महंगाई के मसले पर मंगलवार (सात सितंबर) को वामपंथी श्रमिक संगठनों के आह्वान पर देश भर में कारोबार बंद रहा। आम हड़ताल रही। महंगाई का निरंतर बढऩा गरीब और विकासशील देशों के लिए उस दु:स्वप्न की तरह होता है जिससे पीछा छुड़ाने के सारे प्रयास व्यर्थ साबित होते है। कभी मंदी की वजह से महंगाई तो फिर कभी तेजी की वजह से कीमतों में वृद्धि। चारों तरफ महंगाई पर बहस हो रही है। मगर इससे जुड़े दो सवालों का जवाब ढूंढना जरूरी है। पहला, महंगाई क्यों बढ़ रही है?
दूसरा, यह इतने लंबे समय तक कैसे बनी हुई है ?
ये सवाल शायद सामान्य लगें, लेकिन इनमें यूपीए सरकार और बाजार के भविष्य का अजेंडा छिपा है। इनमें पहले सवाल का सीधा सा जवाब दिया जा सकता है कि महंगाई इसलिए बढ़ रही है क्योंकि वस्तुओं की मांग और आपूर्ति के बीच अंतर बढ़ रहा है। उत्पादन कम होने से मांग पूरी नहीं हो पा रही है। ऐसे में कीमतें तो बढ़ेंगी। मांग-आपूर्ति से आगे बेशक, कीमतें बढऩे के पीछे मांग में तेजी का प्रमुख हाथ होता है। मगर मांग और आपूर्ति के बीच अंतर 10 पर्सेंट का हो और कीमतें 100 पर्सेंट बढ़ जाएं तो इसे क्या कहा जाएगा?
दूसरे सवाल का जवाब भी इस तरह दिया जा सकता है कि मार्केट में वस्तुओं की किल्लत को लेकर मनोवैज्ञानिक दबाव है, इसके चलते कीमतें बढ़ रही हैं या बढ़ाई जा रही हैं। सवाल यह उठता है कि फिर सरकार की भूमिका क्या है ? महंगाई नियंत्रित करने के लिए सही समय पर कारगर क्यों नहीं कदम उठाए जाते?
सांप निकलने के बाद लाठी क्यों पटकी जा रही है ? यूपीए सरकार में इस वक्त अर्थशास्त्रियों की जो फौज बैठी है, उसके सामने आर्थिक क्षेत्र में कई बड़ी चुनौतियां हैं। इनमें प्रमुख हैं, बढ़ती आबादी, गरीबी, बेरोजगारी, गांवों में इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी, ग्रामीणों का शहरों की तरफ पलायन और भ्रष्टाचार। इसके अलावा कुछ तकनीकी चुनौतियां भी हैं। जैसे आर्थिक विकास दर को बढ़ाना, कृषि से लेकर खुदरा तक सभी क्षेत्रों में निवेश बढ़ाना। मार्केट को इतना विस्तार देना कि प्राइवेट सेक्टर फले-फूले और नौकरियों की तादाद बढ़े।
अगर महंगाई पर तत्काल प्रभाव से अवरोध नहीं लगाया गया तो अर्थव्यवस्था को गंभीर नतीजे भुगतने होंगे। इससे एक खराब चक्र को बल मिलेगा। मजदूरी और लागत में वृद्धि एक बार फिर कीमतों में बढ़ोतरी कर देगी। इससे जरूरी वस्तुओं की कीमतों में और वृद्धि होगी। इस कुचक्र से अर्थव्यवस्था से जुड़ी कई चीजों को धक्का लग सकता है। यहां तक कि राजनीतिक अस्थिरता का कारण भी बन सकती है महंगाई, आत्मसंतोष की प्रवृत्ति एक घने जाल की तरह है। यह विकास के रास्तों को वापस मोड़कर उलटी यात्रा शुरू करा सकती है। बिना जरूरी उपाय किए उम्मीदें पालते रहना अप्रत्याशित नतीजों का कारण बन सकता है।
वर्तमान में खाद्य महंगाई दर 17 फीसदी के स्तर पर पहुंच चुकी है। भारतीय लोकतंत्र के लिए महंगाई की ऊंची दर असहनीय हो रही है। सरकार का इस मामले में खास तव्वजो न देना जता रहा है कि महंगाई के दर्द से कराह रहे राष्ट्र का दर्द पूरी शिद्दत से महसूस नहीं किया जा रहा है।
अर्थव्यवस्था में आया कोई भी नकारात्मक परिणाम लंबे समय तक पूरे देश को पीड़ा का अनुभव कराने के लिए काफी होगा।
Tuesday, September 7, 2010
बंद से क्या महंगाई घटेगी ?
Posted by pandeyhariram at 1:02 AM
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