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Wednesday, June 22, 2016

स्वामी का अगला शिकार

रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन की विदाई सुनिश्चित करने के बाद भाजपा नेता सुब्रमणियम स्वामी ने अगला निशाना सरकार के आर्थिक सलाहकार अरविंद स्वामी को बनाया है। उन्होने बुधवार को एक ट्वीट कर कहा कि वे भाजपा सरकार की आर्थिक नीतियों के अनुकूल नहीं हैं। उनका कहना है कि उन्होंने सरकार की नीतियों का अमरीका में में विरोध किया हे। अरविंद सुब्रमणियम को अक्टू बर 2014 में इस पद पर बहाल किया गया था। इसके पहले इस पर रघुराम राजन थे जिन्हें भारतीय रिजर्व बैंक का गवर्नर बना दिया गया था। राजन इस पद के लिये बेहतरीन अदिकारी थे और उन्होंने आर्थिक राजतनतिकरण के मुकाबले जनता के हितों पर ध्यान दिया ओर उसकी हिफाजत के लिये सचेष्ट थे।  उन्होंने बैंकों के डूब्पाते कर्जों और पोंजी स्कीम जैसे आर्थिक घोटालों पर अंकुश लगाने के लिये बहुत बड़ा कम  किया। अरविंद सुब्रहमणियम ने हमेशा उनका समर्थन किया अनुकूल नीतियां बनाने की सलाह दी सरकार को। अब सवाल उठता है कि राजन जा रहे हैं और अरविंद के ​खिलाफ भी मोर्चा खोला जा चुका है। ऐसे में क्या भारत को दूसरा राजन यफा दूसरा अरविंद मिलेगा? भारत का समाज एक मिश्रित समुदाय है। एक तरफ जहां राजन र्जैसे लोगों की वाहवाही होती है वहीं दूसरी तरफ छोटे मामलों पर उबल पड़ते हैं। ऐसे देश में पूर्ण सुधार ओर समरसता लाने के लिये पूरे जीवन की जरूरत पड़ती है। अब राजन जा रहे हैं और अरविंद के खिलाफ बात निकली है तो वह भी दूर तलक जायेगी। ऐसी बात नहीं है कि भारत में प्रतिभाओं का अकाल है। लेकिन यहां सवाल है कि हम ऐसी व्यवस्था बनाते ही क्यों हैं जिसमें सुधार ना हो। क्यों नहीं अच्छे कार्यों को जारी रहने दिया जाता है। राजन के जाने के बाद सरकार दरअसल  अपनी वही राजनीतिक उठापटक जारी रखेगी जिसमें अर्थव्यवस्था की खस्ता हाली का कारण दूसरों पर थोपने की कोशिशें होती हैं। सच्चाई तो यह है आने वाली छमाही देश की अर्थव्यवस्था के लिये तूफानी दिन होंगे। आज ब्रक्सिट पर मतदान होने वाला है। अगर उसके मुखलिफ विजयी होते हैं तो अंतरराष्ट्रीय अर्थ व्यवस्था में तूफान आ जायेगा। लेकिन लगता नहीं हे कि ऐसा हो पायेगा क्योंकि ब्रिटिश भारत की तरह आंख मूंद कर वोट नहीं देती। अगर ब्रक्सिट को छोड़ भी दें तब भी संकट के आसार नजर आ रहे हैं।दुनिया में आर्थिक संरक्षणवाद बढ़ रहा है और साथ ही भगौलिक राजनीतिक हालात भी तेजी से बिगड़ रहे हैं। इससे भारत से बाहर पूंजी के पलायन की पूरी आशंका है और दूसरी तरफ अमरीकी​ फडरल रिजर्व द्वारा लगाम कसने से भारत में विदेशी मुद्रा कोष  में गिरावट आयेगी। इससे भारत के बाहर पूंजी पलायन के कारण आर्थिक सुनामी का खतरा पैदा हो जायेगा। इस स्थिति में एक ही अच्छी बात दिख रही है कि तेल की कीमतें कम ही रहेंगी लेकिन इस कम कीमत का खाड़ी के देशों की अर्थ व्यवस्था पर दुष्प्रबाव पड़ेगा लिहाजा निर्यात घटेगा और भारत में आने वाली विदेशी मुद्र्रा का प्रवाह भी कम होगा। क्योंकि विदेशी मुद्रा का बहुत बड़ा भाग खाड़ी के देशों में भारतीय मजदूरों के पैसों का है वे वहां सरोजगार से अलग हो रहे हैं भारत लौट रहे हैं। इससे भारत में बेरोजगारी का अनुपात भी बढ़ सकता है। विकास की धीमी दर और अगले साल देश के सबसे राज्य उत्तर प्रदेश के चुनाव तथा उसके दो वर्ष बाद लोकसभा चुनाव के कारण देश की अर्थ व्यवस्था पर भारी दबाव पड़े सकता है और इससे मौद्रिक अनुशासन गड़बड़ हो सकता है। ऐसे में हमें एक ऐसे विशेषज्ञ की जरूरत है जिसमें सियासी चातुरी भी हो और वह भारत की नब्ज को पहचानता हो।  सरकार के रुख को देख कर यह अनुमान लगाना सरल है कि आने वाले दिनों में लोक लुभावन आर्थिक कार्यक्रम आरंभ होंगे  और इसमें पूंजी डूबने के लिये जो छोलदारियां खडी की जाएंगी वे नाकाम होंगी और बाड़ ही खेत को खाते दिखेंगे। मुद्रास्फीति बढ़ सकती है और इससे एक बार फिर महंगाई को बल मिलेगा। यह तो तय है कि अब जो भी इन पदों पर आयेगा वह राजनीतिक समझौता करने के लिये बाध्य होगा। भारत में हर राजनीतिक कदम में अर्थ व्यवस्था जुड़ी होती है। इससे क्या होगा यह अभी से कहना कठिन है पर अर्थ व्यवस्था के लिये परेशानी भरे दिन आने वाले हैं इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है।

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