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Saturday, July 4, 2020

नेपाल की राजनीति में तूफान



नेपाल की राजनीति में तूफान


नेपाल की राजनीति में तूफान आया हुआ है। गुरुवार को प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने प्रधानमंत्री पद छोड़ने के पार्टी के दबाव को मानने से इंकार कर दिया और दोनों सदन की बैठक स्थगित कर दी। स्थगन के पहले उन्होंने दोनों सदन के अध्यक्षों से भी परामर्श नहीं किया। उनके इस कदम से माओवादी नेता अत्यंत गुस्से में है। पूर्व प्रधानमंत्री एवं माओवादी नेता पुष्प कमल दहल प्रचंड नए राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी से भेंट की और प्रधानमंत्री के इस और संवैधानिक हरकत पर विरोध किया तथा उनसे कहा कि वे इस पर कार्रवाई करें। प्रचंड और ओली दोनों सत्तारूढ़ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष हैं। पार्टी को टूटने से बचाने के लिए केंद्रीय समिति की बैठक शनिवार तक टाल दी गई है। ओली ने टिप्पणी की थी कि नेपाल के राजनीतिक भारत के साथ मिलकर उनकी सरकार को चाहता है। उनकी इस टिप्पणी पर सत्तारूढ़ दल में बवाल हो गया। पार्टी में ओली के कामकाज को लेकर भारी विवाद है खासकर भारत के साथ संबंध को लेकर। नेपाल के नए नक्शे पुष्कर संविधान संशोधन विधेयक को प्रस्तुत किए जाने कई दिन पहले ओली ने कहा था कि काठमांडू के कुछ नेता भारत के साथ मिलकर उन्हें पद से हटाना चाहते हैं। उनकी इस टिप्पणी से गुस्साए लोग साफ-साफ कहने लगे कि उन्होंने पार्टी को जटिल स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है। उन्हें पद छोड़ देना चाहिए। यह मांग जैसे-जैसे बढ़ती गई और उन पर दबाव बढ़ता गया उन्होंने वहां की संसद के दोनों सदनों की बैठक स्थगित कर दीं। अनुमान है कि कुछ विद्रोही नेताओं को मंत्री पद से हटाकर प्रधानमंत्री खुद अपनी पसंद के नेताओं को लाएंगे और यह काम जल्दी होने वाला है। ओली का कहना है कि प्रचंड ने उनकी पीठ में छुरा मारा है। ओली ने हर पैंतरा आजमाया है और दोनों देशों में सत्ता के गलियारे में यह चर्चा है कि सरकार यह सब चीन के समर्थन से कर रही है। इन बातों में तो सच्चाई हो या ना हो लेकिन चीन की छाप काठमांडू की हर गली में दिखाई पड़ती है। चाहे वह धर्म हो, अध्यात्म या फिर रहन सहन और खान पान सब जगह चीन की मौजूदगी के संकेत मिलते हैं। चीन की नेपाल में रुचि लगभग डेढ़ दशक से दिखाई पड़ती है लेकिन जब मधेसी आंदोलन हुआ तो चीन की दिलचस्पी और बढ़ गयी। उसके अफवाह तंत्र ने यह हवा फैलाई कि सब भारत का किया धरा है। इससे नेपाल में नाराजगी की लहर फैल गई। नेपाल और भारत में रोटी बेटी का रिश्ता होने के बावजूद नेपाल के पहाड़ी क्षेत्रों में और काठमांडू अभिजात्य वर्ग में भारत के प्रति शंका दिखाई पड़ने लगी। अचानक 2016 में नोटबंदी हुई उससे नेपाल और नाराज हो गया। भारत नेपाल से आए चलन से बाहर हुए नोटों को बदलने से लगातार टालता रहा। यह भारत के प्रति नेपाल की नाराजगी का मुख्य कारण बताया जाता है। अभी जो कुछ नेपाल में हो रहा है उससे साफ लगता है कहीं न कहीं चीन की भूमिका है। वह भारत से नेपाल के संबंध को कमजोर कर अपने हितों को साधना चाहता है। नेपाल के वर्तमान प्रधानमंत्री का चीन से नजदीकी रिश्ता है यह सब जानते हैं लेकिन अभी जो हालात पैदा हुए हैं उससे साफ जाहिर हो रहा है कि ओली अलग-थलग पड़ गए। 2016 में प्रचंड ने ओली को सत्ता से हटाया था उस समय चीन का सरकार समर्थित पत्र ग्लोबल टाइम्स ने लिखा था कि काठमांडू वैसे बीजिंग के साथ का मौका गंवा सकता है। इससे साफ जाहिर होता है कि चीन नेपाल की राजनीति को कैसे देखता है।


