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Tuesday, August 2, 2011

येदियुरप्पा की विदाई से भाजपा को मिला एक मौका

हरिराम पाण्डेय
30 जुलाई 2011

लोकायुक्त संतोष हेगड़े की रिपोर्ट में कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी. एस. येदियुरप्पा को दोषी बताया गया। इसके फौरन बाद भाजपा आलाकमान ने उनसे पद छोडऩे को कह दिया। पार्टी का यह कदम सही था क्योंकि पार्टी शायद पहले ही इस मामले में कार्रवाई करने में काफी देर कर चुकी है। हालांकि भाजपा पूरी तरह से कन्फ्यूज्ड पार्टी है। यह भी कहा जा सकता है कि अंतर्कलह से जूझ रही इस पार्टी के टॉप नेता आपस में ही लड़ रहे हैं। इसलिए पार्टी किसी भी मुद्दे पर विश्वसनीय रूप से आक्रामक नहीं दिख पाती है फिर भी उसने येदियुरप्पा पर इतनी जल्दी कार्रवाई का फैसला किया यह हैरत की बात है। इसे विडम्बना ही कहेंगे कि जल्दी ही यूपीए कई राष्टïीय मुद्दों से घिरने वाली है और ऐसे में उसने एक क्षेत्रीय मुद्दे पर भाजपा को बेहतर तरीके से किनारे लगा दिया। वैसे, हकीकत तो यह है कि केंद्र में सत्ताधारी गठबंधन जिन मुद्दों पर भी खुद को फंसा हुआ पा रहा है उसमें ज्यादा योगदान मीडिया के दबाव का है। पार्टी के इस फैसले पर शक्तिशाली येदियुरप्पा पार्टी आलाकमान को चुनौती देते हुए बागी बनने की धमकी देते रहे, हालांकि कुछ घंटों में ही वह पस्त हो गये। इससे पता चलता है कि क्षत्रपों पर पार्टी आलाकमान का कितना नियंत्रण रह गया है। पार्टी के महारथियों द्वारा दिल्ली तलब किए जाने के बावजूद वह खुलेआम खुद भी नाफरमानी कर रहे और अपने समर्थकों को भी ऐसा करने के लिए उकसाते रहे। मजबूरन पार्टी को चेतावनी जारी करनी पड़ी कि वह 12 घंटे में कुर्सी छोड़ें या फिर उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी। अल्टिमेटम की अवधि के अंदर ही उन्होंने बात मान ली, इससे क्षत्रपों के बागी तेवर झेलने की आदी हो चुकी भाजपा ने जरूर राहत की सांस ली होगी।
यह तो जाहिर है कि येदियुरप्पा को हटाने का फैसला भाजपा ने पहले ही बहुत देर से लिया है। इसलिए ऊपर से नीचे तक के पार्टी के लोगों के यह चिल्लाने का कोई मतलब नहीं कि येिदयुरप्पा ने जो किया है वह पूर्व की सरकारें और मुख्यमंत्री भी करते रहे हैं और सिर्फ येदियुरप्पा को दोष देना सही नहीं होगा। आज जब सब जानते हैं कि राजनीति में यह पूर्वाग्रह का खेल है और येदियुरप्पा बहुत पहले ही भ्रष्ट नेता के तौर पर सामने आ चुके हैं, ऐसे में पार्टी को बहुत पहले ही इस दर्द पर मरहम लगाने का काम करना चाहिए था। फिर भी यह अच्छा हुआ कि आखिरकार यह फैसला लिया गया। अच्छा इसलिये कि अगर पार्टी में जरा भी राजनीतिक सूझ बूझ होगी वह संसद के अगले सत्र में सहयोगी दलों के साथ मिल कर कुछ बेहतर रणनीति के साथ अपनाएंगे। यूपीए सरकार जितने घोटालों से इस समय घिरी है, वहां भी हालात दिनों दिन बदतर होते जा रहे हैं। 2जी घोटाले का मामला और संदेहास्पद होता जा रहा है। यह तो स्वाभाविक है कि जब दबाव पड़ता है तो वे लोग भी अपना सब्र खो देते हैं, जिनसे चुप रहने की उम्मीद की जाती है। राजा का पिछले दिनों आया बयान भी यही दर्शाता है। उन्होंने बयान दिया कि बतौर टेलिकॉम मिनिस्टर उन्होंने जो भी फैसले किए, उनकी पूरी जानकारी तत्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदंबरम और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह दोनों को थी।
ठीक ऐसे ही, कॉमनवेल्थ गेम्स में बलि चढ़े सुरेश कलमाडी को अचानक डिमेंशिया से पीडि़त बताया जा रहा है। ऐसे में संकेत यही जा रहे हैं कि कहीं यह सारा ड्रामा इस घोटाले में शामिल चार बड़े खिलाडिय़ों के नामों का खुलासा न होने देने के लिए तो नहीं है। लेकिन यहां भी, लगता है कि, अगर कलमाडी पर और दबाव पड़े तो वह अपनी चुप्पी तोड़ देंगे। और फिर, क्षेत्रीय स्तर पर, कांग्रेस के प्रादेशिक दिग्गजों पर भी कम बड़े कलंक नहीं हैं। दिल्ली में एक मिनिस्टर को लोकायुक्त की रिपोर्ट में तलब किया गया था, लेकिन पार्टी ने इस रिपोर्ट को दबा लिया। इसी तरह, एक केंद्रीय मंत्री को सुप्रीम कोर्ट के जज ने दोषी माना था, लेकिन वे अपने पद पर बने रहे और पार्टी आलाकमान की ओर से उन्हें हटाने की कोई कोशिश नहीं की गयी थी। इन सबके बाद अब अगर भाजपा ने अपनी ही पार्टी के सीएम को कुर्सी से उतार दिया है और इस कदम के बावजूद वह खुद पर नैतिक होने का तमगा न लगवा पायी हो तो यह ठोस सबूत है इस बात का कि पार्टी को अपने भीतर झांकने की जरूरत है।
लोकतंत्र में यह जरूरी है कि प्रमुख विपक्षी दल कुछ इस तरह से काम करे कि इसका असर पड़े। यह बड़ा ही भयावह होगा कि सत्ताधारी पार्टी देश को सरेआम लूट कर ले जाए और विपक्ष इस बारे में कुछ भी न कर पाए क्योंकि उसके पास कोई सामंजस्यपूर्ण रणनीति नहीं थी। अगर ऐसा नहीं हो पाता है तो केवल एक ही कारण हो सकता है कि पार्टी जानती हो कि कई बड़े घोटालों के तार खुद इसके शासनकाल से भी जुड़े हैं।

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