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Wednesday, August 31, 2011

अंधे को अंधा नहीं कहते भाई


हरिराम पाण्डेय
31 अगस्त 2011
चर्चा है कि कुछ माननीय सांसद खुद को बुरा-भला कहने से नाराज हो गये हैं। सही बात है, अगर किसी अंधे को अंधा कहेंगे तो बुरा लगेगा ही, उसे सूरदास कहा जाता है। लेकिन यहां शंका कुछ और है। किरन बेदी, ओम पुरी और प्रशांत भूषण के खिलाफ तो ये नोटिस दे देंगे और जिद पर अड़े तो तीनों को माफी न मांगने पर 15 दिनों की जेल की सजा भी दे देंगे। लेकिन वह जनता जो सड़कों पर है और जिसने इनको चुना है वह इनको क्या कह रही है, क्या इनको पता है?
दरअसल बात यह है कि हमारे माननीय सांसदों में अपनी आलोचना सहने की क्षमता नहीं रही। कोई जबरदस्ती तो हो नहीं सकती कि आप संसद में एक-दूसरे को माननीय बोलते रहें तो हमें भी आपको माननीय बोलना पड़े भले ही किसी के खिलाफ करोड़ों के घोटाले का आरोप हो, किसी के खिलाफ कत्ल करवाने का और किसी के खिलाफ दंगे भड़काने का।
हमने मुश्किलों और उपद्रवों का एक लंबा दौर देखा। हमने अडिय़लपन, अभद्रता और दोनों ही पक्षों की ओर से अति आक्रामकता जैसी कुरूप प्रवृत्तियां भी देखीं। फासले मिटाने के लिए यह रवैया ठीक नहीं। एक आदर्श दुनिया में लोग विवेकसंगत होंगे और अपनी ताकत या स्थिति को दरकिनार कर उचित कदम उठाएंगे।
लेकिन इसके बावजूद मौजूदा हालात में उम्मीद की किरण देखी जा सकती है। वे शांतिपूर्ण रूप से सामने आए और शालीनता के साथ एक अधिक न्यायपूर्ण समाज की मांग की। यह हम सभी के लिए गौरव का क्षण है। अण्णा का आंदोलन सफल रहा है, लेकिन यदि हमारे बौद्धिक कुलीनों ने उनके आंदोलन का समर्थन किया होता तो उनकी स्थिति और मजबूत होती। इस आंदोलन के विरोध में सबसे ताकतवर दलील यह थी कि संसद की अवहेलना नहीं की जा सकती और न ही की जानी चाहिए। यकीनन, इसमें कोई संदेह नहीं कि संसद और संविधान का सम्मान किया जाना चाहिए। लेकिन इस तरह की संस्थाएं एक बुनियादी धारणा के आधार पर संचालित होती हैं और वह है जनता का विश्वास। यदि जनता का भरोसा डिग जाए तो ऐसी कोई संस्था संचालित नहीं हो सकती। हमें ऐसे प्रयास करने चाहिए कि संसद में जनता का भरोसा पुन: स्थापित हो।
भारत के राजनेता और खासतौर पर भारत की सरकार भरोसे के इसी संकट से जूझ रही है। जनता अब सरकार पर भरोसा नहीं करती। सरकार के बयानों से हालात और बदतर हो गए हैं। सरकार लगातार कहती है कि भ्रष्टाचार की समस्या से निजात पाना जरूरी है, लेकिन वह खुद इसके लिए लगभग कुछ नहीं करती। हमारे राजनेताओं ने अपने रवैये की यह कीमत चुकायी है कि अब लोग उन पर भरोसा नहीं करते। जनता का विश्वास जीते बिना नियमों का हवाला देने से कुछ नहीं होगा।

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