गुरु चरणों से ऑनलाइन शिक्षा तक
जिन लोगों ने अब से कोई 30 40 वर्ष पहले स्कूली शिक्षा पाई होगी उन्हें ज्ञात होगा कि शिक्षक क्या हुआ करता था और उससे पहले भी प्राचीन काल में जब राजा महाराजा हुआ करते थे तो शिक्षकों का मूल्य क्या था? पढ़ाई उपनिषद के रूप में आज भी उपलब्ध है। राज्य पुत्र अपनी शानो शौकत को त्याग कर गुरु के आश्रम में जाते थे और शिक्षा ग्रहण करते थे। शिक्षक कभी होम ट्यूटर नहीं बनकर आता था। धीरे धीरे शिक्षा और शिक्षक दोनों का अवमूल्यन होता गया गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु केआसन से शिक्षक श्रमजीवी हो गया और उसी परिमाण में शिक्षा का भी अवमूल्यन हो गया। अब से पहले शायद ही किसी शिक्षक का फोन नंबर छात्रों के पास हुआ करता था पर अब शिक्षक का फोन नंबर छात्रों के पास होने के साथ-साथ छात्र के परिवार वालों के पास भी हुआ करता है। छात्रों के फोन अक्सर आते रहते हैं और गुड नाइट गुड इवनिंग भी हुआ करता है। कुछ मजबूरी तो शिक्षकों की है अपनी जीविका बचाने की और इस गला काट प्रतियोगिता में कुछ पढ़ लेने की मजबूरी छात्रों के पास भी है। अब अगर पढ़ने पढ़ाने के तो फिर उनका उपयोग क्यों नहीं किया जाए। आज कोरोना काल में स्कूल बंद और विभिन्न एप्स के जरिए ऑनलाइन क्लासेज चल रही है यह क्लासेज केवल क्लासरूम तक सीमित ना रहकर शिक्षकों की निजी जिंदगी तक पहुंच गई है। बच्चों तथा उनके मां-बाप तक सूचनाएं पहुंचाने के लिए शिक्षकों ने अलग-अलग ग्रुप्स बना लिए हैं। जिस मोबाइल के माध्यम से बच्चे शिक्षा प्राप्त करते हैं या फिर अपने मित्रों से व्हाट्सएप के जरिए बातें करके वह मोबाइल फोन आधे से ज्यादा बच्चों के पास नहीं है। उस तरह का फोन या तो बच्चों के माता-पिता का होता है या बड़े भाई बहनों का। इसी कारण से शिक्षकों के नंबर बच्चों के परिवार में पहुंच जाते हैं। बेशक यह नंबर बड़ी बात नहीं है लेकिन सदा यह डर बना रहता है कि जब सब कुछनॉर्मल हो जाएगा तो इन नंबरों का कहीं दुरुपयोग ना हो। महिला शिक्षिकाएं तो बहुत सोच समझ कर अपना नंबर देती हैं लेकिन जब से कोरोना का काल आया तब से आजीविका के चलते सोचने का मौका ही नहीं मिला। लॉकडाउन एक कारण कोई नया नंबर भी खरीदा नहीं जा सकता इसलिए पहले से चले आ रहे हैं नंबर को ही शेयर करना होता है। इतना ही नहीं नई शिक्षा पद्धति जिसे ऑनलाइन शिक्षा कह सकते हैं उसने शिक्षकों के आगे चुनौतियों का पिटारा खोल दिया है। शिक्षकों पर परफॉर्मेंस का बेहिसाब दबाव रहता है। अब काम केवल पढ़ाना नहीं है बल्कि हर बच्चे को रात में बुलाना और उनसे असाइनमेंट और बाकी एक्टिविटी करवाना और जिसके चलते काम तथा गांव की आवधि बड़ी हो गई। शिक्षक गुरु की गरिमा से उतर श्रमजीवी हो गया। हालात यह हैं कि कई शिक्षकों को दिन भर में 4-4 क्लास लेने पड़ते हैं। हर क्लास में 40- 50 बच्चे हैं लेकिन आते हैं सिर्फ 20-25। अब यह शिक्षकों की जिम्मेदारी है बच्चे क्लास में क्यों नहीं आये? उनसे फोन करके पूछा जाए नहीं आने का कारण। इस काम में दिन में कई घंटे बर्बाद हो जाते हैं। यहां जो सबसे बड़ी समस्या है वह कि स्कूल प्रशासन का नजरिया और छात्रों की आर्थिक स्थिति के बीच समझ बूझ की कमी। दूसरी बात है छात्र-छात्राओं की सामाजिक स्थिति में अंतर। आंकड़ों