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Tuesday, August 2, 2011

यूरोप के संघर्ष से भारत को सचेत रहने की जरूरत

हरिराम पाण्डेय
1 अगस्त 2011
अपने उदारवादी सोच पर फख्र करने वाले यूरोप के नार्वे की घटना इस बात का संकेत है कि यूरोप में दक्षिणपंथ तेजी से जड़ जमाता जा रहा है। पिछले कुछ वर्षों में विभिन्न यूरोपीय देशों की सियासत में तेजी से जगह बना रहे दक्षिणपंथियों ने अपने देश के प्रवासियों, खासकर मुसलमानों के खिलाफ अभियान छेड़ रखा है। वे सांस्कृतिक शुद्धता के हिमायती हैं और उनका मानना है कि बहुसंस्कृतिवाद की अवधारणा चल नहीं सकती। यह कैसी विडंबना है कि पूरी दुनिया को जनतंत्र, उदारता और धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ाने वाला यूरोप आज नफरत और हिंसा की गिरफ्त में फंसता जा रहा है। दरअसल पिछले कुछ वर्षों में यूरोप में हुए सामाजिक-राजनीतिक बदलाव ने आम यूरोपीय के सोच पर गहरा असर डाला है। यूरोप के एकीकरण से कई जगहों पर रोजगार का संकट उठ खड़ा हुआ है। फिर सीमाओं की समाप्ति और बाहरी लोगों के वहां बसने से मूल नागरिकों में असुरक्षा का भाव पैदा हो रहा है। वहां पहुंचे एशियाइयों, खासकर मुसलमानों के बारे में कहा जाता है कि वे वहां के समाज में घुल-मिल नहीं पाए हैं। इससे उन्हें लेकर वहां के मूल निवासियों में संदेह बना रहता है। ऊपर से दुनिया में जहां-तहां होने वाली आतंकवादी घटनाओं से यह शक और बढ़ता है। यूरोपीय लोगों के भीतर के संदेह और भय का कुछ राजनीतिक दल दोहन कर रहे हैं। उन्होंने यूरो, मुक्त व्यापार और बहुसंस्कृतिवाद के खिलाफ अभियान छेड़ दिया है और असुरक्षा की भावना से ग्रस्त लोग उन्हें समर्थन भी दे रहे हैं। सच तो यह है कि यूरोप ने जिस बहुसंस्कृतिवाद की कटार से भारतीय उपमहाद्वीप के जिगर को टुकड़ों में काट डाला आज वही कटार उसके कलेजे के लहू से लथपथ है।
नॉर्वे में कत्लेआम के बाद एक प्रसिद्ध यूरोपीय पत्रिका में एक कार्टून छपा। जिसकी लगभग पूरे यूरोप में व्यापक चर्चा हुई। उस कार्टून में एक जंगली को एके-47 लिए हुए दिखाया गया था। यह सांकेतिक कार्टून आधुनिक इंसान के भीतर जाग उठे दरिंदे की ओर इशारा करता था और इस बात की ताईद करता था कि सभ्यता का इतना लंबा सफर भी इस जंगलीपन को काबू नहीं कर पाया है, बल्कि इसने वहशीपन को ज्यादा मारक हथियार दे दिये हैं। लेकिन हकीकत यह नहीं है। अगर किसी जंगली को एके-47 थमा दें तो भी वह दर्जनों लोगों की जान नहीं लेगा। वह तभी कत्लेआम पर उतारू होगा, जब उसे अपनी जान पर खतरा दिखेगा। लेकिन जंगलियों से ब्रिविक की तुलना नहीं की जा सकती। अफसोस कि यह मॉडर्न इंसान की ही फितरत है कि वह विचारधारा के नाम पर बेशुमार कत्ल कर सकता है। पता नहीं आप सहमत हों या नहीं लेकिन विचारधारा इंसानियत की सबसे बड़ी ईजाद है- एटम बम से भी बड़ी और उससे ज्यादा जानलेवा। विचारधारा वह तेल है, जिससे इंसानियत की ट्रेन चलती है। हम अच्छे या बुरे जो भी हैं, इसी की वजह से हैं। विचारधारा हमें मकसद देती है, वह हमें जीना सिखाती है और मरने की ताकत देती है। वह हमें स्वर्ग और नरक देती है, वह हमें गुलामी और आजादी देती है, उनमें फर्क करने का तमीज देती है, हमें उस दुनिया को तरतीब देने का मौका देती है, जिसमें हम धकेल दिए गए हैं। भारत का बंटवारा यूरोप की उसी नफरत भरी विचारधारा का नतीजा था। आज भी आखिर क्या वजह है कि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन, जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल और फ्रांस के राष्ट्रपति निकोला सारकोजी बाहरी लोगों के महत्व को स्वीकार करते हुए भी यह कहने लगे हैं कि बहुसंस्कृतिवाद विफल हो रहा है।
लिहाजा इंसानियत के सामने सवाल यह है कि वे कौन सी कसौटियां हैं, जिन पर विचारधारा के बीच सही और गलत का फर्क किया जा सकता है? यह फैसला करना इसलिए जरूरी है कि हम सब कभी न कभी किसी विचार का साथ देते हैं और हमारे भीतर भी सही-गलत को चुनने की लड़ाई चलती है। भारत भी कई तरह की विचारधारा की जंग में उलझा है। धर्म के नाम पर, लाल क्रांति के नाम पर, जाति और पहचान के नाम पर या फिर देश के ही नाम पर कितनी ही लड़ाइयां चल रही हैं। क्या कोई फारमूला है, जो हमें सही विचारधारा चुनने में मदद करता है? जिन्होंने इतिहास पढ़ा होगा उन्हें मालूम होगा कि अबतक दुनिया की सबसे बड़ी आबादी को जिन विचारधाराओं ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया है वे वही हैं जो हिंसा को बढ़ावा नहीं देती थीं, प्यार और बराबरी की वकालत करती थीं , जन्नत के सपने नहीं दिखाती थीं और अतीत की नहीं भविष्य की बात करती थीं।
आज भी सभी विचारधाराएं इन चारों पैमानों में आंकी जा सकती हैं और आंकी भी जा रही हैं। यही वजह है कि सारी दुनिया में लगभग एक जैसे पैमानों पर चलने के एक जैसे तरीके ईजाद किए जा रहे हैं, जैसे लोकतंत्र, आजादी, भाईचारा, शांति और तरक्की। कोई विचारधारा एकदम सही नहीं होती, क्योंकि दुनिया का हिसाब-किताब और इंसान की फितरत इतनी उलझी हुई चीज है कि कोई एक फारमूला उसे पूरा-पूरा बयान नहीं कर पाता। जिस राह पर दुनिया चल रही है, उसमें भी कई खामियां हो सकती हैं और दिख भी रही हैं। लेकिन जो भी विचारधारा इसकी जगह लेने का दावा करेगी, उसे इससे बेहतर होना होगा। इस जहरीली हवा का असर भारत में भी हो सकता है इसलिये हमें सचेत रहने की जरूरत है।

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