फिर पक रही है धर्म की खिचड़ी
पिछले 1 वर्ष से हिंदू धर्म को लेकर एक नई बहस आरंभ हो गई है। हर दूसरा तीसरा आदमी धर्म, धार्मिकता और धर्मनिरपेक्षता पर बहस में उलझा हुआ है अल बरूनी की बात करता है तो कोई धर्म के दर्शन की। इसमें सबसे ज्यादा जो चीज नजर आ रही है वह है राजनीतिक भक्तों और विभक्तों की मानसिक रस्साकशी। अल बरूनी का जहां तक प्रश्न है तो उसने अपनी भारत यात्रा के बाद एक पुस्तक- तारीख उल हिंद- का प्रणयन किया। जिसमें उसने भारतीय सांस्कृतिक में बहुत उम्मीद दिखाई है। उसके बाद राष्ट्र का जो कांसेप्ट आया वह ऐसा नहीं था आज है। इस बीच, राम मंदिर के लिए भूमि पूजन भी हुआ। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा किए गए इस भूमि पूजन के समय और उसके पश्चात के समाज विज्ञान को तारीख उल हिंद के चश्मे से देखें तो आज भी भारतीय सांस्कृतिक एकता दिखाई पड़ेगी और यह इतिहास को नरेंद्र मोदी की देन कहा जाएगा। लेकिन, बहुत तेजी से वक्त बदला और समाज-संस्कृति को राजनीति के स्तर पर विभाजित करने का प्रयास आरंभ हो गया है। देश के सबसे बड़े प्रांत उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण राजनीति का श्रीगणेश हुआ है। परशुराम की विशाल प्रतिमा बनाने की बात चल रही है और ब्राह्मणों को लेकर तरह-तरह के वायदे किए जा रहे हैं। प्रश्न यह नहीं है कि ब्राह्मण समुदाय का राजनीति में कितना अवदान है बल्कि यह प्रमुख प्रश्न है कि उत्तर प्रदेश में उनकी आबादी कितनी है और समाज पर वर्चस्व कितना है। अब से कुछ दिन पहले जाति को लेकर जनगणना हुई थी और करोड़ों रुपए खर्च हो गए थे बाद में उसे दबा दिया गया। उस जनगणना के आंकड़े प्रकाशित नहीं किए। क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उन आंकड़ों को हथियार की तरह प्रयोग में लाने की राजनीतिक दलों की कोशिश का भय शुरू से रहा है। यह विचार इसलिए नहीं है के विभिन्न जातियों के वोट बैंक पर विभिन्न दलों का कब्जा हो जाएगा बल्कि डर यह है कि सांस्कृतिक रूप में एकजुट भारत को जातिगत रूप में बांटने की कोशिश हो जाएगी और यह कोशिश हथियार में बदल जाएगी। लेकिन बात यहीं रुकी नहीं और उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों के वोट को लेकर राजनीति शुरू हो गई है। अब इसकी शुरुआत मूर्ति लगाने से है। पिछले हफ्ते उत्तर प्रदेश के पूर्व सीएम और समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने 3 महत्वपूर्ण ब्राह्मण नेताओं से मुलाकात की। इस मुलाकात में जो लोग शामिल थे वह हैं अभिषेक मिश्र, मनोज पांडे और माता प्रसाद पांडे। मुलाकात के बाद अभिषेक मिश्र ने घोषणा की कि लखनऊ में भगवान परशुराम की 108 फुट ऊंची प्रतिमा लगेगी। उधर मायावती ने भी घोषणा की उससे भी ऊंची प्रतिमा और एक अस्पताल का नाम भी परशुराम के नाम पर रखेंगी। इसके बाद सपा और बसपा नेता एक दूसरे के आप खुलकर बोलने लगे। दोनों तरफ से तरह-तरह के जुमले उछाले जाने लगे। बात तो यहां तक चली गई कि भगवान परशुराम के वंशज भगवान कृष्ण के वंशजों के साथ रहने का फैसला किया है। इतना ही नहीं देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस ने ली खुलकर सपा बसपा दोनों को घेरा है। ब्राह्मण समुदाय उत्तर प्रदेश में सरकार से नाराज है। कहा जा रहा है कि पिछले 3 साल में जितने भी बड़े हत्याकांड हुए हैं उसमें ब्राह्मण शामिल हैं।