हमारे देश में पढ़े लिखे लोगों का यह प्रिय शगल है कि गरीबी और भुखमरी का अरण्य रोदन करें। इन दिनों ये गरीबों के शोषण का भी स्यापा करने लगे हैं। उनकी हां में हां मिलाते हैं अपने को प्रगतिशील कहने वाले अखबार। लेकिन, सच यह है कि पिछले दो दशकों में किसी बड़ी नारेबाजी या वैचारिक प्रोत्साहन के बगैर हमारे गरीब वर्ग से लगातार और धीमे-धीमे निकल कर लगभग बीस करोड़ लोग मध्यवर्ग में शामिल हो चुके हैं। यूं तो गरीब ग्रामीण पिछले कई दशकों से गांवों से शहर आकर मध्यवर्ग में सपरिवार शामिल होना चाहता रहा है, पर अब गांवों में बैठे कई नवसंपन्न खेतिहर परिवार तथा ग्रामीण विकास कार्यों से जुड़े कर्मी भी मध्यवर्ग में शामिल होते जा रहे हैं। इसकी पुष्टि कर रही है, एशियाई विकास बैंक (एडीबी) की एक ताजा रपट। उसके जांच के पैमानों या इस वर्ग की राज-समाज में भागीदारी के महत्व पर हो रही अनेक लंबी बहसें अपनी जगह हैं, पर यह निर्विवाद है कि आजाद भारत में शहरीकरण तथा मध्यवर्ग, दोनों लगातार बढ़ रहे हैं।
मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदण्ड बदलो तुम,
जुए के पत्ते सा
मैं अभी अनिश्चित हूँ ।
भारत में मध्यवर्ग की भारी बढ़ोतरी इस बात का सहज लक्षण है, कि देश में तनिक धीमे और अनिच्छा से ही सही, जन्मना संपन्न वर्गों के साथ आरक्षण, जेंडर समता और साक्षरता के कानूनों से लाभान्वित मतदाताओं का एक बड़ा समूह लगातार राज-समाज में वर्ग विशेष के वर्चस्व को सक्षम चुनौती दे रहा है। और इस चलन को चुनावी वजहों से ही सही, सभी दल घोषणापूर्वक शह दे रहे हैं। अपने मां-बाप से अधिक काबिल बन गए कई गरीब युवाओं के दिल में मेहनत तथा शिक्षा के बूते समाज में ऊंचे उठने के अरमान पहले सिर्फ मुंबइया फिल्मों के स्वप्नलोक में ही दिखाए जाते थे, पर आज इसके ठोस उदाहरण उच्च प्रशासकीय सेवाओं से लेकर नए सेवा क्षेत्रों तक में मौजूद हैं। जब कोई देश शुरू-शुरू में तेजी से तरक्की कर रहा हो, तो लोगों को असमानता उतनी अधिक नहीं खटकती, क्योंकि उनको अचानक क्षितिज पर खुद अपने लिए सामाजिक तथा आर्थिक, दोनों क्षेत्रों में तरक्की कर पाने की अनेक संभावनाएं नजर आने लगती हैं, पर जैसे-जैसे वे मध्यवर्ग की पायदानें चढ़ते हैं, उनको अपने बच्चों के भविष्य तथा अच्छी जीवनशैली बनाए रखने को लेकर असंतोष व आर्थिक असुरक्षा महसूस होने लगती है। अंगरेजी तथा आत्मविश्वास के पैमाने पर भी वे तथा उनके बच्चे खुद को कमतर महसूस करते हैं। जब उनके मेधावी बच्चों का नगण्य हिस्सा ही आई ए एस सरीखी प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल हो पाता है, तो हताश बच्चे कहते हैं कि उन सरीखा निम्न मध्यवर्ग का लड़का चाहे अपने को जितना भी तराश ले, बड़ा पद उन खास लोगों को ही मिलता है, जो पुश्तैनी तौर से उच्च मध्यवर्ग से आते हैं । इस बिंदु पर आकर नए मध्यवर्ग के लिए पुराने मध्यवर्ग की तरह अपने बच्चों की बाबत जाति तथा धर्म पर निरपेक्षता या प्रोफेशनल क्षेत्र में समाजवादी मूल्यों को कायम रखना कठिन हो जाता है। शिक्षा, स्वास्थ्य और सार्वजनिक संसाधनों की मिल्कियत और अवसर की समानता के नए संदर्भ उनके लिए महत्वपूर्ण हैं। हमको अगर अपने मध्यवर्ग की युवा जमात को प्रगति का डायनामो तथा धर्मनिरपेक्षता और किफायती जीवन मूल्यों का जनहितकारी केंद्र बनाना है, तो सबसे पहले शिक्षा को घटिया राजनीति तथा संदिग्ध पूंजी से मुक्त कराने वाले नए ढांचे गढऩे होंगे। हर बरस फोर्ब्स के धनकुबेरों की फेहरिस्त में बड़ी तादाद में शामिल हो रहे अपने नव धनाढ्य लोगों पर दबाव बनाना होगा कि वे अपनी बीवियों के लिए जलपोत या हवाई जहाज खरीदने के साथ देश के लाखों होनहार बिरवों को पनपाने के लिए भी तिजोरी खोलें। आखिर उन्हें भी तो अपने बढ़ते उपक्रमों के लिए बड़ी संख्या में योग्य हुनरमंद कार्यकर्ताओं की जरूरत होगी।
ये जो फफोले तलुओं मे दीख रहे हैं
ये मुझको उकसाते हैं ।
पिण्डलियों की उभरी हुई नसें
मुझ पर व्यंग्य करती हैं ।
मुँह पर पड़ी हुई यौवन की झुर्रियाँ
कसम देती हैं ।
कुछ हो अब, तय है
मुझको आशंकाओं पर काबू पाना है,
पत्थरों के सीने में
प्रतिध्वनि जगाते हुए
परिचित उन राहों में एक बार
विजय-गीत गाते हुए जाना है
जिनमें मैं हार चुका हूँ।
Friday, October 8, 2010
खुशहालों की बढ़ती तादाद
Posted by pandeyhariram at 1:57 AM
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