के मुताबिक दुनिया भर में लड़कियों के पास इंटरनेट की जितनी सुविधाएं हैं उससे कहीं ज्यादा लड़कों के पास हैं। भारत में महिलाओं की तुलना में 20 करोड़ ज्यादा इंटरनेट की सुविधाएं पुरुषों के पास हैं। एक आंकड़े के मुताबिक भारत में 5 साल से अधिक उम्र के कुल 45.1 करोड़ लोगों के पास इंटरनेट की सुविधा है इनमें 25.8 करोड़ पुरुष हैं जबकि महिलाओं की संख्या है। देश में इंटरनेट का उपयोग करने वाले पुरुषों का अनुपात 67% है जबकि महिलाओं का अनुपात 33 प्रतिशत है। ग्रामीण क्षेत्रों में यह अनुपात का अंतर और बढ़ जाता है। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट का उपयोग करने वाले कुल लोगों में 72% पुरुष और सिर्फ 28% महिलाएं हैं। यह अंतर इंटरनेट तक ही सीमित नहीं है, साक्षरता के अनुपात में भी यह दिखाई पड़ता है। विश्व बैंक के एक अध्ययन में पाया गया है लड़कियां अगर माध्यमिक तक पड़ जाते हैं उनकी कमाई करने की क्षमता में 18% की वृद्धि होती है। ऐसी सामाजिक- आर्थिक व्यवस्था के बीच अगर छात्र आभासी कक्षा तक नहीं आए तो यह जिम्मेदारी शिक्षक की होती है कि वह पूछे कि छात्र क्यों नहीं आया। छात्र या उसके अभिभावक उत्तर देते हैं कि कल से आएगा लेकिन कैसे? रातों-रात इंटरनेट की व्यवस्था कहां से होगी, उसका रिचार्ज कहां से भरा जाएगा इत्यादि तो कोई नहीं बताता। होमवर्क को लेकर भी यही प्रॉब्लम है। लेकिन शिक्षक के परफॉर्मेंस पर ध्यान स्कूल प्रशासन ही नहीं मां बाप भी देते हैं। यही नहीं क्लास रूम में बच्चों को शिक्षक के प्रति जो आश्वासन होता है वह इंटरनेट पर उपलब्ध नहीं होता नतीजा यह होता है कि शिक्षक अपने छात्रों से हंसी मजाक नहीं कर सकते क्योंकि बच्चे के घर में उस पर ध्यान दिया जा रहा है। यह एक मानसिक दबाव है।
ऑनलाइन क्लास से जहां बच्चों के पढ़ने का तरीका बदल गया है वही शिक्षकों के पढ़ाने का तरीका बदल गया है। वर्चुअल सेटअप से तालमेल बनाना मानसिक तौर पर बड़ा कठिन है। सबसे पहली बात शिक्षक समझी नहीं पता कि कौन क्या कह रहा है। बस शिक्षक को मान लेना पड़ता है कि बच्चे पढ़ रहे हैं। यही नहीं मोबाइल नेटवर्क की भी एक समस्या है। इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया बताते हैं शहरी क्षेत्रों के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट की पहुंच आधी से भी कम है। 2019 के आंकड़ों के मुताबिक 12 वर्ष से ज्यादा उम्र के 38 करोड़ पचास लाख इंटरनेट यूजर 51% शहरी क्षेत्र में है और बाकी ग्रामीण इलाकों में। इतना ही नहीं 5 से 11 वर्ष के 6 करोड़ 60 लाख बच्चे इंटरनेट यूजर हैं।
ऐसे में जब इंटरेक्शन का प्रॉब्लम होता है आप तो ऐसे में जितना संघर्ष शिक्षकों का होता है उतना ही बच्चों का भी। कई बार देखा गया है कि शिक्षक बच्चों के अभिभावकों को बताते हैं कि एक विशेष ऐप का उपयोग कैसे होता है। अचानक इस नए सिस्टम में डालने और उनकी मूल्यांकन करने के बजाए टीचर को भी सीखने का मौका दिया जाना चाहिए लेकिन उनकी समस्या को कौन समझता है। शिक्षा का अंदाज़ बदल गया शिक्षकों का तरीका बदल गया अब केवल शिक्षा ही नहीं शिक्षण भी क्रांतिकारी परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है।
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