मनमोहन सिंह सरकार और कांग्रेस पार्टी दोनों के लिये यह बुद्धिमानी होगी कि वे राष्ट्रीय हितों के मामले में खासकर जम्मू कश्मीर के मामले में एक सुर में बोलें। यह एहतियात अन्य मसलों में बरतें या नहीं कम से कम अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा के भारत दौरे की तैयारी के समय तो जरूर बरतें। कारण यह हे कि जम्मू कश्मीर स्थायी रूप से भारत से मिल चुका हे और वह भारत का अभिन्न अंग है। पाकिस्तान ओर चीन ने नाजायज ढंग से उसके एक बाग पर कब्जा किया हुआ है। पहले तो अमरीका चाहता था कि वह कश्मीर के मामले पर भारत और पाकिस्तान में मध्यस्थता करे, लेकिन भारत के लगातार दबाव से उसने इस बार पर जोर देना कम कर दिया है, हालांकि उसने ऐसा करना एकदम बंद नहीं किया है।
कुछ दिन पहले तो एक खबर आयी थी अमरीकी राष्ट्रपति सुरक्षा परिषद में भारत की महत्वाकांक्षा को जम्मू और कश्मीर के समाधान से जोडऩा चाहते हैं। उनका मानना है कि ऐसा करने से दक्षिण एशिया में शांति स्थापित हो जायेगी। यद्यपि अमरीकी प्रशासन ने इसका विरोध किया है पर इसमें कहीं ना कहीं थोड़ा सच तो जरूर है क्योंकि अमूमन अखबार बिल्कुल झूठ के आधार पर खबरें नहीं गढ़ते।
जरा शुरू से गौर करें। जब ओबामा नये - नये पद पर आये तो उनका विचार था कि अमरीका को कश्मीर मसले पर मध्यस्थता करनी चाहिये। इसके लिये वार्ताकार के रूप में पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन का नाम भी तय कर लिया गया था। इसके बाद पाकिस्तान ने कोशिश की कि अफगानिस्तान-पाकिस्तान के बारे हॉलब्रुक सिद्धांत को यहां भी लगा दिया जाय। जिसके अनुसार दक्षिण एशिया में सारे संकट का कारण जम्मू कश्मीर है।
भारत सरकार ने काफी कूटनीतिक प्रयास किये ताकि होलब्रुक के सिद्धांत को कश्मीर पर लागू होने से रोका जा सके। यह सब उस समय की बात हे जब सरकार और पार्टी एक सुर में बोलती थी। अब हालात बदल गये हैं। अब तो कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की कमजोरी छिपाने के लिये पार्टी महासचिव राहुल गांधी लीपापोती करते नजर आ रहे हैं और चूंकि सबको मालूम है कि राहुल ही भविष्य में प्रधानमंत्री होंगे तो उनके समर्थन तथा जी हुजूरी में सभी लगे हैं। उन्हें उमर की इस बात में कोई गलती नहीं दिख रही है कि भारत में कश्मीर का विलय नहीं हुआ था। सोनिया गांधी ने भी समर्थन किया। उनका कहना हे कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है पर विशेष दर्जे के साथ।
अब इसका निहितार्थ यह है कि यदि कश्मीर का भारत में विलय नहीं हुआ है तो उसे वहां से अलग भी किया जा सकता है। अगर तथ्य सही है, तो हो सकता है कि चिदंबरम और दिग्विजय सिंह में शातिर लड़ाई शुरू हो जाय। क्योंकि एस एम कृष्णा गृहमंत्री की कुर्सी चाहते हैं। उधर दिग्विजय और चिदंबरम आपस में उलझे हुए हैं। वोट बैंक की राजनीति में लिप्त वे दोनों पंजे लड़ा रहे हैं। लेकिन अंतत: इससे भारत के राष्ट्रीय हितों को भारी आघात पहुंचेगा। जम्मू और कश्मीर के मामले में पारंपरिक भारतीय स्थिति यह है कि जम्मू और कश्मीर भारत का अभिन्न है। पी. चिदंबरम का कहना है कि कश्मीर मसले के समाधान सुझाने वालों के लिए कोई सीमा रेखा नहीं है। चिदंबरम की बात के कई मायने हो सकते हैं और उसके दुर्भावनापूर्ण अर्थ भी निकाले जा सकते हैं। यह सब जम्मू और कश्मीर जैसे एक संवेदनशील मामले पर अक्सर बोलने के जोखिम हैं।
वैसे सोनिया गांधी और सरकार के बीच इस स्थिति पर कुछ भी कहना कठिन है पर सरकार और पार्टी को ऐसा करने से स्थिति बिगड़ सकती है और विदेशी ताकतों को इस पर बोलने का मौका मिल सकता है। अतएव हर हाल में अनर्गल बोलने से बचना होगा।
Tuesday, October 26, 2010
अनर्गल बातों से बचें
Posted by pandeyhariram at 2:29 AM
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