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Saturday, August 27, 2011

दिशाहीन आंदोलन


हरिराम पाण्डेय
25 अगस्त 2011
टीम अण्णा और सरकार में टकराव का निश्चित स्वरूप समाने आ चुका है। इस टकराव का मूल्यांकन भी जीत-हार के रूप में किया जा रहा है। लेकिन इसमें लोकपाल बिल का स्वरूप अपना महत्व खो चुका है। अब यह सवाल है कि जीतेगा कौन- टीम अण्णा या सरकार? दोनों पक्ष अपनी इज्जत बचाने जैसे किसी समझौते पर पहुंचना चाह रहे हैं। मजे की बात है कि जो नौजवान उस आंदोलन में शरीक हैं उनका कोई लक्ष्य नहीं है। गांधी टोपियों का उमड़ता सागर और उस पर तिरंगे की अशालीन लहर स्वतंत्रता और संविधान की मर्यादा को समझने वालों के मन में कष्टï पैदा कर रही है। यहां चंद जहीन लोग, जो अण्णा के समर्थक कहे जा रहे हैं, वे इसे सत्याग्रह का नाम दे रहे हैं और आंदोलन को गांधीवादी कह रहे हैं। वे शायद भूल रहे हैं कि गांधी ने सत्याग्रह का इस्तेमाल एक नैतिक शक्ति के रूप में किया था। इसके अंतर्गत उन्होंने अपने विरोधियों पर सत्य और न्याय को पहचानने के लिए दबाव डाला। उनका सत्याग्रह ब्लैकमेल नहीं था। ऐसे ब्लैकमेल को गांधी ने सत्याग्रह का नहीं बल्कि दुराग्रह का नाम दिया। गांधी ने कहा था कि एक सच्चे सत्याग्रही को हमेशा एक सम्मानजनक समझौते के लिए तैयार रहना चाहिए। सत्याग्रही का संघर्ष जीत के लिए नहीं बल्कि एक बेहतर समझौते के लिए होता है। कोई भी राजनीतिक और सामाजिक आंदोलन सिर्फ मुद्दों के आधार पर नहीं चलाया जा सकता , जब तक कि उसका एक निश्चित विचारधारात्मक आधार न हो। इस आंदोलन का उद्देश्य , दिशा तथा सामाजिक आधार तब तक स्पष्ट नहीं होंगे जब तक यह न तय हो कि इसका विचारधारात्मक ढांचा क्या है। यह बतलाना काफी नहीं है कि यह आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ है। सिर्फ चंद मुद्दों पर आधारित आंदोलन को समाज की अवांछित और प्रतिक्रियावादी ताकतों द्वारा आसानी से हड़पा जा सकता है। पिछले दो - तीन दशकों से हमारा समाज एक खास तरह के संक्रमण से गुजर रहा है। सब जानते हैं कि भ्रष्टाचार के बिना जीवन बहुत कठिन होता है। भ्रष्टाचार करोड़ों लोगों की रगों में बह रहा है, भारत में सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार देने वाला उद्यम भारतीय रेल या कोल इंडिया नहीं है बल्कि ईश्वर की तरह सर्वव्यापी भ्रष्टाचार है। अण्णा सही हैं या गलत इस बहस को एक तरफ रखकर सोचना चाहिए कि अगर अण्णा का आंदोलन सफल हो गया तो उन्हें ही सबसे बड़ा झटका लगेगा। इस आंदोलन के समर्थन में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो राजनीतिक भ्रष्टाचार से तंग आ चुके हैं और उन्हें लगता है कि जन-लोकपाल बिल से सिर्फ नेताओं की कमाई बंद होगी, उनका जीवन यूं ही चलता रहेगा। जैसे मिलावट करने वाले दान भी करते हैं, पाप करने वाले गंगा नहाते हैं, उसी तरह बहुत से लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ मोमबत्तियां जला रहे हैं, इससे मन को शांति मिलती है, ग्लानि मोम की तरह पिघलकर बह जाती है। अण्णा हजारे को इस बात का श्रेय जरूर मिलना चाहिए कि उन्होंने भ्रष्टाचार को बहस का इतना बड़ा मुद्दा बना दिया है, हो सकता है कि यह एक बड़े आंदोलन की शुरुआत हो लेकिन अभी तो भावुक नारेबाजी, गजब की मासूमियत और हास्यास्पद ढोंग ही दिखाई दे रहा है। वर्तमान दौर को जरा गौर से परखें। यह मंथन का दौर है, बिल्कुल सागर मंथन की मानिंद। इस सागर मंथन के गर्भ में अमृत और विष दोनों ही मौजूद हैं। ऐसे में हमारी राजनीतिक व्यवस्था और सामाजिक आंदोलन , दोनों पर ही यह जिम्मेदारी आती है कि वे कुछ भी ऐसा न करें जिससे इस मंथन की कोख से विष बाहर निकलकर पूरे समाज को दूषित कर दे।

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