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Friday, October 15, 2010

कल विजयदशमी है


कल (सत्रह अक्टूबर को ) विजयदशमी है। इस अवसर पर हम विजय की बात करते हैं। उसका अर्थ क्या है ?
क्या यह आधिपत्य है, अथवा अपने लिए किसी वैभव की प्राप्ति है ? यदि हम ध्यान से प्राचीन दिग्विजयों का वर्णन पढ़ें तो तीन बातें स्पष्ट होती हैं -
एक तो इन दिग्विजयों का उद्देश्य आधिपत्य स्थापित करना नहीं रहा हैं। कालिदास ने एक शब्द का प्रयोग किया है -...उत्खात प्रतिरोपण....। यानी उखाड़ कर फिर से रोपना। जैसे धान के बीज बोए जाते हैं, फिर पौधे होने पर उखाड़ कर पास के खेत में रोपे जाते हैं। और इस धान की फसल बोए हुए धान की अपेक्षा दुगुनी होती हैं। इसमें अपने आप में दुर्बल पौधे नष्ट हो जाते हैं और सबल पौधे अधिक सबल हो जाते हैं। यह उस क्षेत्र के हित में होता है जिसमें जीत कर पुन: उसी क्षेत्र के सुयोग्य शासक को वहां का आधिपत्य सौंपा जाता हैं। इससे उस क्षेत्र की दुर्बलताएं अपने आप नष्ट हो जाती है और उसकी शक्ति और अधिक उभर कर आ जाती है।
दूसरी बात इस प्रकार की विजय यात्रा में निहित थी कि किसी सामान्य जन को सताया नहीं जाय, उसकी खेती न नष्ट की जाय। युद्ध उस भूमि पर हो जो ऊसर हो - और युद्ध से केवल सैनिक प्रभावित हों, साधारण जन न हों। उनके युद्ध में मारे गए सैनिकों को जीतने वाला पक्ष पूरा सम्मान देता था।

विभीषण किसी भी प्रकार रावण की चिता में अग्नि देने के लिए तैयार नहीं हो रहे थे। राम ने कहा कि वैर मरने के बाद समाप्त हो जाता हैं। रावण तुम्हारे बड़े भाई थे, इसीलिए मेरे भी बड़े भाई थे, इनका उचित सम्मान के साथ अंतिम संस्कार करो।
तीसरी बात यह थी कि दिग्विजय का उद्देश्य उपनिवेश बनाना नहीं था, न अपनी रीति नीति आरोपित करना था। भारत के बाहर जिन देशों में भारत का विजय अभियान हुआ, उन देशों को भारत में मिलाया नहीं गया, उन देशों की अपनी संस्कृति समाप्त नहीं की गई, बल्कि उस संस्कृति को ऐसी पोषक सामग्री दी गई कि उस संस्कृति ने भारत की कला और साहित्य को अपनी प्रतिभा में ढाल कर कुछ सुंदरतर रूप में ही खड़ा किया।
कंपूचिया में अंकोरवाट और हिंदेशिया में ...बोरोबुदुर.. तथा ..'प्रामवनम.. इसके जीवंत प्रमाण हैं, जहां पर अपनी संस्कृति के अनुकूल उन-उन देशों के लोगों ने भारतीय धर्म-संस्कृति को नया रूप प्रदान किया। एक उद्देश्य यह अवश्य था कि नाना प्रकार के रंगों से इंद्रधनुष की रचना हो।
अब एक प्रश्न है कि केवल राम का ही विजयोत्सव क्यों इतना महत्वपूर्ण है ? उसके बाद अनेक विजय अभियान हुए। वो इतने महत्वपूर्ण क्यों नहीं हुए ? उनका उत्सव इस तरह क्यों नहीं मनाया गया ?
इसका समाधान यही है कि राम की विजय यात्रा में राम के सहायक हैं वानर व भालू जातियां। अयोध्या से कोई सेना नहीं आई थी। वह अकेले..'एक निर्वासित का उत्साह... है, जिसने राक्षसों से आक्रांत अत्यंत साधारण लोगों में आत्मविश्वास भरा और जिसने रथहीन होकर भी रथ पर चढ़े रावण के विरुद्ध लड़ाई लड़ी।

