ब्रक्जिट जैसा जनमत संग्रह न केवल इंगलैंड के लिये खराब साबित हुआ है बल्कि आदिम युग में यूनान और अथेंस के लिये भी हानिकारक रहा है। अथेंसवासियों के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने ही सबसे पहले प्रत्यक्ष मतदान का चलन शुरु किया था। लेकिन वे लोग प्रत्यक्ष मतदान का हक केवल पुरुषों को ही दिया करते थे। महिलाओं और गुलामों को इसका हक नहीं था। उस समय के आलोचकों का मानना था कि इसमें केवल बड़े लोगों की ही चलती थी। ये लोग अच्छे वक्ताओं के जाल में या भावनाओं क्र प्रवाह में उचित मतदान ना कर उस समय के रौ में मतदान कर डालते थे। ऐसा ही इंगलैंड में हुआ। वहां ब्रिटेन को अलग किये जाने वाले समूह अपने नेताओं के तीव्र प्रभाव में देखे गये थे। ब्रिटिश विद्वान भारतीय लोकतंत्र को संस्कृति उन्मुख कहते हैं औंऱ् अपने देश की लोकतंत्र को शिक्षा उमुख। उनकी दलील है कि संस्कृति उन्मुख समाज भावुकता में बह जाता है जबनि ज्ञानोन्मुख समाज तर्कों का सहारा लेता है। पर ब्रक्जिट के मामले में उल्टा होता देखा गया है। वहां दुबारा जनमत संग्रह की बात की जा रही है। भारत में आखिरी जनमत संग्रह 1947 में हुआ था। वह था जूनागढ़ रियासत को भारत राज्य में शामिल किये जाने के मामले पर। जूनागढ़ के नवाब पाकिस्तान में जाना चाहते थे जबकि वहां की हिंदू बहुल जनता भारत में रहना चाहती थी। सरदार वल्लभ भाई पटेल ने जनमत संग्रह के जरिये मामला सुलझाया और 99 पतिशत भारत में रहने के पक्ष में मिले। तीन साल के बाद भारत कांविधान लागू हुआ और इसके बाद यहां की जनता को व्यस्क मताधिकार प्राप्त हुआ और इसके बाद जनमत संग्रह की जरूरत ही नहीं रह गयी। कुछ लोग कश्मीर के मामले में जनमत संग्रह की बात करते हैं और वे स्वीट्जर लैंड, ब्रिटेन और स्कॉटलैंड का उदाहरण देते हैं। लेकिन उन्हें शायद यह माहलूम नहीं है कि वहां के समाज और हमारे समाज में भारी अंतर है। हमारे यहां बहुजातीय समाज है और बहुदलीय प्रणाली है। ऐसे में कैसे यह तय हो सकता है कि कौन सा मसला सबके लिये महत्वपूर्ण है। इंगलैंड में केवल चार राजनीतिक दल हैं जबकि भारत में चुनाव आयोग द्वारा स्वीकृत 6 राष्ट्रीय दल और 49 क्षेत्रीय दल हैं। आज भारत में ब्रक्जिट के जनमतसंग्रह की भारी चर्चा है। एक एक मतों का विश्लेषण और उनके प्रभावों का आकलन चल रहा है पर यहां यह बता देना या कहें कि चेता देना जरूरी है कि भारत में ऐसा नहीं हो सकता है। ब्रिटेन के यूरोपियन यूनियन में शामिल रहनने ओर उसे छोड़ने के मामले पर काफी जानकारियां एकत्र की गयीं थीं। आवासीय और प्रवासी लोगों के आंकड़े, उनपर प्रभाव, अर्थ व्यवस्था पर प्रभाव इत्यादि से जुड़े ढेर सारे विंदुओं के बारे विस्तृत जानकारी, अलग होने और शामिल होने के फायदे और नुकसान इत्यादि पर विशद सूचना इत्यादि जनता को मुहय्या करायी गयी थी। इन सूचनाऔं के आधार पर लोगों ने अपने मत दिये या नहीं यह जानना मुमकिन नहीं है पर उन्हें सारी सूचना उपलब्ध थी। पर वह देश जहां राष्ट्रीय चैनलों पर फर्जी बहसों के इीडियो दिखाये जाते हैं, फर्जी मुठभेड़ों को फर्जी दस्तखतों के जरिये सच बताया जाता है , सूचनाएं गढ़ी जातीं हैं वहां राजनीतिक स्वार्थ के बगैर हकीकत हासिल हो सकती है क्या? टेलीविजन पर घटिया और राजनीति प्रभावित बहसें जो खुद में जनमत संग्रह की तरह होतीं हैं उनके आधार पर कैसे रेफररेंडम लिया जा सकता है? इंगलैंड में जो हुआ प्रधानमंत्री डेविड कैमरून वह नहीं चाहते थे फिर भी उन्होंने यह मसला जनमत संग्रह के लिये पेश किया और यूरोपियन यूनियन से बाहर निकलने को बहुमत प्राप्त हुआ। कैमरून हार गये और इसके फलस्वरूप उन्होंने पद छोड़ दिया। भारत जैसे देश में जहां हर वक्त अल्पसंख्यकों के हितों की बात होती है वैसे एक मुद्दे वाली सियासत ज्यादा हानिकारक हो सकती है। कल्पना करें कि यदि उत्तर प्रदेश में हिंदू पहचान को सामने रख कर जनमत संग्रह हो तो कौन सी पार्टी जीतेगी यह बताने की जरूरत नहीं है। भारत की गलाकाट सियासी प्रतिद्वंदिता इस मामले को और कठिन बनाती है। अतएव भारत जैसे देश जनमतसंग्रह की बात सोचना तक गलत है।
Monday, June 27, 2016
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