हरिराम पाण्डेय
28 अगस्त 2011
अण्णा हजारे ने अनशन तोड़ दिया। रामलीला मैदान में जश्न का माहौल दिखा। शनिवार की रात भारत की संसद ने अण्णा हजारे और उनकी टीम के सदस्यों की मांगें मान लीं और प्रस्ताव को स्थायी समिति को सौंपे जाने का निर्णय लिया गया। रात से कोलकाता में भी पटाखे चल रहे हैं और लाउड स्पीकरों पर देशभक्ति की धुनें बजायी जा रहीं हैं। जश्न कुछ है मानों करप्शन खत्म करने का सरकार ने अण्णा के कहने पर बंदोबस्त कर दिया है। अण्णा हजारे के पुण्य प्रताप से भारत देश की संसद ने ऐसा लोकपाल बिल बनाने की ठानी है, जो देश में ईमानदारी की रोशनी फैला देगा। उम्मीद करनी चाहिए, उम्मीद से सपने पूरे होते हैं। लेकिन उस छोटे करप्शन का क्या, जो आप-हम भी कर लेते हैं या कभी किया होता है? अब यह हो सकता है कि इसे करप्शन माना ही न जाए या फिर इतनी मामूली बात मानी जाए कि ऐतराज करना भी टुच्चापन लगे। आप दलील दे सकते हैं, करप्शन तो दरअसल वही है जो हमारे लीडर कर रहे हैं - लाखों-अरबों के घोटाले, हिंदुस्तान को चूना तो उन्हीं से लग रहा है।
सवाल उठता है, अण्णा हजारे के साथ जुड़े लाखों लोगों में से कितने इस तरह की राय रखते होंगे? या यह अलौकिक बात भी हो सकती है कि उन्हें इस तरह की दलीलों की जरूरत हो ही नहीं, क्योंकि वे सभी करप्शन से अछूते हों। यह सुखद कल्पना किसी भी चमत्कार की तरह शक के काबिल लगती है। बिना किसी जोखिम में पड़े इतना कहा जा सकता है कि उस भीड़ में ऐसे लोग भी होंगे ही, जो छोटे वाले करप्शन में पार्टी रहे हों। बदकिस्मती से इन दोनों के बीच एक फर्क है और वह यह कि बड़े करप्शन को तो लोकपाल या जन लोकपाल का डंडा दिखाया जा सकता है, लेकिन छोटे करप्शन को डराना बेहद मुश्किल है। कायदे और सिस्टम उसे मात नहीं दे पाते, क्योंकि वह अनगिनत सुराखों से गुजर सकता है। इसके साथ ही अण्णा के आंदोलन ने एक बड़ा सामाजिक बदलाव किया है। उनके आंदोलन ने कुछ और बदलाव किया हो या नहीं, उत्सव और आंदोलन के बीच के अंतर को मिटा दिया है। उनके अभियान में शरीक लोगों के हाथ में तिरंगा, होठों पर वंदेमातरम् और विचारों में राजनीति के प्रति एक अगंभीर किस्म की वितृष्णा महसूस की जा सकती थी। सभी नहीं तो इनमें से बहुत सारे वो लोग भी हैं जो आम तौर पर राजनीतिक विरोध प्रदर्शनों पर नाक भौं सिकोड़ते हैं और कहते हैं कि हड़तालों और प्रदर्शनों पर पाबंदी लगा दी जानी चाहिए क्योंकि इससे लोगों को परेशानी का सामना करना पड़ता है। इस आंदोलन के समर्थकों में कॉरपोरेट कंपनियों में काम करने वाले लोग भी शामिल हैं जो सामाजिक मुद्दों पर सड़कों पर उतरना आम तौर पर अपनी तौहीन मानते हैं। अण्णा का आंदोलन भारतीय समाज में पिछले बीस वर्षों में आए बदलावों को प्रतिबिंबित करता है। अब जनांदोलनों को जन संगठन नहीं चलाते, सिविल सोसाइटी चलाती है। अब आंदोलन के लिए कंधे पर थैला टाँगे, चना-मूढ़ी खाकर दिन-रात लोगों को गोलबंद करने वाले कार्यकर्ता की शायद जरूरत नहीं रहेगी। ये काम इंटरनेट, ट्विटर और फेसबुक की मदद से एनजीओ कर रहे हैं। पर्यावरण से लेकर समलैंगिकों के अधिकारों तक और दलित जागरण से लेकर कलाओं के संरक्षण तक - हर सामाजिक गोलबंदी के पीछे एनजीओ होते हैं। 'सिविल सोसाइटीÓ और जनसंगठन के द्वंद्व में फिलहाल जनसंगठन लहूलुहान चित पड़ा हुआ है और रामलीला मैदान में उसको दफन किए जाने का जश्न मनाया जा रहा है।
Wednesday, August 31, 2011
रामलीला मैदान में लहूलुहान जनसंगठन
Posted by pandeyhariram at 9:41 AM
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