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Sunday, August 21, 2011

न हन्यते

हरिराम पाण्डेय
8 अगस्त 2011
आज कविगुरु रवींद्र नाथ टैगोर की पुण्य तिथि है। पश्चिम बंगाल सरकार ने इस अवसर को स्मरणीय बनाने के लिये विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन किया है। कविगुरु के नाम पर आयोजनों के इस चकाचौंध में कई बातें हम विस्मृत कर गये हैं। हालांकि उन पर भी चर्चा करना जरूरी है पर अभी कविगुरु के प्रसंग में ही बातें हों तो अच्छी। कविगुरु की कविताएं उनके मानस का प्रतिविम्ब हैं और उनकी कविताओं में जहां मृत्यु का रुदन है वहीं जिजीविषा का हास्य भी है। यही नहीं वह हास्य मृत्यु के रुदन से कहीं ज्यादा प्रगल्भ है। दरअसल वे कवि कम और दार्शनिक ज्यादा थे। भारतीय दर्शन और अध्यात्म में जहां मृत्यु पर नकारात्मक विमर्श है वहीं रवीन्द्रनाथ ने अपनी कविताओं में उसे ललकारा है। भारतीय वांगमय लिखता है कि 'जीवन क्षणभंगुर है, संसार नश्वर है।Ó जबकि रवींद्रनाथ ने लिखा है कि 'अवसान के बाद जो मिथ्या है वही अवसान के पूर्व सत्य है। जो जितना सच होगा उसे हमें स्वीकारना होगा वरना वह हमसे स्वीकार करवा लेगा।Ó मानव जाति की दिमागी 'कंडीशनिंगÓ कुछ ऐसी हुई है कि वह अक्सर यथार्थ को अस्वीकार करता है, उससे आंखें चुराता है जबकि रवींद्र नाथ का कहना है कि किसी वस्तु को अपनाना या उसे अस्वीकार करना दोनों वास्तविकता है और जब तक दोनों को मिलाया नहीं जायेगा तब तक पूर्णता प्राप्त नहीं होगी। हमारा दर्शन मानव स्वभाव के संदर्भ में सामंजस्य को उपस्कर मानता है जबकि गुरुदेव का मानना है कि स्वभाव की वास्तविकता को जानने के लिये मनुष्य के सच्चे स्वरूप को जानना होगा और स्वरूप का किसी एक प्रयोजन के संदर्भ में विश्लेषित करने से सच्चाई सामने नहीं आयेगी। अगर वीणा की सच्चाई जाननी है तो लकड़ी के टुकड़े और तारों को समझने से काम नहीं चलेगा बल्कि उस पर बजने वाले उन सुरों को भी समझना होगा और बजाने वाले की दक्षता भी जाननी होगी। आज के जमाने में मानव एक साधन बन गया है और हमारी जरूरतें उसे जिस नजरिये से देखती हैं हम उसे वैसा ही बनाना चाहते हैं। अगर मनुष्य को हम राष्टï्र के संदर्भ में देखेंगे तो सिपाही बनाने की सोचेंगे और नजरिया यदि आर्थिक होगा तो मानव समाज को हम धन कमाने की मशीन बना देना चाहेंगे। मनुष्य का अर्थ हमारी जरूरतों और प्रयोजनों से बढ़ा है और मनुष्य को समझने के लिये हमें उसे अपने प्रयोजनों और जरूरतों के चश्मे से नहीं देखना होगा। रवींद्र नाथ का काल यूरोपीय भौतिकवाद के प्रहार का काल था और भारतीय दर्शन एवं जीवन मूल्यों का घातक संहार चल रहा था उस काल में, उन्होंने लिखा 'गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्माचरेत।Ó रवींद्रनाथ ने पाश्चात्य मनोविज्ञान को ललकारते हुए एक सार्वभौमिक मस्तिष्क की परिकल्पना की है जो वैयक्तिक मस्तिष्क से उच्च कोटि का है और जिसमें चार सतह हैं-चित्त, मनस , बुद्धि और सत्य से युक्त अंतज्र्ञान। रवींद्र नाथ आज भी पुनर्जागरण के कवि हैं और विज्ञान एवं भौतिकतावाद से आगे मानवता का निर्माण करते हैं। ऐसे विचारक भले ही अपना भौतिक शरीर त्याग चुके हों लेकिन अपने विचारों के संदर्भ में जीवित हैं- न हन्यते हन्यमान शरीरे।

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