ऐसी यात्रा से ही प्रेरणा ले कर गांधी जी ने स्वाधीनता के विजय अभियान में जिन चौपाइयों का उपयोग किया वे ..रामचरितमानस.. की हैं -.. रावन रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा।.. ऐसी विजय में किसी में पराभव नहीं होता, राक्षसों का पराभव नहीं हुआ, केवल रावण के अहंकार का संहार हुआ। राक्षसों की सभ्यता भी नष्ट नहीं हुई। उसी प्रकार जैसे अंग्रेजों का पराभव नहीं हुआ। अंग्रेजों की सभ्यता नेस्तनाबूद करने का कोई प्रयत्न भी नहीं हुआ, केवल प्रभुत्व समाप्त करके जनता का स्वराज्य स्थापित करने का लक्ष्य रहा। इसलिए विजयदशमी आज विशेष महत्व रखती है।
हम खेतिहर संस्कृति वाले लोग आज भी नए जौ के अंकुर अपनी शिखा में बांधते हैं और उसी को हम जय का प्रतीक मानते हैं। आनेवाली फसल के नए अंकुर को हम अपनी जय यात्रा का आरंभ मानते हैं।
हमारे लिए विजययात्रा समाप्त नहीं होती, यह फिर से शुरू होती है, क्योंकि भोग में अतृप्ति, भोग के लिए छीना-झपटी, भय और आतंक से दूसरों को भयभीत करने का विराट अभियान, दूसरों की सुख-सुविधा की उपेक्षा, अहंकार, मद, दूसरों के सुख की ईर्ष्या- यह सभी जब तक हैं, कम हो या अधिक... विरथ रघुवीर.. को विजययात्रा के लिए निकलना ही पड़ेगा। आत्मजयी को इन शत्रुओं के ऊपर विजय प्राप्त करने के लिए नया संकल्प लेना ही होगा।
विजयदशमी के दिन लोग नीलकंठ पक्षी देखना चाहते हैं। नीलकंठ सुंदर-सा पक्षी है। गला उसका नीला होता है। उस पक्षी में लोग विषपायी शिव का दर्शन करना चाहते हैं। आत्मजयी जब विजय के लिए निकलेगा तो उसे बहुत-सा गरल पीना पड़ेगा। यह गरल अपयश का है, लोकनिंदा का है और सबसे अधिक लोकप्रियता का है। आज इस गरल को पीने के लिए कोई तैयार नहीं है।
विजयदशमी का उत्सव सार्थक होता है दक्षिण से उत्तर की राम की वापसी यात्रा से। इसमें राम रास्ते में अपने मित्र ऋषि भारद्वाज से मिलते हैं और अपने मित्र निषादराज से मिलते हैं, गंगा फिर से पार करते हैं। अंत में पहले भरत से मिलते हैं, फिर अयोध्या में प्रवेश करते हैं और सिंहासन पर आसीन होते हैं।

वस्तुत: जन-जन के मन में वनवासी राम भी तो राजा ही थे। केवल सिंहासन पर आसीन नहीं थे, किंतु सिहांसन पर उनकी पादुका आसीन थी। उनके प्रतीकचिह्न से शासन चल रहा था। भरत तो अपने को न्यायधारी मानते थे। महात्मा गांधी उसी प्रकार की स्तुति में जनता के शासक को देखना चाहते थे।
शासन तो सनातन राम का ही हैं। उनकी तरफ से प्रतिनिधि होकर, धरोहरी होकर शासन चलाना ही जनतंत्र के शासक का लक्ष्य होना चाहिए। राम का राज्याभिषेक सत्य का राज्याभिषेक है, सात्विक ज्ञान का राज्याभिषेक है।

1 comments:

रवि रतलामी said...

एक सर्वथा अलहदा विश्लेषण.