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Friday, August 14, 2020

अब बाढ़ की आपदा

 अब बाढ़ की आपदा

 कोरोनावायरस , बढ़ती बेरोजगारी और बिगड़ती अर्थव्यवस्था के बीच समाज के विभिन्न क्षेत्रों में तनाव  जनित अपराध  के साथ अब बारिश के दौरान आने वाली बाढ़  की आपदा।  इसमें  जो  सबसे खतरनाक है वह है दूसरे देशों से भारत में प्रवेश करने वाली नदियों की   उफनती धारा और उससे बढ़ता जल प्लावन का खतरा। उत्तर प्रदेश तथा बिहार को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाली दो नदियां गंडक और घाघरा नेपाल से आती है।  नेपाल से परिवर्तित हुए संबंध के कारण और नेपाल में उन नदियों   के जल ग्रहण क्षेत्र में  ज्यादा  बारिश होने के फलस्वरूप इन नदियों में अधिक पानी छोड़ा जा रहा है। 

जल का एक रणनीतिक स्वरूप भी है। इसका ताजा उदाहरण गलवान घाटी से आयीं  कुछ सेटेलाइट तस्वीरें हैं।  यहां ही एक बांध बनाने की तैयारी कर रहा है।  करीब 29 किलोमीटर लंबी ब्रह्मपुत्र नदी दक्षिण तिब्बत से निकलती है भारत में प्रवेश  करती हैं।हमारे देश में इसकी विभिन्न धाराओं को विभिन्न नामों से पुकारा जाता है  इनमें ब्रह्मपुत्र एक है और इसके बाद वह बांग्लादेश में प्रवेश कर जाता है। चीन ने इस नदी की दो धाराओं   यारलुंग  और जागपा को बांध लिया है और और बांधों का निर्माण कर रहा है।  अगर उसने ब्रह्मपुत्र की ऊपरी धारा को बांध लिया तो एक तरह से भारत  के कुछ हिस्से में जब चाहे जल  प्रलय ला सकता है।  एक तरह से यह हथियार के रूप में प्रयोग में लाया जा सकता है।

