अयोध्या पर फैसला टल गया। इसे लेकर देश की जनता थोड़ी सहमी हुई सी थी। क्योंकि हम धर्म के मामले पर थोड़ा भावुक हो जाते हें और कानून की सभी हदें पार कर जाते हैं। जब हम भले और बुरे में फर्क नहीं कर पाते, तभी हिंसा हमारी नीति और नफरत हमारी विचारधारा बनती है। निर्दोषों की जान लेने वाले आतंकी भी इसी श्रेणी में आते हैं।
लेकिन अफसोस है कि हमारा देश ऐसा ही है। हालांकि इसका ये मतलब नहीं कि हमें देश को इसी तरह कबूल भी करना होगा। यह बात राहत देने वाली हो सकती है कि कई लोग नफरत के खिलाफ हैं। लेकिन यह स्थिति तब कमजोर पड़ जाती है, जब हमारा सामना लोभ या मूर्खता से होता है। कहा तो यह भी जाता है कि लालच बुरी बला नहीं है, क्योंकि वही विकास का वाहक है। जरा सोचें कि हम कितने वर्षों से राम मंदिर-बाबरी मस्जिद प्रकरण में उलझे हुए हैं। क्या देश के सामने इसके अलावा और कोई मुद्दा नहीं है?
मंदिर या मस्जिद की तुलना में कहीं अधिक आवश्यकता है देश में गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी, अशिक्षा, आबादी, दहेज-दहन, बाल श्रमिक जैसी समस्याओं के समाधान की। मस्जिद टूटी तो अयोध्या में टूटी। अयोध्या वाले जानें। इससे पूरे भारत को क्या लेना-देना ? बरसों हम साथ रहते चले आए हैं। एक दूजे के दुःख-सुख, शादी-ब्याह में शरीक होते रहते हैं, एक दूसरे से व्यापार करते हें, लेन देन करते हैं, तो हम आपस में दुश्मनी क्यों मोल लें ! हमारा इसमें क्या स्वार्थ है?
विश्व के तमाम विकासशील देशों में भारत ही एक ऐसा देश है जो धर्मनिरपेक्षता की घोषणा राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के रूप में करता है और उस पर चलने की वजह से ही अन्य देशों से अपना भिन्न दर्जा रखता है। धर्मनिरपेक्षता भारत में सिर्फ एक बौद्धिक विचार, प्रबुद्ध चिंतन या किसी तार्किक बहस की अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि यह हमारे राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन का हिस्सा है। यह साम्राज्यवाद के विरुद्ध हमारे संघर्ष का एक अंग है।
छोटी पहचानों में बंटते चले जाना भारतीय समाज की नियति बन गई है। लगभग सभी राज्यों के भीतर अलग राज्य के आंदोलन चल रहे हैं, जिनमें कुछ सफल हुए हैं तो कुछ बीच में अटके हुए हैं।
भारतीय संस्कृति ने विश्व को नेतृत्व प्रदान किया है, कर रही है और आगे भी करती रहेगी, क्योंकि इसमें और केवल इसी में यह शक्ति है कि वह किसी भी मजहब या उपासना पद्धति, संप्रदाय या पंथ को पूर्ण रूप से समर्थन दे सकती है। विश्व में न तो कोई ऐसी दूसरी संस्कृति है, पंथ है, धर्म है और न ही कोई चिंतन है जो भारतीय परंपराओं जितना नर्म दिल हो। आज की विडंबना यह है कि सांप्रदायिकता को केवल धर्म नहीं बल्कि जाति, भाषा और क्षेत्र से भी जोड़ दिया गया है। उर्दू केवल मुसलमानों की ही क्यों समझी जाती है ? बांग्ला केवल बंगाल के लोगों की ही क्यों समझी जाती है ? क्या पंजाबी केवल सिखों की है ? क्या गोवा सिर्फ ईसाईयों का ही है और मथुरा मात्र हिंदुओं की धरोहर है ? हम अपने ही आधारों को आखिर क्यों कमजोर कर रहे हैं?
Friday, September 24, 2010
फैसला टला है, हुआ नहीं है : भारतीयों को खुद को बदलना होगा
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