इसके पहले भी भारत और नेपाल में दो एक बार जिच पैदा हुई थी। इसे बातचीत के जरिए और कूटनीतिक समझ बूझ के साथ सुलझा दिया गया। 1960 की घटना है जब राजा महेंद्र ने भारत को यह कह कर डाल दिया कि चीन द्वारा बनाई गई सड़क नेपाल और तिब्बत को जोड़ने के लिए है और इसका महत्व केवल विकास के लिए बाकी कुछ नहीं और इस सड़क का रणनीतिक उद्देश्य तो बिल्कुल नहीं है। 1980 में जब महाराजा विरेंद्र नेपाल में सत्तारूढ़ तो उन्होंने चीन द्वारा सड़क बनाने के एक ठेके को रद्द कर दिया था। 210 किलोमीटर लंबी सड़क कोहलपुर से बनबसा के बीच थी और भारतीय सीमा के करीब थी। बाद में महाराजा विरेंद्र में यह ठेका भारत को दे दिया। इससे पता चलता है नेपाल के पूर्व शासकों ने भारत से कैसे संबंध को साध रखा था और जब चीन और भारत के हित टकराते थे तो वह भारत के पक्ष में फैसला देते थे। लेकिन हालात तब बदले जब 2005 में राजशाही को समाप्त करने के लिए नेपाल के आठ राजनीतिक दलों के बीच 12 सूत्री समझौता हुआ। इस समझौते पर हस्ताक्षर करने वालों में माओवादी भी शामिल थे। भारत नेपाल की अंदरूनी सियासत का एकमात्र कारक तत्व था। लेकिन जब भारत ने नेपाल को हिंदू राष्ट्र से एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र बनाने में खुलकर सहायता की तो नेपाल में उसके चाहने वाले धीरे-धीरे कम होने लगे । नेपाल की आंतरिक राजनीति में भारत ,अमेरिका और यूरोपीय यूनियन की बढ़ती पकड़ से चिंतित हो गया और उसने नेपाल में निवेश बढ़ाना शुरू कर दिया तथा साथ ही उस पर दबाव बनाने लगा।





अब यहां दो महत्वपूर्ण प्रश्न उभरते हैं। जब नेपाल से राज शाही खत्म हुई थी तो भारत मानता था उसकी पकड़ बढ़ेगी। लेकिन हुआ इसका विपरीत चीन के पैर वहां जमने लगे और दूसरा प्रश्न कि क्या नेपाल में भारत के लिए वातावरण तैयार करने के उद्देश्य से कोई संगठन है या नहीं। दोनों प्रश्नों के उत्तर अभी तक नहीं मिल रहे हैं। उधर ओली की सांस भी फूल गई है और कोई पैंतरा काम नहीं कर रहा है यहां तक कि हर वक्त जब ओली ऐसी स्थिति से दो-चार होते थे तो राष्ट्रवाद का पत्ता फेंका करते थे इस बार वह भी नहीं काम आ रहा है और ना भारत ही उन्हें कोई मदद कर रहा है। ऐसा लगता है पार्टी विभाजन के कगार पर है और उन्हें सत्ता से हटाया जा सकता है। अगर ऐसा होता है तो भारत के पड़ोस में एक और चीन समर्थक देश खड़ा हो जाएगा और भारत की घेराबंदी बढ़ जाएगी। इसलिए भारत को अभी से सचेत हो जाना चाहिए।

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