 इधर, भारत के विभिन्न शहर जो नदियों के किनारे बसे हैं उनके विकास के नाम पर जो कचरा नदियों में छोड़ा गया वह उनमें जमा होकर  उनकी सतह को ऊंचा कर दिया। इसके कारण थोड़ी सी बारिश शहरों और गांव के लिए खतरनाक बन जाती है। हर साल तस्वीर कुछ ऐसी ही होती है बस आंकड़े बदल जाते हैं। यहां भी  आंकड़ों को राजनीतिक प्रिज्म पर देखने की जरूरत है। बदले हुए आंकड़े का मतलब राजनीति  के शब्दकोश में बदला हुआ मुआवजा होता है।  आंकड़ों को उसी अंदाज में देखा जाता है किस साल कितना मुआवजा मिला या फिर या फिर अर्थव्यवस्था को कितना नुकसान हुआ, कितने लोग मरे। इस मरे का मतलब  कितने इंसान मरे। राजनीतिक अर्थशास्त्र में यह नहीं देखा जाता है कि इन मरे लोगों  के कारण कितनी गृहस्थियां तबाह हो गईं।  इनमें उनकी गणना नहीं होती कि  कितने बच्चों  के स्कूल  छूट गए। यहां तो गिना जाता है कि  माटी के  चूल्हे और  जलावन की जगह कितने लोगों को उज्जवला योजना में  शामिल किया गया। देश  चूल्हे चिमटी से आगे बढ़कर उज्जवला के दौर में चला गया।  बाढ़ कैसे रुकेगी इस पर कभी विचार नहीं  हुआ। बांध,  डैम और नदी जोड़ो योजनाओं पर बहुत कुछ काम किया गया लेकिन  बाढ़ नहीं रुकी।  बाढ़ तो आ ही गई है। बाढ़ से होने वाले नुकसान का मुआवजा भी पिछले साल से दुगना मिल रहा है।  बिहार में चुनाव है।  असम और बिहार में बाढ़ नियंत्रण के  लिए केंद्र सरकार के अलावा विदेशों से भी सहायता मिल रही है। असम के मुख्यमंत्री के एक ट्वीट के मुताबिक केंद्र सरकार पहली किस्त में बाढ़ नियंत्रण एवं राहत  के लिए 346 करोड़ रुपए   दिए हैं। असम के 33 जिलों में 26 जिलों में 26.32 लाख लोग बाढ़ से प्रभावित हुए हैं हैं। ऐसा नहीं कि केवल मुआवजे के लिए ही नेता  खुश हैं। बिहार में बारिश के ठीक पहले गंगा का कटाव रोकने के लिए तटों पर गेबिएन किया जाता है।  गेबिएन प्लास्टिक की रस्सी की तरह होता है  जिसमें एक  प्लास्टिक बैग बांधकर उसमें 126 किलोग्राम सफेद बालू  भरकर  लटका दिया जाता है। सफेद बालू में मिट्टी से चिपकने का गुण होता है यह बालू गंगा तट पर नहीं मिलता। अब जैसे बारिश का  मौसम शुरू होता है वैसे ही इसके लिए टेंडर निकाले जाते हैं और फिर काम  मिलने  पर यह जांच पाना लगभग असंभव है कि बोरों में कितनी बालू भरी गई क्योंकि पानी के साथ बालू भी बहती रहती है। अब सरकार को यह मालूम नहीं है कि फरवरी-मार्च में काम क्यों नहीं  पूरा कर लिया जाता। ठीक उसी तरह जिस तरह जब सरकारी नेता संकल्प पर्व के दौरान पौधे रोपते हैं तो उन पौधों का क्या हुआ।  नदी तट पर रोपे गए पौधे  अगर बाढ़ में बह गए इसकी गिनती कौन करेगा।  करोड़ों की संख्या में देश भर में पौधे लगाए जाते हैं लेकिन दिलचस्प बात यह है कि जंगल धीरे धीरे कम होते जा रहे हैं। यही हाल दिल्ली के किनारे जमुना का है या फिर कहें कि सारी नदियों का है। गाद भराव के  कारण नदियां  उथली होती जा रही हैं और पहली ही बारिश पानी नदियों से निकलकर सड़क और खेतों में फैलने लगता है। जनता डर कर यह तो उस इलाक़े को छोड़कर कर चली जाती है या फिर  प्राण रक्षा के लिए भगवान से प्रार्थना करती  रहती है। हमारे नेता हेलीकॉप्टर बाढ़ का जायजा लेते हैं।  उन्हें मालूम है कि बाढ़ में नदी क्या-क्या लाई है। पानी उतरने के बाद नदी की  सतह को साफ करने का काम शुरू होगा। यही नहीं,  शहरों में पानी निकलने वाले रास्तों पर  अवैध कॉलोनियां बन गईं।  यही हाल देश के अन्य भागों का भी है। वेटलैंड में अवैध निर्माण हो गये पानी निकासी की व्यवस्था रही नहीं। हजारों एकड़ खेत बाढ़ से प्रभावित हैं और अगर सामाजिक अर्थशास्त्र के नजरिए से देखें तो हर वर्ष  आने वाली यह बाढ़ एक तरह से कैश क्रॉप बन गई है।  एक तरह से इस  क्राॅप  की बीज भी सरकार ही लगाती है।  सरकार को यह मालूम होता है क्या होने वाला है लेकिन केंद्र से सहायता के नाम पर जो धन मिलता है उसे भी तो नहीं छोड़ा जा सकता है।  जरा उदाहरण सरकार  इसे  इस तरह बढ़ावा देती है। केंद्रीय जल आयोग ने  जून में एक डाटा जारी किया था।  जिसमें बताया गया था कि देश के 123 बांधों या जलग्रहण क्षेत्रों में लगभग 10 सालों  में  165 प्रतिशत पानी जमा हो चुका है।  इसका मतलब है इन बांधों में पर्याप्त से अधिक जल का भंडार हो चुका है।  इन 123 बांधों का प्रबंधन और देखभाल केंद्रीय जल आयोग करता है और इनमें देश के कुल भंडारण क्षमता  का 66% पानी जमा  हुआ करता है।  जब बांध से पानी ऊपर  बहने लगता है तो उसके दरवाजे खोल दिए जाते हैं और परिणाम यह होता है कि पहले से उफनती नदी में बहाव के जो जाता है तथा शहरों में गांवों  में है घुस जाता है। एक तथ्य काबिले गौर है कि जब  अम्फान  जैसे तूफान के दौरान  लोगों की जान माल की सुरक्षा की जा सकती है बाढ़ के दौरान क्यों नहीं। निर्माण  और विकास के नाम पर जमीन को कंक्रीट से पाट दिया गया पानी जमीन के भीतर जा  नहीं पाता तो उसके  खेतों और रिहायशी इलाकों में बढ़ने के अलावा कोई उपाय नहीं है। 

काजू  भुने पलेटों  में  व्हिस्की गिलास में

 आया है रामराज विधायक निवास में


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