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Friday, September 17, 2010

कश्मीर : जल्दी करें और निर्णायक करें


कुरान जलाये जाने की अफवाह के बाद 13 सितम्बर को कश्मीर में भड़की आग, जो घाटी में अभी तक सुलग रही है, की ओर से सरकार ने ढिलाई बरती तो नतीजे भयानक हो सकते हैं। इस घटना में गुस्सा वास्तविक है और यह सोचना भी आत्मघाती होगा कि यह पाकिस्तान के उकसाने पर हुआ है और यदि ऐसा हुआ होता तो बात इतनी नहीं बढ़ती। गुस्से का कारण और उसके इस स्थिति तक पहुंचने का कारण राज्य सरकार द्वारा मामले को ठीक से सुलझाने और केंद्र सरकार द्वारा समय रहते कार्रवाई करने में असफलता है।
पाकिस्तान और वहां सक्रिय आतंकी संगठनों ने तो केवल मौके का लाभ उठाया है।
बुधवार (पंद्रह सितंबर) को कश्मीर समस्या पर विचार और समाधान खोजने के लिये प्रधानमंत्री द्वारा बुलायी गयी सर्वदलीय बैठक लगभग असफल हो गयी। फकत यही तय हुआ कि सर्वदलीय प्रतिनिधि मंडल घाटी का दौरा करेगा। तीन महीनों में 90 मौतों की पृष्ठभूमि में बुलायी गयी इस बैठक से उम्मीद थी कि कुछ ठोस निकलेगा। पर हुई सिर्फ शांति की अपील। घाटी की यह आग जब चिनगारी थी तो वहां की उमर अब्दुल्ला सरकार पर सब छोड़ दिया गया था। जब हालात बद से बदतर हो गए तो भी सरकार ने अपील के अलावा कुछ नहीं किया।
इस बैठक से शायद केंद्र की यूपीए सरकार को भी अपनी कार्यशैली को लेकर कुछ सबक मिले हों, क्योंकि कुछ तो वजह जरूर रही होगी, जिसके चलते जम्मू-कश्मीर और केंद्र के विपक्षी दलों की सक्रिय भागीदारी अब तक सुनिश्चित नहीं की जा सकी थी, जो इस बैठक में मुमकिन हो गयी। जम्मू-कश्मीर के उपद्रवग्रस्त इलाकों में सर्वदलीय प्रतिनिधि मंडल का दौरा एक अच्छा फैसला है और गृह मंत्रालय को बिना देर किए इस अवसर का इस्तेमाल करना चाहिए। दिल्ली में बैठकर राज्य में शांति-व्यवस्था बहाल करने की बातें करना बहुत आसान है, लेकिन इसके लिए ठोस उपाय सुझाते वक्त हमारे राजनीतिक दलों की नजर में जम्मू-कश्मीर के आम जनजीवन की तस्वीरें होनी चाहिए।

आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पॉवर्स एक्ट को हटाने पर सहमति नहीं बन पायी है पर सरकार को याद रखना चाहिए कि सेना और अर्द्धसैनिक बलों के जवान वहां कश्मीरियों की सुरक्षा के लिए ही गये थे। बहरहाल, केंद्र सरकार के लिए सबसे जरूरी है निर्णायक होना। अनिर्णय की स्थिति उपद्रवियों को बल देती है और कश्मीर का उपद्रव देश के किसी और भाग के उपद्रव से अलग है। इसे हलके में लेना बड़ी भूल होगी।
इस दौरे को और कारगर बनाने के लिए हमारे राजनेता जम्मू-कश्मीर के तमाम धड़ों के प्रतिनिधियों के घर जा-जाकर उनसे बात कर सकते हैं। क्या शर्तें मानी जाएं और क्या न मानी जाएं, यह मामला तो टेबल पर आमने-सामने बैठकर होने वाली आधिकारिक बातचीत से जुड़ा है। किसी के घर जाकर उसका दुख-सुख बांटने और उसके साथ एक प्याली चाय पी लेने के साथ तो आम तौर पर कोई शर्त नहीं जुड़ी होती। इस नजर से देखें तो महबूबा मुफ्ती की इस बात में काफी दम नजर आता है कि बातचीत बिना शर्त शुरू की जानी चाहिए। जो विदेशी ताकतें जम्मू-कश्मीर की जलती आग में अपने हाथ सेंकना चाहती हैं, वे कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन को अपना अजेंडा आगे बढ़ाने के असाधारण मौके की तरह ले रही हैं। सर्वदलीय टीम का जम्मू-कश्मीर दौरा इस साजिश के खिलाफ कारगर कदम साबित हो सकता है, बशर्ते देश की सभी राजनीतिक पार्टियां स्थिति की गंभीरता को समझें और इसके मुताबिक अपने नजरिये में थोड़े-बहुत बदलाव के लिए तैयार रहें।
इसके लिये सरकार को सबसे पहले कश्मीरियों के मानवाधिकार की कद्र करनी होगी। बेशक मौजूदा हालात में मानवाधिकार की बात कुछ लोगों को हजम ना हो लेकिन इसके सिवा कोई उपाय नहीं है। यदि सरकार ऐसा नहीं करती है ओर केवल बयान देती रहे तथा नौकरियों के बंदोबस्त की बात करती रहे तो मामला कभी नहीं सुलझेगा। सरकार को यह बताना होगा कि वह इस मामले में न केवल गंभीर है बल्कि इसे सुलझाने की इच्छा के प्रति भी गंभीर है। अगर सरकार ऐसा नहीं करती है तो कश्मीर बेकाबू हो जायेगा। इसलिये सरकार को चाहिये कि जो कुछ करना हो वह जल्दी करे और निर्णायक कदम उठाये।

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