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Thursday, June 23, 2016

फूट डालो और राज करो

यह कहावत भारत में अंग्रेजों के लिये मशहूर है और लोग कहते हैं कि इसी के कारण उन्होंने भारत पर राज किया और जाते जाते देश को टुकड़े कर गये। यह सच भी है। अगर आप इतिहास की वीथियों में थोड़ी दूर तक जायेंगे तो इस बात के पुख्ता प्रमाण भी मिल जायेंगे। इतिहास के गलियारों में जाने के पहले यहां यह बता देना जरूरी है कि आजाद भारत में भी शायद ही कोई ऐसा दौर रहा है जिसमें राजनीतिक दलों ने साम्प्रदायिकता का इस्तेमाल ना किया हो। भारत में साम्प्रदायिकता की आग को भड़काने का पहला प्रमाण 14 सितम्बर 1857 को  अवध के कमिशनर का फोर्ट विलियम कोलकाता को लिखा गया पत्र है। अवध के कमिशनर ने लिखा था कि , ‘उन्होंने बरेली में मुसलमानों के मुकाबले हिंदू आबादी को बढ़ाने के लिये 50 हजार रुपये की मंजूरी दी​ थी , लेकिन इससे कोई लाभ ना मिला इसलिये इसे रोक दिया गया।’ यह तो एक उदाहरण है और अगर देखें तो इसके कई उदाहरण मिल जायेंगे। अंग्रेजों के खौफ का कारण था कि 1857 के गदर में हिंदू और मुस्लिम समुदाय ने कंधे से कंधा मिला कर अंग्रेजों से लड़ा था ओर इस्ट इंडिया कम्पनी को भारत का साम्राज्य ब्रिटिश क्राउन के लिये छोड़ना पड़ा था। ब्रिटिश साम्राज्य ने आरंभ से ही इस एकता को भंग करना शुरू कर दिया। 1857 में तो उनके मंसूबे कामयाब नहीं हो सके पर 90 साल के बाद उन्होंने इसी आधार पर भारत को टुकड़े कर दिया।

इस राज को क्या जाने साहिल के तमाशायी

हम डूब के समझे हैं दरिया तेरी गहरायी

इसके बाद से अभी तक देखा जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में या देश में अन्य किसी भी जगह शासन में बने रहने के लिये या सत्ता में आने के लिये साम्पदायवाद का हथकंडा राजनीतिक पार्टियां अपनाती हैं। चाहे वह मेरठ हो या मुजफ्फरनगर , कैराना हो या दादरी सब जगह मूल में एक ही बात नजर आती है और पक्ष एवं विपक्ष दोनों इसे बनाये रखने के लिये हेनरिक गोयबल्स का फारमूला अपनाते हैं कि ‘एक झूठ को सौ बार बोलो तो वह सच हो जाता है।’ मामूली खुसफुसाहट से शुरू हुई बात धीरे धीरे बवंडर हो जाती है और दंगों का सबब हो जाती है। राजनीतिक नेता इस दंगे को अपनी अपनी तरफ से देखते हैं और उसके मायने निकालते हैं। वे मायने उनके स्वार्थी मंसूबों से लबालब होते हैं। चाहे वह दादरी का कत्ल हो या कैराना की भगदड़ सच्चाई कहीं नहीं होती और पूरी घटना अंदेशों के कारण घटती है।

मुहब्बत करने वालों मे ये झगड़ा डाल देती है

सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है

इन दिनों कैराना की घटना गर्म है। सोशल मीडिया इसे और भड़का रही है। यहां से हिंदुओं के पलायन की तुलना कश्मीरी पंडितों की भगदड़ से की जा रही है। कुछ संगठन यहां हिंदुओं की हिफाजत की मांग उठा रहे हैं। यह तो उपर वाले का शुक्र है कि कुछ लोगों ने वहां जाकर ाटना की जांच की और पूरी बात को सत्य से परे पाया। दरअसल यहां से कुछ लोग नौकरी चाकरी या पढ़ाई या अन्य रोजगार के लिये बाहर गये जैसा कि अक्सर छोटी जगहों में होता है, और इसे ही पलायन का नाम दे दिया गया। वहां हालात ना बिगड़े इसलिये हिंदू और मुस्लिम धार्मिक नेता एक साथ प्रयास में लगे हैं। लेकिन सोचने की बात है कि ऐसा होता क्यों है। आने वाले दिन उत्तहर प्रदेश में चुनाव के दिन होंगे और इस दौरान तो बहुत आशंका है कि पूरे प्रांत में साम्प्रदायिक तनाव हो। क्योंकि ऐसी स्थिति पैदा करने के लिये सभी पार्टियों की तरफ से करोड़ो रुपये फूंके जायेंगे। सोचिये कि हमें अपने ही​ देशवासियों के खून से नहाने कि लिये ये राजनीतिज्ञ उकसायेंगे।

तवायफ की तरह अपने गलत कामों के चेहरे पर

हुकूमत मंदिर और मस्जिद का पर्दा डाल देती है

प्रश्न है कि क्या लोग इसके ​शिकार होंगे? जो लोग इसके लिये भाजपा पर दोष मढ़ते हैं वे खुद कुशासन, घृणित साम्प्रदायिकता ओर आपराधिकता में लिप्त हैं। विकल्पहीनता की स्थिति है और आने वाला समय बतायेगा कि क्या होगा, लेकिन अगर हमें अपने समाहज को बचाना है और अपने बच्चों को एक सुरक्षित भविष्य मुहय्या कराना है तो तय कर लें कि हमलोग इसके झांसे में नहीं आयेंगे। सामाजिक तौर पर हम हर्गिज विभाजित नहीं होगे। सामाजिक संकल्प ही देश को बचा सकता है।  

ये जब्र भी देखे हैं तारीख की नजरों ने

लम्हों ने खता की थी सदियों ने सजा पायी

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