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Monday, August 3, 2015

आर्गेनिक खेती से सुधरेगी कृषि

आर्गेनिक खेती से सुधरेगी कृषि
आज के बदलते परिवेश में हर क्षेत्र में नयी क्रान्ति का संचार हो रहा है। भारतीय कृषकों ने उन्नत तकनीक अपनाकर तथा अपने कठिन परिश्रम से खाद्यान उत्पादन में उल्लेखनीय प्रगति की है। किन्तु अधिक उपज लेने तथा फसलों को पादप व्याधियों से, खर- पतवारों से तथा कीटों से बचाने के लिए अन्धा-धुन्ध रासायनिक खादों तथा कृषि रसायनों के प्रयोग से भूमि की उर्वरा शक्ति घटती जा रही है और मृदा प्रदूषण बढ़ता जा रहा है साथ में भूमि में उपस्थित लाभदायक जीवों की संख्या घटती जा रही है जिसकी वजह से भूमि में टिकाऊ खेती अधिक समय तक नहीं की जा सकती है। अतः वैज्ञानिक भूमि के क्षरण को रोकने, भूमि को प्रदूषण से बचाने तथा भूमि में लाभदायक जीवों की संख्या बढ़ाकर खेतों को टिकाऊ कृषि लायक बनाने हेतु जैविक खेती को बढ़ावा दे रहे हैं। खर्च कम करने में, मिट्टी का प्राकृतिक उपजाऊपन सुधारने के साथ-साथ बेहतर गुणवत्ता के उत्पादन में यह बहुत उपयोगी है। हाल ही में भारत सरकार ने उत्तर-पूर्व क्षेत्र को आर्गेनिक खेती का एक मुख्य केंद्र बनाने की योजना सामने रखी है। इससे पहले सिक्किम में तो पूरी तरह आर्गेनिक खेती अपनाने का महवपूर्ण निर्णय लिया गया। कुछ स्थानों पर आर्गेनिक खेती के प्रसार को अब आदर्श ग्राम योजना से भी जोड़ा जा रहा है। इसके अतिरिक्त देश के अनेक क्षेत्रों में आर्गेनिक खेती के सफल प्रयोगों के परिणाम सामने आ रहे हैं। आर्गेनिक खेती के महत्व को नए सिरे से पहचानने का एक बड़ा कारण यह है कि पांच दशकों तक रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाओं पर तेजी से बढ़ती निर्भरता के दुष्परिणाम अब बहुत स्पष्ट हो चुके हैं। यही वजह है कि बहुत से किसानों को जब अनुकूल अवसर मिलते हैं तो वे कई स्तरों पर आर्गेनिक खेती को आजमाना चाहते हैं। इतना ही नहीं, राष्ट्रीय स्तर पर उपलब्ध आंकड़े अब यह स्पष्ट बता रहे हैं कि लगभग 50 वर्ष पहले केमिकल फर्टिलाइजर व पैस्टीसाइड के तेजी से बढ़ते उपयोग पर आधारित जिस कृषि नीति का बहुप्रचार किया गया था, उससे वास्तव में उत्पादकता में अपेक्षित वृद्धि नहीं हुई। बारहवीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज में हरित क्रांति से पहले के 15 वर्षो और बाद के 12 वर्षो में उत्पादकता वृद्धि के विस्तृत आंकड़े दिए गए हैं। यदि फसल की मात्रा न देखकर उत्पादन मूल्य में वृद्धि के इन आंकड़ों को देखा जाए तो भी हरित क्रांति के पहले 15 वर्षों में अनाज, दलहन, तिलहन, कपास आदि मुख्य फसलों में पलड़ा भारी रहा, जबकि सब्जी व फल के उत्पादन मूल्य की वृद्धि बाद के 12 वर्षो में अधिक हुई। दूसरी ओर जहां तक खर्च का सवाल है तो पहले 15 वर्षो की अपेक्षा बाद के 12 वर्षो में रासायनिक खाद की खपत लगभग छह गुना बढ़ गई व कीटनाशक में वृद्धि इससे भी कहीं अधिक थी। ये सरकारी आंकड़े अब इस वैज्ञानिक सच्चाई की पुष्टि करते हैं कि रासायनिक खाद व कीटनाशक के अधिक उपयोग से भूमि के प्राकृतिक उपजाऊपन में कई तरह से गिरावट आती है। आसपास के पर्यावरण पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ता है जो आगे चलकर उत्पादकता में और गिरावट का कारण बनता है। भूजल पर भी उसका बहुत प्रतिकूल असर पड़ता है। इन गंभीर समस्याओं के बावजूद चूंकि सरकारी कृषि तंत्र ने अपनी पूरी ताकत हरित क्रांति के प्रसार में लगा दी थी, अत: इस तकनीक का प्रसार तेजी से होता रहा जिससे एक बड़े क्षेत्र में बहुमूल्य जैव-विविधता वाले परंपरागत बीज पूरी तरह लुप्त हो गए। इन परंपरागत बीजों से जुड़ा हुआ ज्ञान बुजुर्ग शताब्दियों से नई पीढ़ी को देते आए थे, वह ज्ञान भी तेजी से लुप्त होने लगा। कई शताब्दियों से व कुछ क्षेत्रों में तो हजारों वर्षो से जो परंपरागत ज्ञान व बीज एकत्र हुए थे वे महज 50 वर्षो में बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गए थे। हमें विकास के ऐसे माडल को आधार बनाना चाहिए जिसमें आगे बढ़ने के लिए गांव व खेती-किसानी को छोड़ना मजबूरी न हो। गांवों व कस्बों की अर्थव्यस्थाओं में ही विविधता भरे अनेक रोजगारों का सृजन किया जा सकता है।

गांवों की आजीविका विविधता भरी होगी, तो प्रतिकूल मौसम का सामना करने की ग्रामीण समुदाय की क्षमता अपने आप बढ़ जाएगी। इसके साथ कृषि के तौर-तरीके भी ऐसे अपनाने चाहिए जिससे प्रतिकूल मौसम से भी अधिक क्षति न हो व किसानों को कर्जग्रस्त न बनना पड़े। विशेष तौर पर जरूरी है कि किसान सस्ती व आत्मनिर्भर तकनीकें अपनाएं जिससे उन्हें बाजार से ज्यादा खरीद न करनी पड़े। खर्च कम से कम होगा तो कर्ज भी नहीं लेना पड़ेगा। विविधता भरी मिश्रित खेती बेहतर पोषण व स्वास्थ्य के लिए, खर्च कम रखते हुए आय बढ़ाने के लिए तथा प्रतिकूल मौसम का सामना करने के लिए बेहतर मानी गई है। किसानों को अपनी उपज की बेहतर कीमत मिलनी चाहिए। प्याज, आलू जैसी फसलों के भंडारण के लिए नि:शुल्क गोदामों की गांव में व्यवस्था सरकार को करनी चाहिए। कृषि अनुसंधान व विस्तार कार्यों में जरूरी सुधार कर छोटे किसानों के हितों व पर्यावरण की रक्षा के अनुकूल कार्य को बढ़ावा देना चाहिए।

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