9/11 की घटना के तुरत बाद..द इकॉनमिस्ट.. ने अपने मुखपृष्ठ पर लिखा था.. वह दिन, जबसे दुनिया बदल गयी।..इसका मतलब वह नहीं था कि इस दिन अमरीका और यूरोप के हवाई अड्डों में भगदड़ के बाद लाखों जूते वहां से हटाये गये और वर्ल्ड ट्रेड सेंटर से सैकड़ों लाशें हटायी गयीं। उस दिन के नौ बरस बाद आज फिर गुस्से की खाक में दबी चिंगारियों में से शोले भड़कने लगे हैं। पुस्तकों को जलाना बेहद कुत्सित कार्य है।
19 सदी में जर्मन कवि हेनेरिक हाइन ने लिखा था...जो लोग किताबें जलाते हैं,वे बाद में मनुष्यों को भी जलाने लगते हैं।... इसका सबसे बड़ा उदाहरण था सन् 1933 में नाजियों द्वारा अंतिम समाधान के रूप में यहूदियों के शास्त्रों को जलाया जाना।
फ्लोरिडा के एक छोटे से चर्च के पादरी टेरी जोन्स ने संभवत: इतिहास और अफगानिस्तान में अमरीकी सेना के प्रधान सेनापति जनरल डेविड पेट्रियस की चेतावनी को मान कर 9/11 की घटना की बरसी के दिन कुरान जलाने का अपना फैसला रद्द दिया। उत्तर पश्चिमी गेन्सविले में पवित्र ग्रंथ को चलाये जाने की तस्वीरें जेहादियों की भर्ती का जबरदस्त उत्प्रेरक बन गयीं।
क्या बात है कि आज वर्ल्ड ट्रेड सेंटर स्थल (ग्राउंड जीरो)के समीप मस्जिद और इस्लामी केंद्र बनाने के मसले पर अमरीकी समाज में तीखे मतभेद हैं और अपने बीच मुस्लिमों की बढ़ती तादाद पर यूरोपवासी गुस्से में हैं? यह बड़ा ही संवेदनशील समय है। केवल असहिष्णुता की एक चिंगारी इस गुस्से को बदले की आग में बदल सकती है।
एशिया के इस सुदूर हिस्से में भी बेठ कर महसूस किया जा सकता है कि यूरोप की फिजां में जहर घुली हुई है। जिसके सबूत हैं..जर्मनी डज अवे विद इटसेल्फ.. जैसी किताबों का बेस्ट सेलर होना,डच मानवाधिकारवादियों की बढ़ती राजनीतिक हैसियत, यूरोपीय यूनियन में तुर्की को सदस्यता मिलने की तरफदारी करने वालों की घटती ताकत,स्विट्जरलैंड में मीनारों पर और फ्रांस में बुर्के पर पाबंदियों से सामाजिक रोष का आकलन किया जा सकता है ।
9/11 के हमले ने अमरीका की छवि को नेस्तनाबूद कर दिया। दो युद्धों ने, जिनमें से एक तो अमरीका के इतिहास का सबसे बड़ा और भयानक है, उसकी पीड़ा को और गंभीर बना दिया।
ग्राउंड जीरो के समीप मस्जिद महान अमरीकी सिद्धांतों के अनुरूप है पर यह व्यवहारिक रूप में सद्विचार नहीं है। क्योंकि इससे गुस्से को हवा मिलती है। पर ग्राउंड जीरो दूर भारत में इस घटनाक्रम को वेटिकन अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर रहा है।
चर्च संगठनों की कोशिश है कि इन घटनाओं को भारत में ज्यादा प्रचार न मिले ताकि यहां मुस्लिम - ईसाई एकता पर फर्क न पड़े। अगर ऐसा होता है तो ईसाई संगठनों के बड़े दुश्मन हिन्दुओं को इसका फायदा मिल सकता है और हिन्दू - मुसलमानों के बीच दूरियां कम हो सकती है जिसका सीधा नुकसान मिशनरियों को होगा।
भारतीय मुस्लिम समाज में बेचैनी लगातार बढ़ रही है। मुस्लिम समाज के नेताओं ने सरकार से मांग की है कि वह फ्लोरिडा चर्च के फैसले के विरुद्ध अमरीकी राष्ट्रपति से बात करें।
विश्व भर में फैले मुस्लिम समाज का एक बड़ा हिस्सा भारत में है और इस्लाम के प्रति होने वाले किसी भी घटनाक्रम से यह वर्ग अपने को अलग नही रख सकता। भारत में 20 प्रतिशत से ज्यादा मुस्लिम आबादी है। अगर अमरीकी प्रशासन ईसाईयत के नाम पर नफरत का कारोबार चलाने वालों पर नकेल नहीं कसता तो उसका असर भारत में भी दिखाई देगा। अपने देश में अमन कायम रहे इसके लिए सरकार को प्रयास करने होगे।
पिछले दिनों कैथोलिक क्रिश्चियन सेक्यूलर फोरम ने एक अपील जारी कर मुस्लिम समाज को समझाने वाले तरीके से बताया है कि भारत में ईसाई और मुस्लिम दोनों अल्पसंख्यक हैं और यहां वह विभिन्न प्रकार की समस्याओं का सामना कर रहे हैं और यहां उनका साझा दुश्मन कट्टरपंथी हिन्दू संगठन है। इस कारण उन्हें यहां अपनी एकता हर हालत में बनाये रखनी चाहिए ताकि उनके दुश्मन उनकी फूट का लाभ न उठा पायें। यानी शांति के नाम पर भी नफरत का कारोबार जारी है। चर्च की यह सोच भविष्य के भारत और उसकी योजना की एक झांकी प्रस्तुत करती है।
Friday, September 10, 2010
नफरत का यह कारोबार बंद होना चाहिये
Posted by pandeyhariram at 2:01 AM
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