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Monday, October 25, 2010

फैलता मलेरिया बढ़ती मौतें


हर साल लाखों लोगों की जिंदगियां लीलने वाले और इंसानों के लिए अभिशाप सरीखे मलेरिया का अस्तित्व भी इंसानों के जितना ही प्राचीन है। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑव हेल्थ के आंकड़ों के मुताबिक भारत में सबसे ज्यादा मलेरिया और डेंगू के मरीज कोलकाता में पाये जाते हैं। हैरत की बात है कि मलेरिया के इलाज की दवा का ईजाद कोलकाता मेडिकल कालेज के ही एक डाक्टर ने किया था और उस समय से अब तक सरकार उसके उन्मूलन के लिये जमीन- आसमान एक किये हुए है, लेकिन उन्मूलित होना तो दूर यह फैलता ही जा रहा है। हालांकि कोलकाता या पश्चिम बंगाल में इससे होने वाली मौतों के बारे में सही आंकड़े नहीं हैं, लेकिन एक नए शोध के मुताबिक देश में मलेरिया से प्रतिवर्ष होने वाली मौतों की संख्या अनुमान से बहुत ज्यादा है।

आंकड़ों के मुताबिक भारत में मलेरिया से विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुमान से 13 गुना अधिक मौतें होती हैं। भारत में हर साल होने वाली 200,000 से ज्यादा मौतों की वजह मलेरिया बीमारी होती है। यू एस नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ और कैनेडियन इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ ने संयुक्त रूप से यह शोध किया था। इन नए आंकड़ों से दुनिया भर में मलेरिया से होने वाली मौतों की संख्या को लेकर संशय की स्थिति है। आंकड़े बताते हैं कि 70 साल से कम आयु के लोगों की हर साल होने वाली मौतों में से 205,000 मौतों की वजह मलेरिया होता है। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक भारत में 2006 में मलेरिया से 10,000-21,000 मौतें होने का अनुमान है। टोरंटो स्थित सेंटर फॉर ग्लोबल हेल्थ रिसर्च के अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि मलेरिया न केवल बच्चों को बल्कि बड़ी संख्या में युवाओं को भी मार रहा है। उन्होंने कहा कि भारत घनी आबादी वाला देश है और जहां होने वाली मौतों का एक प्रमुख कारण मलेरिया है। मच्छर काटने की वजह से होने वाली डेंगू, चिकुनगुनिया, मस्तिष्क ज्वर आदि बीमारियों की जैसी खबरें इधर कुछ सालों में आई हैं, उन्हें देखते हुए मलेरिया पर नये दावे को खारिज करना आसान नहीं है। सवाल यह है कि इलाज आसान होने के बावजूद देश में मलेरिया की स्थिति इतनी गंभीर क्यों है? इसके पीछे दवाओं के बेअसर होने, बीमारी की अनदेखी करने और देश में सामुदायिक चिकित्सा की उचित व्यवस्था नहीं होने जैसे कई कारण हैं। पिछले दिनों खबर आई थी कि मलेरिया की सबसे कारगर दवा आर्टेमिसिनिन के खिलाफ मच्छरों में प्रतिरोधी क्षमता विकसित हो गई है। क्लोरोक्विन और सल्फाडॉक्सीन आदि दवाएं पहले ही कमजोर पड़ गई थीं। दूसरी समस्या यह है कि मलेरिया में अक्सर लोग घरेलू इलाज आजमाते हैं या फिर घर पर ही बुखार-सिरदर्द की आम दवाएं मरीज को दे दी जाती हैं। गांव-देहात में तो समय से इस बात की जांच भी नहीं हो पाती कि बुखार की वजह कहीं मलेरिया तो नहीं।

देश में सामुदायिक चिकित्सा का उचित प्रबंध न होने का आशय यह है कि सरकार और प्रशासन के स्तर पर मच्छरों, पिस्सुओं आदि से होने वाली बीमारियों की रोकथाम या बचाव का कोई प्रयास नहीं किया जाता। अखबार में खबर छप जाने पर जब-तब फॉगिंग की रस्म अदायगी जरूर कर दी जाती है, लेकिन यह खानापूर्ति मच्छरों पर कोई स्थायी असर नहीं छोड़ पाती। विदेशी मदद से चलने वाले एंटी पोलियो कैंपेन के तहत लगभग हर महीने घर-घर जाकर पोलियो ड्रॉप पिलाने की व्यवस्था करने वाली सरकार ने मच्छरों से पैदा होने वाली बीमारियों से जूझने का जिम्मा लोगों पर ही छोड़ रखा है।

चिकित्सा सेवाओं के निजीकरण के इस दौर में गरीब और मध्य वर्ग कहां जाए, जिसके लिए अब लगभग सभी अस्पतालों के दरवाजे बंद रहने लगे हैं। बिल गेट्स फाउंडेशन का कहना है कि स्मॉलपॉक्स की तरह दुनिया मलेरिया से भी हमेशा के लिए छुटकारा पा सकती है, लेकिन हमारे देश में जिस तरह महामारी बनते मलेरिया की अनदेखी की जा रही है, उसमें फिलहाल इससे कोई राहत मिलती नजर नहीं आती। नयी रिपोर्ट को अपने आंकड़ों से झुठलाने के बजाय सरकार इसे एक चेतावनी की तरह ले और डेंगू-मलेरिया के खिलाफ एक बड़ा अभियान छेड़े।

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