीतिक मुश्किल चारा कांड में सजा पाने से बढ़ चुकी थी। सो, उन्होंने भी लपककर नीतीश का हाथ थाम लिया। बिहार में सिर्फ जोड़-तोड़, जुमलेबाजी या तीखे तेवर की बयानबाजी ही नहीं हो रही है। कई बार से मोदी को अपनी सेवाएं देने वाले प्रशांत किशोर इस बार नीतीश के सारथी बने हुए हैं और दरवाजे-दरवाजे तक उनका संदेश पहुंचाने का काम चल रहा है। विजन दस्तावेज के बाद अब रिपोर्ट कार्ड पहुंचाने की बारी है। बीजेपी सोच सकती है कि माहौल उसके अनुकूल है। प्रधानमंत्री की रैलियों में भीड़ दिख रही है, यानी उनकी लोकप्रियता काफी हद तक कायम है। दूसरे, बिहार बीजेपी के नेता विधान परिषद चुनाव परिणाम को विधानसभा की पूर्व पीठिका मान रहे हैं। परिषद चुनाव से जेडीयू, आरजेडी, कांग्रेस गठबंधन को निस्संदेह धक्का लगा है और बीजेपी का उत्साह बढ़ा है। तीसरे, बीजेपी के साथ जीतनराम मांझी के आने से दलित मतों के ध्रुवीकरण की संभावना बढ़ी है। चौथे, नीतीश के दस साल के शासन से असंतोष पैदा हुआ है और उनके द्वारा 2010 के चुनाव पूर्व बनाए गए सामाजिक समीकरण भी टूटे हैं। पांचवे, जिन लालू प्रसाद यादव के कुशासन के विरुद्ध नीतीश ने 1994 से संघर्ष किया, उनके साथ गठबंधन को राज्य का बहुमत स्वीकार कर लेगा, इस पर संदेह है। बीजेपी के पक्ष में वह आक्रामकता गायब है जो लोकसभा चुनाव के पहले थी। बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने 160 परिवर्तन रथ रवाना किए जो सभी विधानसभा क्षेत्रों में मोदी सरकार की उपलब्धियां और नीतीश की विफलताएं दिखा रहे हैं। नीतीश ने उसके पहले ही 400 ट्रकों की रवानगी की योजना बना ली, जो पूरी तरह हाइटेक हैं। इसमें आक्रमण और जवाब दोनों है। द्वार-द्वार दस्तक कार्यक्रम के संबंध में दावा है कि नीतीश की देखादेखी जेडीयू के लोग भी करोड़ लोगों तक पहुंचें। जन भागीदारी अभियान, बढ़ चला बिहार, ब्रेकफास्ट विद सीएम, बिहार विकास संवाद, जिज्ञासा, गौरव गोष्ठी, इन सारे कार्यक्रमों को देख लीजिए तो लोकसभा चुनाव के पूर्व मोदी के चुनाव अभियानों की छाया दिखाई देगी। नीतीश के प्रयास अच्छे हैं पर इसके बावजूद उन्हें राज्य की जनता को आश्वस्त करना होगा कि जंगल राज - 2 की वापसी नहीं होगी और बिहार विकसित होगा। फिलहाल तो गीता वाली स्थिति है जिसमें संजय कहते हैं
दृष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥
दृष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥
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