तस्माद्युध्यस्व भारत
आज जन्माष्टमी है। भगवान श्री कृष्ण का जन्म इसी दिन हुआ था। विश्व इतिहास में शायद कोई ऐसी घटना दर्ज नहीं है जिसमें किसी देश में 1 सप्ताह में भारत के जो ऐसे दिव्य पुरुषों को स्मरण किया गया हो जैसा हमारे देश में हुआ अब से हफ्ता भी नहीं पूरा हुआ होगा राम मंदिर के भूमि पूजन को समाप्त हुए। अयोध्या में राम का जो भजन था उसकी गूंज अभी तक हवाओं में कायम है और अब जय श्री कृष्ण के नाम से मृदंग पर थाप पड़ने लगी। अगर राम हमारे देश में आदर्श पुरुष हैं तो कृष्ण योगेश्वर। राम का जन्म जब हुआ एक प्रश्न घूमता रहा कि आखिर राम का जन्म क्यों हुआ? द्वापर से घूमता यह प्रश्न त्रेता में पहुंचा और महाभारत के युद्ध में दोनों सेनाओं के बीच खड़े होकर कृष्ण ने इसका उत्तर दिया- विनाशाय च दुष्कृताम्….।कैसी समानता है कि राम का जब राज्य अभिषेक होने वाला था तो उन्हें बनवास मिला और कृष्ण ने जब जन्म लिया तो उन्हें अपना घर छोड़ दूसरे के यहां जाना पड़ा ।लेकिन दोनों भारत की कृषि संस्कृति के बीच पले बढ़े। कह सकते हैं कि जन के बीच कृष्ण पले और बढ़े। यही कारण है कि कान्हा से द्वारकाधीश होने के बावजूद उन्होंने किसी को विस्मृत नहीं किया। कृष्ण का यह जीवन आज के नेताओं के लिए स्वयं में एक सबक है यह एक आदर्श नहीं है यानी कोई सिद्धांत नहीं है, यह एक यथार्थ है। राजा और राजधर्म की अभिव्यंजना जिस यथार्थ के संदर्भ में हुई है उसमें मानव मात्र की सुरक्षा और कर्म परायणता के लिए अर्थ आवश्यक है। आधुनिक युग में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसके उदाहरण हैं। क्योंकि, लोक जीवन में आर्थिक आग्रह के साथ जीवन प्रक्रिया में बदलाव आता है आता है फलस्वरूप जीवन दर्शन बदल जाता है। उपनिषदों में भोग हीन दर्शन के बावजूद उत्पादन और उपभोग की परंपरा चलती रही। मानव जीवन आदि से अब तक विकास मान है इसलिए वह ऐतिहासिक है। इतिहास में व्यक्ति और समाज की भूमिका समान रूप से होती है। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं होता। मानव विकास के इतिहास में व्यक्ति और समाज दोनों का समान रूप से प्राधान्य होता है और उनमें से किसी एक को भी प्राथमिक नहीं कहा जा सकता।
कृष्ण के साथ या कहें राम के साथ सबसे बड़ा अनूठापन यह है कि ये हुए थे तो अतीत में लेकिन वह अतीत व्यतीत नहीं था वह आज भी और भविष्य में भी भारत के और उसकी सभ्यता संस्कृति में स्पंदित होते रहेंगे। भविष्य में ही शायद ऐसा हो पाएगा कि हम कृष्ण को समझ पाएं। यहीं आकर राम और कृष्ण के व्यक्तित्व विभाजित हो जाते हैं। कृष्णा एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जो धर्म की ऊंचाइयों और गहराइयों पर भी होकर गंभीर नहीं हैं, हंसते हैं गाते हैं। अतीत का सारा धर्म चाहे वह राम हों या कोई और सब दुख वादी रहा है। अतीत का समस्त धर्म उदास और आंसुओं से भरा था। यहां तक कि आधुनिक युग के देवता माने जाने वाले जीसस के बारे में कहा जाता है ऐसे ही नहीं। जीसस का उदास चेहरा और सूली पर लटका उनका शरीर दुखों को बहुत आकर्षित करता है। सभी धर्मों में जीवन को दो हिस्सों में बांट दिया है एक वह जिसे स्वीकार किया जा सके और दूसरा जिसे इनकार किया जा सके। कृष्ण अकेले समग्र जीवन को स्वीकार कर लेते हैं। राम भी परमात्मा के अंश लेकिन कृष्ण संपूर्ण परमात्मा हैं। कृष्ण ने सब कुछ आत्मसात कर लिया। यदि हम कृष्ण को भुला देते हैं तो अल्बर्ट श्वेतजर की बात सही हो जाती है कि भारतीय धर्म लाइफ नेगेटिव है। लेकिन कृष्ण के साथ ऐसा नहीं है। वह नेगेटिविटी से नकारात्मकता से युद्ध की घोषणा करते हैं और कुरुक्षेत्र में स्पष्ट शब्दों में अर्जुन को कहते हैं - तस्माद्युध्यस्व भारत।अल्बर्ट श्वेतजर शायद कृष्ण को समझा ही नहीं। कृष्ण के बाद शायद कोई ऐसा हुआ नहीं जो हर बात में हंसता हो। अतीत में कोई हंसता हुआ जन्म लेता है और उसके बाद धर्म नकारात्मक हो जाता है यानी हो सकता है भविष्य में धर्म हंसना सिखाये। फ्रायड के पहले की दुनिया वह फ्रायड के पश्चात नहीं हो सकती। एक बहुत बड़ी क्रांति हो गई और मनुष्य की चेतना में दरार पड़ गई। भारत के देवता राम और कृष्ण पुरुष होकर भी स्त्रियों से पलायन नहीं करते। परमात्मा का अनुभव करते हुए भी बुद्ध का सामर्थ्य रखते हैं। अहिंसक चित्त है उनका फिर भी युद्ध के दावानल में उतर जाने का सामर्थ्य रखते हैं। आधुनिक युग में गांधी गीता को माता कहते थे लेकिन गीता को अपने भीतर आत्मसात नहीं कर पाए क्योंकि गांधी की अहिंसा युद्ध की संभावनाओं को इंकार कर देती थी। यहां गौर करने की बात है श्री राम के जीवन को हम चरित्र कहते थे लेकिन कृष्ण का जीवन लीला मय था। कृष्ण मानव चेतना की संपूर्णता के प्रतीक हैं उनके संपूर्ण व्यक्तित्व का तरल प्रतिबिंब।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः
त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नेत्ति मामोति सो अर्जुन
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