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Thursday, September 23, 2010

कश्मीर मसले पर सच का सामना करें


कश्मीर गये सर्वदलीय प्रतिनिधि मंडल में विभिन्न मसलों को लेकर मतभेद पैदा हो गये हैं। कश्मीर समस्या दरअसल राजनीतिक, समाज वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक फांसों में उलझी हुई है। कश्मीर के ताजा हालात ने नीति-निर्माताओं को दोराहे पर खड़ा कर दिया है। उनके सामने दो विकल्प हैं। या तो सुरक्षा केन्द्रित मौजूदा बहस से निकलकर एक राजनीतिक पहल की जाय या सुरक्षा का मौजूदा तंत्र और कड़ा करने की राह पकड़ी जाए। कश्मीर से जुड़ी नीति में बुनियादी बदलाव की जरूरत इस बात से ही रेखांकित होती है कि केंद्र सरकार ने सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून (एएफएसपीए) को हटाने या इसके कुछ प्रावधानों को नरम बनाने पर चर्चा आमंत्रित की है।
केंद्र को खयाल रखना होगा कि इस हकीकत और इरादे से कश्मीर में जारी हिंसक घटनाओं या सरकार तथा सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल कड़े कदमों के पैरोकारों की दलीलों के चलते ध्यान न हटे। कश्मीर की जनता को राजनीतिक प्रक्रिया से जोडऩे की एक बड़ी जमीनी मुहिम शुरू करना इस वक्त देश के राजनीतिक नेतृत्व के लिए बड़ी चुनौती है, हालांकि हो सकता है कि इस मुहिम पर कश्मीर में तुरंत सकारात्मक प्रतिक्रिया न मिले।
केंद्र को एएफएसपीए पर चर्चा के प्रयास काफी पहले शुरू करने चाहिए थे। इससे शायद तमाम मौतों से बचा जा सकता था और मामला संभवत: इस मोड़ तक न आया होता। इसके बजाय, हुआ यह है कि कश्मीरियों की भावनाओं और वहां की सियासी हकीकत के बीच खाई और चौड़ी हुई है तथा अतिरिक्त सतर्कता बरतने के चलते उचित कदम उठाने में केंद्र सरकार की लडख़ड़ाहट सामने आयी है।
बावजूद इसके, कश्मीर में उभरी राजनीतिक चुनौतियों से दो-दो हाथ करने के सिवा और कोई रास्ता नहीं बचा है। और सुरक्षा मामलों पर कैबिनेट की सोमवार की बैठक बेनतीजा रहने के बाद केंद्र सरकार को आगामी सर्वदलीय बैठक का उपयोग कुछ निर्णायक कदमों पर आम सहमति बनाने में करना ही चाहिए ताकि इस गंभीर संकट से निपटा जा सके।
एएफएसपीए को नरम बनाने या कुछ जिलों से इस कानून को हटाने से कश्मीरियों पर वांछित असर नहीं पड़ेगा। अगर केंद्र इसमें से किसी एक को या दोनों बातों को लागू करने का फैसला करता है तो भी इसके साथ इस कानून को पूरी तरह हटाने का समयबद्ध कार्यक्रम पेश करना चाहिए। इसके अलावा, हालिया विरोध-प्रदर्शनों के दौरान गिरफ्तार युवाओं जैसे कुछ कैदियों को रिहा करने तथा अलगाववादियों सहित सभी वर्गों के साथ व्यापक बातचीत शुरू करने के कदम उठाए जाने चाहिए।
उग्रवाद से निपटने के लिए पिछले दो दशकों में बड़े पैमाने पर की गयी सुरक्षा केंद्रित कोशिशों का एक नतीजा यह रहा है कि आज घाटी पहले की तुलना में कहीं अधिक दूर दिख रही है। दरअसल, गुजरे सालों में जमीनी स्तर पर व्यापक राजनीतिक प्रयास नहीं किए गए। अब, इस राह को भी आजमाया जाना चाहिए।

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