आज हिंदी दिवस (चौदह सितंबर) है। सरकारी तौर पर हिंदी को राजभाषा (राष्ट्रभाषा नहीं) के रूप में स्वीकार करने की सांविधानिक तिथि। अक्सर यह पूछा जाता है कि हिंदी अगर राजभाषा है तो राष्ट्रभाषा क्या है ?
यह प्रश्न मूलभूत रूप में दार्शनिक है पर उस पर सियासत का पानी चढ़ा हुआ है। अतएव इसके आनुषंगिक विश्लेषण से पूर्व इसके छोटे से समन्वित सांस्कृतिक,ऐतिहासिक और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण पर गौर करें।
प्रश्न है कि एक संस्कृति के स्वप्न क्या हैं?
इस स्वप्न का निर्धारण बहुत हद तक उसकी स्मृतियां करती हैं। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि किसी शब्द में यदि संस्कृति का संकेत है तो स्मृति में उसकी छाया भी। इसलिये कोई भी भाषा, जब तक वह है, कभी मरती नहीं है। यदि हमारे अतीत का सब कुछ मर मिट जाय तब भी भाषा बची रहती है। जिसके द्वारा एक समाज के सदस्य आपस में संवाद कर पाते हैं। वर्तमान में रहते हुए भी अवचेतन रूप में वे अतीत से जुड़े रहते हैं। इस अर्थ में भाषा का दोहरा चरित्र होता है। वह सम्प्रेषण का माध्यम होने के साथ- साथ संस्कृति का वाहक भी होती है।
भारत के संदर्भ में इस सत्य को केवल दो दार्शनिक - भाषाविदों ने समझा, वे थे हीगल और मैक्समूलर।
हीगल ने जहां एक तरफ भारतीय सभ्यता के स्वर्ण युग को दबे खंडहर की संज्ञा देकर वर्तमान को खारिज कर दिया था, वहीं मैक्समूलर ने भारत को सांस्कृतिक रूप से जोडऩे वाली भाषा संस्कृत को समाप्त करने की साजिश की।
मैक्समूलर का मानना था कि जब तक संस्कृत जीवित रहेगी तब तक भारतीय अस्मिता बची रहेगी। मैक्समूलर की कोशिशें कारगर हो जातीं लेकिन 19 सदी के ही आखिरी दौर में इसी लुप्त होती सांस्कृतिक अस्मिता ने राष्ट्रीय चेतना को प्रस्फुटित कर दिया। उन्होंने संस्कृत से उद्भूत हिंदी को संवाद का माध्यम के रूप में गढ़ दिया और हिंदुस्तान को जागृत कर दिया। संस्कृत के भीतर जातीय स्मृतियों की एक ऐसी विपुल सम्पदा सुरक्षित थी, जो एक संजीवनी शक्ति की धारा की तरह अतीत से बहकर वर्तमान की चेतना को आप्लावित करती थी। राष्ट्रीयता के बीज इसी चेतना में निहित थे।
मैकॉले ने भी इसकी चेतावनी दी थी। जिस वैचारिक स्वराज की बात के सी भट्टाचार्य ने उठायी थी, उसका गहरा सम्बंध एक जाति की भाषाई अस्मिता से था। जिसे हम संस्कृति का सत्य कहते हैं, वह कुछ नहीं, शब्दों में अंतर्निहित अर्थों की संयोजित व्यवस्था है। जिसे हम यथार्थ कहते हैं, वह इन्हीं अर्थों की खिड़की देखा गया बाह्य जगत है।
भारतीय राष्ट्रीय चेतना यदि आरंभ से ही आत्मकेंद्रित संकीर्णता से मुक्त रही तो इसका कारण यह था कि वह आरोपित नहीं की गयी थी। इसके संस्कार पहले से ही सांस्कृतिक परम्परा में मौजूद थे। भारत की विभिन्न बोलियों और भाषाओं में भिन्नता होने के बावजूद एकसूत्रता के तत्व मौजूद थे, जिसके रहते भारत के राष्ट्रीय एकीकरण में कभी भी बाधा नहीं उपस्थित हुई। उनका घर एक ही था, खिड़कियां कई थीं।
हिंदी में इन खिड़कियों के अंतर्संबंधों को परखने तथा कायम रखने की क्षमता है। इसीलिये हिंदी हिंदुस्तान की अस्मिता है।
हिंदी है तो हिंदुस्तान रहेगा। इसके बगैर एक विखंडित संस्कृति के सिवा कुछ नहीं बचेगा।
यहां हम फिर मूल प्रश्न पर आते हैं।
राष्ट्रभाषा क्या है ?
दरअसल सरकारी संरक्षण किसी भी भाषा को राष्ट्रीयता की ऊंचाई तक नहीं ले जा सकता है।
केवल पारस्परिक संवाद और अस्मिता के प्रति जागरूकता ही उसे राष्ट्रीयता के स्तर तक पहुंचा सकती है और हिंदी उस स्तर पर पहुंच चुकी है।
Monday, September 13, 2010
हिंदी और हिंदुस्तान
Posted by pandeyhariram at 2:46 AM
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