श्री रामजन्मभूमि मंदिर- बाबरी मस्जिद विवाद को सुलह समझौते से हल करने के प्रयास को संतों ने खारिज कर दिया और मांग की है कि पूरी विवादित जमीन रामलला की है और इसे रामलला को सौंप दी जाय। संतों का कहना है कि इस मांग को लेकर वे उच्चतम न्यायालय का भी दरवाजा खटखटायेंगे साथ ही पूरे देश में जनजागरण अभियान चलायेंगे ताकि अधिग्रहीत परिसर रामलला को सौंपे जाने के लिए माहौल तैयार किया जा सके।
संतों का मानना है कि विवादित जमीन का विभाजन को देश के बंटवारे जैसा है इसलिए जमीन का बंटवारा पूरी तरह अस्वीकार है। मंदिर को लेकर विगत 60 वर्षों से भारत के दो प्रमुख सम्प्रदायों - हिंदुओं और मुसलमानों - में टकराहट चलती दिख रही है। आगे भी शायद यह जारी रहे।
लेकिन अगर सामाजिक मनोविज्ञान की धरातल पर आकर यदि इस हालात का विश्लेषण करें तो ऐसा महसूस होता है कि यह दो सम्प्रदायों या राष्ट्रों या संस्कृतियों की टकराहट न होकर दो विचारधाराओं की टकराहट है। अगर गहराई से देखें तो महसूस होगा कि भारत जो आज है, वह एक राष्ट्र या संस्कृति से पृथक एक विचार भी है, एक दर्शन है भारत।
आज हिंदुत्व की मुखालफत करने वाले चंद कथित ..स्युडो सेकुलर.. लोग राम जन्मभूमि परिसर पर हिंदुओं के दावे को गलत कह कर उन्हें हास्यास्पद बता रहे हें और अनका मानना हे कि 1528 में जब बाबर के फौजी सरदार मीर बाकी ने यह मस्जिद बनवाई थी, उस समय से वहां सौहार्दवश रामलला की आरती होती थी। अलग-अलग संप्रदायों से जुड़े भारतीय आजादी के साठ बरसों में भारत के धर्मनिरपेक्ष विचार के प्रति आस्थावान रहे हैं, लेकिन जो संगठन और राजनीतिक पार्टियां भारत के इस विचार के खिलाफ थे, उन्होंने अयोध्या में मस्जिद के स्थान पर राममंदिर निर्माण अभियान के रूप में हिंदुत्व के नए शक्तिशाली प्रतीक का आविष्कार किया। इस अभियान ने हिंदू बहुल के आगे अल्पसंख्यक धार्मिक विश्वास के अस्तित्व पर सवाल खड़ा कर दिया। जो भारतीय संविधान धर्म से ऊपर उठकर सभी व्यक्तियों को समान अधिकार और सुरक्षा देने का वचन देता है, इस अभियान ने उस संविधान पर ही सवालिया निशान लगा दिया। जिस जमीन पर मस्जिद थी, उस जमीन पर हिंदुओं का दावा आस्था पर आधारित था।
आस्था के आधार पर फैसला देने वालों की आलोचना करने वालों से एक बाद पूछी जा सकती है कि आखिर 1528 में वहां ही क्यों आरती होती थी, रामलला की जन्मभूमि के नाम पर दूसरी जगह क्यों नहीं ?
लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सदा क्यों हिंदू आस्थाओं पर ही आघात पहुंचाया जाता है?
कुछ लोगों का तर्क हे कि 1528 में जब मीर बाकी ने मस्जिद बनवायी उस काल में रामचरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसी दास वयस्क रहे होंगे और उन्होंने इसकी चर्चा या इस पर कोई आपत्ति नहीं उठायी, यह दलील इतनी ही व्यर्थ जितनी एक किशोर का कुतर्क।
तुलसी की रचनाओं का उद्देश्य, लक्ष्य या मनोविज्ञान भौगोलिक सीमांकन नहीं था। वे न इतिहास लेखन कर रहे थे न दस्तावेज तैयार कर रहे थे। उनका उद्देश्य समष्टि के वैराट्य का व्यष्टि में समायोजन था। एक ऐसा पाठ्य प्रयास जो अवचेतन में दृष्य - श्रव्य का प्रभाव उत्पन्न कर अवचेतन को..रेशनालाइज.. कर सके।
कथित धर्मनिरपेक्षता के घातों प्रतिघातों के बावजूद आज जन जन के हृदय में अगर राम हैं तो इसका बहुत बड़ा श्रेय तुलसी को ही जाता है। तुलसी ने आपत्ति नहीं की बल्कि एक शब्द की नयी व्युत्पत्ति कर उसे निष्पत्ति तक पहुंचा दिया।
अगर अदालत ने आस्था का आदर किया हे तो संतों की मांग सर्वथा उचित है और उस पर क्रियान्वयन भी जरूरी है। वरना संदेह है कि समाज में आंतरिक विखंडन का खतरा बढ़ सकता है। ऐसे संवेदनशील मौके पर एक मामूली प्रशासनिक गलती सदियों तक घाव बनकर रिस सकती है।
यह जब्र भी देखा है तारीख की निगाहों ने
लमहों ने खता की थी सदियों ने सजा पायी है।
Friday, October 22, 2010
सावधान, कहीं मामला तूल न पकड़े
Posted by pandeyhariram at 3:49 AM
Labels: babri masjid, rammandir
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