ब्राह्मण समुदाय के कुछ नेताओं का कहना है कि पिछले 2 साल में लगभग 500 से अधिक ब्राह्मणों की हत्या हुई है।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में हमेशा से ब्राह्मणों का वर्चस्व रहा है और वहां औसतन 12% ब्राह्मण हैं तथा कई विधानसभा क्षेत्रों में तो 20% से ज्यादा है ऐसे में हर पार्टी की नजर ब्राह्मण वोट बैंक पर टिकी है। सपा हे वोट बैंक का समीकरण है यादव- कुर्मी- मुस्लिम और ब्राह्मण। जबकि कांग्रेस ब्राह्मण- दलित- मुस्लिम और ओबीसी का हुआ तब का जो भाजपा सपा के साथ नहीं है उसे अपनी ओर खींचने में जुटी है।
उधर, भाजपा के सूत्र बताते हैं कि विपक्षी जिस तरह ब्राह्मणों को लेकर कूद रही है उसे देखते हुए चिंता बढ़ रही है और यही कारण है अभी तक वहां संगठनात्मक बदलाव नहीं लाया गया।
एक बार फिर यहां अल बरूनी की चर्चा जरूरी है। उसने लिखा है कि “भारतीय सार्वजनिक बहस में दो बातें एक साथ दिखती हैं पहली उसमें विजय भाव और दूसरा अवसाद।”यहां अगर बारीकी से देखेंगे तो भूमि पूजन को लेकर एक विजय भाव है तो धर्मनिरपेक्षता की पराजय अवसाद भी है। कुछ लोग कहते हैं जिसमें समाजवादी और वामपंथी बुद्धिजीवी हैं शामिल है भारत में धर्मनिरपेक्षता समाप्त हो रही है और इसकी बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। इन दिनों एक नया शब्द सामने आया है वह है संविधानिक धर्मनिरपेक्षता। यहां इसके दो पक्ष देखते हैं पहला सभी धर्म के प्रति सम्मान और दूसरा अपने धर्म का अनुसरण। यहां धर्म विरोध की कोई बात नहीं है और हो भी नहीं सकती है खास करके भारत जैसे देश में जहां सारे समुदाय यहीं की मिट्टी से पनपे हैं वहां कट्टर धर्म विरोधी बात हो ही नहीं सकती। एक तरफ जहां राहत इंदौरी यह कह कर इस दुनिया से चले गए कि “ किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़े ही है” तो दूसरी तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राम मंदिर भूमि पूजन समारोह में मुस्लिम समुदाय के एक नेता को बुलाकर बता दिया कि वह किसी धर्म के विरुद्ध नहीं हैं। सबसे बड़ा दुखद अध्याय है कि इन दिनों धर्म का विरोध या समर्थन राजनीति के चश्मे को पहन कर किया जाता है और उसे लेकर तरह-तरह की बातें होती हैं। अभी जो धर्म की ताजा खिचड़ी पक रही है वह बीरबल की खिचड़ी प्रमाणित हो सकती है। भारत एक ऐसा देश है जहां धर्मनिरपेक्षता की उम्मीद को नहीं छोड़ा जा सकता। बेशक कुछ गैर जिम्मेदार नेता राजनीति के पर्दे के पीछे से वर्तमान राजनीति की आलोचना कर सकते हैं, लेकिन स्थाई नहीं होगा। भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी खूबी है कि नेतृत्व अपनी बात को समझाने में कितना सफल होता है और लोगों को इस बात पर पूरा भरोसा है कि नरेंद्र मोदी एक ऐसे नेता हैं जो सच को या सही को सही कहने और गलत को सही करने का दम रखते हैं। धार्मिक राजनीति पर टिका भारत का भविष्य ऐसे ही नेतृत्व की अपेक्षा करता है।
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