बुधवार (छह अक्टूबर) को राहुल गांधी, पी एम इन मेकिंग, ने कह डाला कि कट्टरवाद के मामले में..राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर एस एस).. और स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑव इंडिया (सिमी)... में कोई अंतर नहीं है। हालांकि जैसी उम्मीद थी भारतीय जनता पार्टी ने इसपर तत्काल टिप्पणी की। अपनी चाल और चरित्र का डींग मारने वाली भाजपा की टिप्पणी भी डिग्री के हिसाब से उतनी ही अशालीन और असंयमित थी, जितनी राहुल की टिप्पणी। कांग्रेस की ओर से इस पर कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की गयी हे और उस राष्ट्रीय पार्टी में इस टिप्पणी को दोहराये जाने या इसका प्रचार करने जैसी जल्दीबाजी या होड़ भी नहीं दिख रही है, जैसा कि अक्सर ऐसे मौकों पर देखने को मिलता हे। जो लोग कांग्रेस का इतिहास जानते हैं, उन्हें यह अच्छी तरह मालूम है कि उसमें आरंभ से दो धड़े रहे हैं, पहला नरम दल या उदारपंथी और दूसरा गरम दल या कट्टरपंथी। अब कांग्रेस में जो उदार पंथी हैं उन्हें अपनी भावनाओं को रोकने में इस समय काफी संघर्ष करना पड़ रहा होगा।
राहुल गांधी के अब तक के वक्तव्यों के अध्ययन - विश्लेषण तथा उनकी गतिविधियों के सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक विश्लेषण से यह समझा जा सकता हे कि है उन्होंने अगर खुद से यानी अपनी सोच के आधार पर यह कहा है तो बस मुतमईन रहें कि यूं ही सहज ही कह डाला होगा, क्योंकि वे बहुत जटिल सोच वाले गंभीर राजनीतिज्ञ नहीं हैं। बहुत मुमकिन है कि उन्हें मध्य प्रदेश के दौरे के समय कांग्रेस महासचिव के रूप में यह बयान देने के लिये कनविंस किया गया होगा। क्योंकि मध्य प्रदेश के कई शहर इन दिनों सिमी के कार्यकर्ताओं तथा पदाधिकारियों की गिरफ्तारी को लेकर चर्चा का विषय बनने के बाद असहज हैं। इसी तरह मध्यप्रदेश के कई शहर संघ की गतिविधियों को लेकर खबरों में रहा करते हैं। लेकिन अब सवाल उठता है कि क्या इस वक्तव्य को केवल प्रांतीय परिप्रेक्ष्य में ही देखा जायेगा ?
कांग्रेस पार्टी के महासचिव के बारे में ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता है। बाल की खाल निकालने में माहिर राजनीतिक विश्लेषक निश्चित ही ऐसा होने भी नहीं देंगे।
राहुल गांधी के वक्तव्य के पीछे कांग्रेस के कथित सेक्यूलर खेमे की इस बेचैनी की तलाश जरूर की जा सकती है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के बाद संघ के क्षेत्रों में पैदा हुए उत्साह को काबू में रखने का एक उपाय इस तरह का वक्तव्य भी हो सकता था।
राजनीतिक रूप से संघ कोई आक्रामक मुद्रा अपनाए उसके पहले ही उसे प्रतिरक्षा के कवच में ढाल दिया जाए। राहुल गांधी की राजनीतिक सूझ-बूझ के प्रति पूरी तरह से विश्वास व्यक्त न कर पाने की गुंजाइश अपनी जगह कायम रखते हुए भी इस तथ्य पर तो गौर किया ही जा सकता है कि तमाम पक्की घोषणाओं के बावजूद वे आजमगढ़ की यात्रा पर नहीं गए। वे तमाम लोग जो स्वयं के सोच व राष्ट्र के अच्छे-बुरे के प्रति ईमानदारी से आश्वस्त हैं, इतना जरूर मानते हैं कि अयोध्या मामले में आए फैसले से संघ को कोई लाभ मिल पाएगा, इसमें संदेह है। लेकिन संघ पर किए जाने वाले इस तरह के हमलों से कथित कट्टरपंथी संगठन के उदारीकरण की प्रक्रिया को धक्का अवश्य लग सकता है, जिससे कि कम से कम अभी तो कांग्रेस बच सकती है। वैसे भी कहना मुश्किल है कि राहुल गांधी की टिप्पणी से सहमत होने का सभी कांग्रेसी सार्वजनिक रूप से उत्साह दिखाना चाहेंगे।
Friday, October 8, 2010
सिमी और संघ की तुलना
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