प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रविवार को बिहार के गया में चुनाव प्रचार के लिये गये थे। जैसी कि उनकी शैली है वे विपक्षी पर मारक प्रहार करते हैं, उसी तरह से उन्होंने अपने विपक्षी नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव पर प्रहार किया। प्रहार की उनकी शैली बड़ी ही नाटकीय होती है। अगर महान मनोशास्त्री कांट की भाषा में कहें तो मोदी ‘पॉलिटिकल थियेट्रिक्स’ के विशेषज्ञ हैं। वे साधारण से जुमले में असाधारण सी बात कह जाते हैं आैर वह बात अपेक्षित प्रहार करती है। रविवार के ही जुमलों को देखें। उन्होंने दो बातें कहीं। पहली जंगलराज पार्ट 2 के पुनरागमन की और दूसरे बिहार की किस्मत पलट देने की। ये दोनों बिहार में ऐसे पॉलिटिकल थिपयेट्रिक्स के उदाहरण हैं जिसका वहां के जनमानस पर व्यापक प्रभाव पड़ा है। वैसे अगर ध्यान से देखें तो समस्त भारतीय राजनीति ही एक नाटक है। कहते ही हैं कि ‘द ग्रेट इंडियन पॉलिटिकल थियेटर।’यह आरंभ से ही भारत की राजनीति में होता रहा है। गांधी, जो अफ्रीका से टाई कोट पहन कर आये थे, भारत आकर संन्यासी का वेश धर लिये और उसकी नाटकीय अपील से उन्होंने अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिये। यही हाल राजा मांडा के नाम से विख्यात विश्वनाथ प्रताप सिंह का था। विप्र सिंह ने मंत्रिमंडल छोड़कर बोफोर्स घोटाले का पर्दाफाश करने की घोषणा से देश का दिल जीत लिया। फिर अचानक वो राजा वाली वेशभूषा त्याग धोती में दिखने लगे। कुछ तस्वीरों में तो ऐसे बन बैठे, मानो महात्मा गांधी की सादगी अपना ली हो। सब नाटकीय परिवर्तन थे। थिएट्रिक्स की नई-नई कलाएं सामने आ रही थीं। वे किसी की भी मोटरसाइकल पर पीछे बैठ जाते। लोग दंग रह जाते। प्रधानमंत्री बनते ही बदल गए। अनूठी अभिनय क्षमता। बड़े-बड़े अंगरखे आ गए। राजा जैसी शेरवानी, कोट, टोपी। समूचा गांधी रूप, रूप ही रह गया। बाद में मंडल की आग धधकाकर देश में घृणा की पीढ़ी तैयार करने का आधार बने, वो अलग। मतलब, हमारे देश में राजनीति में कामयाबी के लिये मुखौटे औरचोट करते जुमले जरूरी हैं। जब जुमले की बात चली तो भाजपा के चाल, चरित्र, चेहरा वाला जुमला याद होगा सबको। उससे भी अधिक याद आता है - नरेन्द्र मोदी का मुखौटा। गुजरात चुनाव से चर्चित वह मुखौटा मोदी-मास्क बनकर विख्यात हुआ। शायद ही कोई दूसरा नेता ऐसा होगा जिसका मास्क उसके ख़ुद के चेहरे से इतना मिलता जुलता हो, जितना नरेन्द्र मोदी का है। नाट्यकला, सभी कलाओं में श्रेष्ठ मानी गई है, चूूंकि इसमें आपको चुनने या पसंद करने या कि खारिज करने वाले ठीक सामने ही होते हैं। नाटक, मात्र मनोरंजन नहीं है। नाटक, गहन अर्थपूर्ण होते हैं। राजनीति, नाटकीय तो है। किन्तु नाटक नहीं है। अब रविवार के गया में मोदी को भाषण की जुमलेबाजी और नाटकीयता को देखें। प्रधानमंत्री ने एक पखवाड़े के भीतर बिहार में अपनी दूसरी जनसभा में कहा कि राज्य में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार बनने पर पांच साल के भीतर राज्य से ‘बीमारू’ का ठप्पा हट जायेगा हालांकि उन्होंने बहुप्रतीक्षित आर्थिक पैकेज संबंधी वादे के बारे में कुछ भी ऐलान नहीं किया। उन्होंने गया में गांधी मैदान में आयोजित ‘परिवर्तन रैली’ में लोगों से अपील की कि वे ‘अहंकार में डूबी सरकार’ को हटाएं। अपने संबोधन में ‘जंगल राज’ शब्द का कई बार जिक्र किया और कहा कि बिहार की जनता ‘जंगलराज पार्ट 2’ को आने की अनुमति नहीं दे। प्रधानमंत्री ने कहा कि आपने 25 साल तक राज्य पर शासन करने वालों के अहंकार, उत्पीड़न और धोखाधड़ी को झेला है। क्या आप पांच साल और इन्हीं लोगों को शासन करने का मौका देंगे। यह विकासहीनता का दंश झेल रहे बिहार वासियों की साइक पर सीधा प्रहार था। मोदी जिस ढंग से कह रहे थे वह सत्ता की एक खास किस्म की कीमियागीरी या यों कहें ‘अलकेमी’ है। इसमें दिखता वही है जो नेता चाहता है। मेकियावेली का कथन था कि ‘सत्ता के शीर्ष पर बैठ कर परिवर्तन या नयी व्यवस्था की शुरुआत करने के मुकाबले कुछ भी करना कठिन नहीं है । ’ प्रधानमंत्री ने अपने भाषण मे बिहारवासियों को यह उम्मीद दिलाने का प्रयास किया है कि वे वहां की दिशा और दशा में बदलाव लाकर अपनी सरकार के रवैये और कारगुजारी को वहां के लोगों के प्रति ज्यादा दोस्ताना और अर्थपूर्ण बनाएंगे। आपमें से बहुतों को याद होगा कि 14 अगस्त 1947 की रात को ठीक 12 बजे जब 15 अगस्त की दस्तक के साथ आजाद भारत का निर्माण हुआ था, उस अवसर पर नेहरू जी ने अपने भाषण में ट्रिस्ट विद डेस्टनी (नियति से पूर्व-नियोजित भेंट) नामक कालजयी पंक्ति का उल्लेख किया था। नरेंद्र मोदी ने बिहार में एक नई‘ ट्रिस्ट विद डेस्टनी’ शुरू करने का संकेत दिया है। लेकिन देश के अन्य भागों में मोदी की कारगुजारियों और सत्ता के परफॉरमेंस को देखते हुए क्या नहीं लगता कि राजनीति को नाटक बनने से रोकना असंभव है। किन्तु रोकना ही होगा। वरना कल नायक ही खलनायक बन जाएंगे। वैसे भी बिहार चुनाव को जितना कांटे का माना जा रहा है, छोटी से छोटी गलती नतीजों पर बड़ा फर्क डाल सकती है। ऐसे में दोनों पक्ष कोई कसर छोड़ना नहीं चाहेंगे। लेकिन बाजी को अपने हक में करने के फेर में नेताओं की तरफ से बयानबाजी में जैसी गिरावट देखी जा रही है और जिस तरह असंसदीय भाषा का इस्तेमाल हो रहा है उससे बचा जाना चाहिए।
Wednesday, August 12, 2015
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