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Sunday, August 21, 2011

नये कानून से सिकुड़ जायेगा खाद्य सुरक्षा अधिकार का आधार

हरिराम पाण्डेय
4 अगस्त 2011
खाद्य सुरक्षा विधेयक जल्दी पारित होकर कानून बनने वाला है। इस विधेयक पर विचार के लिए गठित मंत्रियों के समूह ने इसे मंजूरी दे दी है। वर्तमान में देश में खाद्यान्नों के विशाल सुरक्षित भंडार जमा हैं और बड़े पैमाने पर खाद्यान्नों का निर्यात किए जाने की ही तैयारियां हो रही हैं। इस विधेयक का उद्देश्य है कि देश में! कुपोषण के शिकार हो रहे लोगों को उचित पोषण मिले। लेकिन सरकार ऐसा करने में विफल रही है। सच तो यह है कि प्रस्तावित विधेयक जितना देगा, उससे ज्यादा तो छीन ही लेगा।
पहली बात तो यह है कि अब तक लागू सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत, गरीबी की रेखा के नीचे तथा गरीबी की रेखा के ऊपर (एपीएल तथा बीपीएल) की श्रेणियों में कुल मिलाकर, 82 प्रतिशत परिवार सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दायरे में थे। लेकिन प्रस्तावित विधेयक इस हिस्से को घटाकर, ग्रामीण क्षेत्र में 75 प्र.श. और शहरी क्षेत्र में 50 प्र.श. परिवारों तक ही सीमित कर देता है। वास्तव में इस विधेयक में योजना आयोग के बहुत ही संदिग्ध आकलन को मंजूरी दे दी गयी है। इसमें कहा गया है कि ग्रामीण भारत के 75 प्र.श. और शहरी भारत के 50 प्र.श. को ही इस खाद्य सुरक्षा के दायरे में रखा जाएगा। यानी ग्रामीण भारत के कम से कम 25 प्र.श. और शहरी भारत के 50 प्र.श. को तो इस विधेयक के दायरे से बाहर ही छोड़ा जाना है। इस संदर्भ में यह कहना पड़ेगा कि सोनिया गांधी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने, जिसमें खाद्य अधिकार मुहिम के अनेक कार्यकर्ता भी शामिल हैं, योजना आयोग की पूरी तरह से संदिग्ध पद्धति को कानूनी हैसियत देना मंजूर कर और राज्यों को गरीबी के लिए कोटा तय किए जाने के लिए मंजूरी देकर, खाद्य सुरक्षा की अवधारणा को ही भारी चोट पहुंचायी है। इस संदर्भ में यह याद रखना भी जरूरी है कि 2010 के फरवरी में हुए मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में खाद्य मंत्रालय द्वारा दी गयी जानकारी के अनुसार, गरीबी की रेखा के ऊपर के कार्डधारक परिवारों की कुल संख्या 11.51 करोड़ थी। इसे विडंबनापूर्ण ही कहा जाएगा कि प्रस्तावित विधेयक तैयार करने वाली सरकार ने ही लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दायरे में आने वाले, गरीबी की रेखा के नीचे तथा गरीबी की रेखा के स्वीकार्य परिवारों (राज्य सरकारों के अस्वीकार्य अनुमानों के विपरीत) की संख्या 18.03 करोड़ स्वीकार की थी।
अगर हम 2001 की आबादी के आधार पर हिसाब लगाएं (जिसका वास्तव में 1991 की आबादी के आधार पर अनुमान लगाया गया था), जिसके आधार पर केंद्र सरकार हिसाब लगाती आई है, तो यह संख्या उस समय की कुल आबादी के 90 प्र.श. हिस्से से ज्यादा हो जाती है। अगर हम 2010 की जनगणना के आंकड़ों (22 करोड़ परिवार) को ही लें तब भी इसका अर्थ हुआ कि करीब 82 प्र.श. परिवार तो सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दायरे में पहले से ही थे। इसलिए विधेयक में ग्रामीण भारत में 75 प्र.श. और शहरी भारत में 50 प्र.श. परिवारों के लिए ही खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने का लक्ष्य रखे जाने का एक ही अर्थ है कि गरीबी की रेखा के नीचे की श्रेणी के लाखों परिवारों को उन्हें अब तक हासिल लाभों से भी वंचित किया जाय और बड़ी संख्या में गरीबी की रेखा के ऊपर की श्रेणी के कार्डधारकों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दायरे से ही बाहर कर दिया जाय।
वास्तव में इस विधेयक का खाका ही समस्यापूर्ण है, क्योंकि प्रस्तावित विधेयक के विभिन्न प्रावधानों के जरिए केंद्र्र खाद्य सुरक्षा के मामले में सर्वोच्च शक्तियां खुद हथियाने की कोशिश कर रहा है। शक्तियों के इस अतिकेंद्र्रीकरण के पीछे मकसद यही है कि नव उदारवादी नीतियों को संस्थागत रूप दिया जाय और गरीबों को मिलने वाले लाभ को घटाकर नगदी के लेनदेन को बढ़ाया जाय। इससे संभवत: खद्य सुरक्षा के अंतर्गत गरीबों! को मिलने वाले अधिकारों का आधार सिकुड़ जायेगा।

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