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Saturday, August 27, 2011

अजेंडा सुशासन का होना चाहिये


हरिराम पाण्डेय
26 अगस्त 2011
ट्वीटर, फेसबुक और टीवी चैनलों की मानें तो अण्णा हजारे ग्रेट हैं, शायद बापू की भी अपने जमाने में 'टी आर पी Ó इतनी ज्यादा नहीं थी। एक तरफ अण्णा की साफगोई और सादगी पर सब मर-मिटे हैं लेकिन दूसरी तरफ गिरावट की इंतहा देखिए। पिछले 64 सालों में हमारे राजनीतिज्ञों की जितनी मिट्टी पलीद अब हुई है, कभी इससे पहले नहीं हुई। सच तो यह है कि अण्णा की सफलता का सबसे बड़ा कारण ही यह है कि लोग अब राजनीतिज्ञों को हिकारत की नजर से देख रहे हैं। पिछले कुछ समय से देश में जितने घोटाले हुए हैं, उन्होंने राजनीतिज्ञों की साख को सबसे नीचे पहुंचा दिया है। अरबों-करोड़ों के घोटाले बर्दाश्त कर चुके देश के लोग अब ऐसे नेताओं से मुक्ति मांगने लगे हैं। अण्णा के पीछे दीवानगी का यह आलम उसी मुक्ति की चाह का एक सबूत है। यही वजह है कि जन लोकपाल बिल से भले ही कुछ लोगों को ज्यादा उम्मीदें नहीं हों, लोग यह भी मानते हों कि सिर्फ एक कानून से ही 'हिंदोस्तां सारे जहां से अच्छाÓ नहीं हो जाएगा। रातों-रात व्यवस्थाएं नहीं बदला करतीं और सिर्फ कानून के बल पर समाज नहीं सुधर जाते। ऐसा होता तो दहेज की प्रथा कब से खत्म हो चुकी होती लेकिन अण्णा को जिस तरह लोगों ने सिर-आंखों पर बिठाया है, वह राजनीतिज्ञों के लिए एक बड़ी चुनौती है। 'सब चलता हैÓ की जगह 'बस, अब और नहींÓ की चेतावनी को समझना होगा। लेकिन गुरुवार को प्रधानमंत्री ने सदन में कहा कि अण्णा के प्रस्तावित बिल पर संसद में बहस करायी जाएगी। हमें नहीं पता कि स्थायी समिति किस बिल पर विचार करेगी। यह भी नहीं पता कि संसद में बिल के विभिन्न प्रारूपों पर बहस के बाद क्या होगा, क्या फिर कोई नया बिल बनेगा? क्या उस पर संसदीय समिति बहस करेगी? अगर टीम अण्णा के मनचाहे रूप में वह बिल पास नहीं हुआ तो इस आंदोलन का रूप क्या होगा? इन सवालों के जवाब किसी के पास नहीं है। सत्तापक्ष हो या विपक्ष, सभी मौके की आंच पर मतलब की रोटी सेंकते रहे लेकिन घोटालों के खिलाफ ठोस नतीजे सिफर रहे। ऐसे नाजुक समय में जब लोगों ने देखा कि 74 बरस का एक बूढ़ा खुद को भूखा रख कर नतीजे पाने के रास्ते गढऩे की कोशिश कर रहा है, तो खाने-पकाने वालों के खिलाफ देश की जनता दौड़ पड़ी। यह आंदोलन वैसा ही है जैसा 74 का जेपी मूवमेंट था, यह समझने की चूक हमें नहीं करनी चाहिए। जेपी की संपूर्ण क्रांति सीधे-सीधे सत्ता परिवर्तन की मांग पर टिकी थी। कहा जा सकता है कि उसका ध्येय वही था, जबकि अण्णा का आंदोलन भ्रष्टाचार को खत्म करने की बात कर रहा है। गौर करें कि भ्रष्टाचार का मुद्दा अकेले कानून की जिम्मेदारी नहीं है। न ही जन लोकपाल विधेयक जैसे किसी बिल के लागू होने मात्र से यह खत्म हो जाएगा। बल्कि इसके लिए लंबे संघर्ष की जरूरत है। हर आदमी अगर खुद के भीतर बैठे भ्रष्टाचार को खत्म करे, तभी यह खत्म हो सकता है। इसलिये जरूरत है सुशासन की।

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