कितना अजीब लगता है जब कुछ ऐसी घटना होती है जिसके बारे में सोचना भी कठिन लगता था। कौन जानता था या किसको इसका अनुमान था कि 4 दशक के बाद इंगलैंड यूरोपीयन यूनियन से अलग हो जायेगा। उस र्सघ में शामिल अन्य देश जो ना केवल इंगलैंड की अर्थ व्यवस्था को मदद देते थे बल्कि समाज व्यवस्था ओर अन्य क्षेत्रो में भी सहायक थे। यही नहीं इंगलैंड की जनता अपने देश ओर दुनिया के अन्य भागों के अर्थशािस्त्रयों , अपनी सरकार और अन्य लोगों को अनसुना कर संघ से अलग होने के लिये वोट डालेगी और अकेले ही एक अज्ञात राह पर चल पड़ेगी। नतीजा क्या होगा यह तो आने वाला समय बतायेगा पर एक बार फिर इंगलैंड और उससे आर्थिक सम्बंध रखने वाले दुनिया के देश मंदी के महापंक में फंस जायेंगे। उसका सबसे पहला लक्षण 30 वर्षों में पौंड की कीमत में भारी गिरावट। इसका प्रतिफल होगा रोजगार का अभाव, आमदनी की कमी और सरकारी खर्चों में भारी कटौती। इसका असर दुनिया भर की अर्थ व्यवस्था पर पड़ सकता है। इसके अलावा जिस संघ ने संघबद्ध हो कर यूरोप और अन्य महादेशों में 5 दशक तक शांति कायम रखी आज वह छिन्न भिन्न हो गया। यह कोई निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता कि इंगलैंड को इससे अलग होने में कितना वक्त लगेगा। क्योंकि अभी सरहदें तय होंगी, राष्ट्रीयता का मसला छिड़ेगा और उसके राष्ट्रीय शौर्यभाव का बखेड़ा होगा। जैसा कश्मीर में भारत पाक के बीच चल रहा है। इन्हीं अंग्रेजों ने भारत को यह अभिशप्त स्थिति में लाकर खड़ा किया था आज वह इससे दो चार होने जा रहा है। अब यहां दो सवाल हैं जिनपर शायद कोई विचार नहीं कर रहा। वे सवाल हैं कि एक समाजाशास्त्री की निगाह में ब्रिटेन और यूरोप के लिये इस जनमत संग्रह के मायने क्या होंगे और अब आगे क्या होगा?
अगर गहराई से देखें तो ब्रिटेन के लिये इसका अर्थ है व्यवस्था पर गुस्सा। कैमरून से लेकर ओबामा तक, आई एम एफ से लेकर नाटो तक सबने ब्रिटेनवासियों से अपील की थी कि वे संघबद्ध रहें पर ब्रिटेनवासियों ने अलग होने के लिये वोट डाले। द टाइम्स अखबार के ‘मुताबिक ब्रिटेनवासियों ने यूरो क्षेत्र की भंगुर अर्थ व्यवस्था और ब्रुसेल्स में लाकतंत्र के छीजन से वे कुपित थे इसी ने साथ विदेशियों के अबाध प्रवाह के कारण आर्थिक स्त्रोतो की घटती उपलब्धता से भी वे क्रोध में थे।’ लेकिन शायद ऐसा नहीं है क्योंकि अगर वह यानी ब्रिटेन रोक लगाता है तो वह संघ के बदले एकाकी अर्थ व्यवस्था में बदल जायेगा। जिसका नतीजा और खराब होगा। यही नहीं प्रधानमंत्री डेविड कैमरुन में भी वह काबिलियत नजर नहीं आयी जो ऐसे संवेदनशील समय पर दिखनी चाहिये। उन्होंने अपनी क्षमता का आकलन किये बगैर जनमत संग्रह की वकालत शुरू कर दी यही नहीं उन्होंने एक असफल अभियान का संचालन किया और जब इंगलैंड को अलग होने का समय आया तो खुद सत्ता से मुक्त हो गये। अब सारी जिम्मेदारी एक नये प्रधानमंत्री पर आ गयी और वह कौन होगा इसका अनुमान नहीं है। लेकिन चाहे जो हो उसे संभवत: मुक्त बाजार व्यवस्था और प्रवासियों के आवागमन को बाधामुक्त करने की दिशा में काम करना होगा क्योंकि प्रवासी पूजी ही भारत की तरह ब्रिटिश अर्थ व्यवस्था को फलने फूलने में मददगार होगी। अगर यूरोपीयन यूनियन से लोग यहां नहीं आते हैं तो यहां शिक्षा और सेवा क्षेत्र में श्रमिकों का भारी अभाव हो जायेगा। इसलिये नये प्रधानमंत्री को बहुत संभल कर चलना होगा , क्योंकि जरा सी चूक उनपर देश को बेच देने का तोहमत चस्पां कर देने में मदद करेगी। इसलिये हरकदम पर उन्हें वोट डालने की बात आयेगी। यूरोपीय संघ में लोकतंत्र का मूल्य घटता देखा जा रहा है। नेता और अफसर जनता से दूर होते दिख रहे हैं। इसीलिये फ्रांस भी , जो कभी संघ का समर्थक था, संघ से विमुख होता नजर आ रहा है। वहां संघ से अलग होने के बारे में 38 प्रतिशत वोट पड़े। यह इंगलैंड से महज 6 प्रतिशत कम है। हर देश को अपनी तरह की पीड़ा है। कमजोर अर्थ व्यवस्था वाले देश जर्मनी और इटली लगातार दोष मढ़ रहे हैं। दुनिया भर केअखबारों में जनमत संग्रह के परिणामों का रोना है और सब कह रहे हैं कि ब्रिटेन अकेला पड़ा जायेगा। लेकिन सबसे बड़ी बात है कि अगर ब्रिटेन एक लघु यूरोप की शक्ल में कायम रहेगा तो यह उसके लिये दुखद होगा और अगर फिर बड़े यूरोप की परिकल्पना हुई तो इस जनमतसंग्रह में अलग होने वाले क्या हासिल कर पायेंगे। यह एक कठिन स्थिति और इस स्थिति भारतीय उपमहाद्वीप को सबक लेनी चाहिये और खासकर कश्मीर के मामले में। क्योंकि अलगाव एक संकट पैदा करता है।
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