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Wednesday, September 8, 2010

गतिरोध में फंसी संप्रग सरकार

किसी भी सरकार की क्षमता की परीक्षा संकट से जूझने की उसकी कोशिशों में झलकती है। लेकिन यूपीए सरकार की कोशिशों में असमंजस ज्यादा है आत्मविश्वास कम। सोमवार को प्रधानमंत्री ने कह दिया कि देश में 37 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं और उन्हें मुफ्त अनाज नहीं दिया जा सकता है।

मंगलवार को मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने बड़े स्कूलों से कहा है कि वे गरीब बच्चों को मुफ्त पढ़ाएं। यदि वे स्कूल अपने कुल दाखिले में 25 प्रतिशत गरीब बच्चों को नहीं रखते हैं तो उन्हें बंद कर दिया जायेगा। अपने पहले कार्यकाल में इसने अपनी कई महत्वाकांक्षी योजनाओं से जनता का विश्वास जीता था। उसे जनता ने इस भरोसे के साथ दूसरी बार सत्ता सौंपी कि वह इन योजनाओं को अमल में लाएगी। लेकिन जल्दी ही साफ हो गया कि ऊपरी तौर पर मजबूत दिखने वाली सरकार अंदर से बिखरी और बंटी हुई है।
कांग्रेस और सरकार में, कांग्रेस और घटक दलों में और खुद मंत्रियों के भीतर ही आपसी संवाद और तालमेल का घोर अभाव नजर आता है। शीर्ष नेतृत्व की लाचारी भी साफ झलक रही है। अपने पहले कार्यकाल में न्यूक्लियर बिल के पक्ष में डटकर खड़े रहने वाले प्रधानमंत्री महंगाई या दूसरे सवालों पर अपनी ओर से पहल करते नहीं दिख रहे हैं। उन्होंने ज्यादातर चुप रहना बेहतर समझा और जब बोले तो उसमें बेरुखी ही ज्यादा थी। कई बार मधुर संवादों से काम बन जाता है और कुछ प्रतीकात्मक कदमों से भी जनता का आक्रोश ठंडा हो जाता है। लेकिन सरकार इसके लिए भी तैयार नहीं दिखती।

संसद में वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने महंगाई की सप्रसंग व्याख्या जरूर की पर यह नहीं बताया कि क्या सरकार के पास इसकी जकडऩ से निकलने का कोई रास्ता भी है। जनता अर्थशास्त्र के सूत्रों को नहीं समझना चाहती। उसे सिर्फ कारण गिना कर शांत नहीं किया जा सकता। उसे तो ठोस उपाय की दरकार है।
दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में जब कांग्रेस ने अपने मंत्रियों को सादगी से रहने की हिदायत दी थी तो लगा था कि पार्टी एक नयी राजनीतिक संस्कृति की शुरुआत करना चाहती है, जिसकी झलक सरकारी नीतियों में भी मिलेगी। पर सब ढाक के तीन पात साबित हुआ। पहले तो बीच-बीच में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी सामने आकर कुछ न कुछ आश्वासन देती थीं। लगता था कि सरकार को 'मॉनिटर करने वाली एक सत्ता है, जहां जनता की शिकायतों की सुनवाई संभव है। पर पिछले कुछ महीनों से वह भी सुस्त पड़ गई लगती हैं। सरकार अपनी भाषा और कामकाज के तौर-तरीकों में नौकरशाह दिखती है। समस्याओं को सुलझाने को लेकर इसका ठंडापन किसी एनजीओ जैसा है। अगर यह अपने चरित्र में राजनीतिक होती और राजनीतिक हल पर भरोसा करती तो आज कश्मीर की यह हालत न होती। केंद्र सरकार ने शुरू में बस अपनी इतनी ही जिम्मेदारी समझी कि कुछ और सुरक्षा बल भेज दिए। वह सब कुछ उमर अब्दुल्ला के हवाले छोड़ कर निश्चिंत बैठी रही। जबकि कश्मीर के ज्यादातर राजनीतिक विश्लेषक और बुद्धिजीवी मानते हैं कि समस्या मुख्यमंत्री के अपरिपक्व रवैये के कारण इतनी गंभीर हुई है।

अब जाकर गृह मंत्री चिदंबरम राज्य की जनता का दिल जीतने और राजनीतिक वार्ता की बात कर रहे हैं। यह तत्परता शुरू में क्यों नहीं दिखायी गयी। नक्सलवाद से निपटने को लेकर भी कमोबेश यही हाल है। चिदंबरम ने शुरू में जोश दिखाया और यह मानकर चले कि सख्ती से ही इस संकट का समाधान संभव है। सुरक्षा बलों की कार्रवाइयां तेज करने का असर यही हुआ कि माओवादी पहले से ज्यादा आक्रामक हो गए। चिदंबरम अपने तरीके को लेकर कुछ ज्यादा ही आश्वस्त थे। वह इस संबंध में राज्य सरकारों की बात तक सुनने को तैयार नहीं थे। उनके तौर-तरीकों पर उन्हीं की पार्टी के नेता दिग्विजय सिंह ने सवाल उठाया। इससे साफ हो गया कि कांग्रेस में ही इस मसले पर मतभेद है। पहले तो दिग्विजय को चुप कराया गया लेकिन फिर पार्टी घुमा-फिराकर उन्हीं की भाषा बोलने लगी और चिदंबरम शांत हो गए।

अभी समझ में नहीं रहा कि संप्रग सरकार का माओवाद के खिलाफ असल स्टैंड क्या है। जिस तरह आए दिन सुरक्षाकर्मी मारे जा रहे हैं, उससे सरकारी अभियानों पर प्रश्नचिह्न लग गया है और सरकार की भारी किरकिरी हो रही है। पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने चीन में जाकर गृह मंत्रालय की खिंचाई कर दी तो भूतल परिवहन मंत्री कमलनाथ ने जयराम रमेश को ही कठघरे में खड़ा कर दिया। कमलनाथ ने योजना आयोग पर भी हमले किए जिसका कड़ा प्रतिवाद उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने किया। रही-सही कसर पूर्व केंद्रीय मंत्री मणिशंकर अय्यर ने पूरी कर दी है। उन्होंने कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन के औचित्य पर ही सवाल उठा दिया। कांग्रेस आलाकमान के सामने निश्चय ही एक बड़ी चुनौती है। उसे सरकार को वर्तमान गतिरोध से बाहर निकालना होगा।

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