राहुल के बयान से मिलते संकेत
कामयाबी के जोम में हमारी सेना असैनिक जीवन से बाहर निकल आयी। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अपने विवादास्पद शब्दों से हो सकता है अपने क्षोभ को अभिव्यक्त किया हो। वैसे राहुल गांधी के काम काज अक्सर अजीब से गुमराह करने वाले होते हैं। कुछ लोग इसमें विद्याहीनता और अयोग्यता देखते हैं तो डसे मजा लेने वाला जुमला मान लेते हैं। चाहे वह ‘सूट बूट की सरकार’ वाली बात हो या ‘खून की दलाली ’ वाला जुमला। लेकिन कई बार ऐसे विवादों को किसी की सनक के रूप में नहीं बल्कि किसी गंभीर समस्या के तौर पर देखा जाना चाहिये। इसमें शक नहीं है कि राहुल गांधी ने जो कहा वह किसी घटिया हिंदी फिल्म के सिचुएशन डयलॉग की तरह था। लेकिन कई बार घटिया हिंदी फिल्में भी देश के मन की सामूहिक समस्या को भी प्रदर्शित करती है। राहुल गांधी ने हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को रयह कह कर लताड़ा कि वे हमारे वीर फौजियों के खून की तुलना सर्जिकल स्ट्राइक से कर रहे हैं। उन्होंने यह कहा कि मोदी शासन के प्रभाव को देश की संस्थाओं खास कर फौज के साथ कन्फ्यूज कर रहे हैं। लेकिन जिस तरह से राहुल गांधी ने यह बात कही वह सेना की ताकत नहीं थी बल्कि भारतीय राजनीति में सेना की भूमिका की बात थी। यही समस्या बन गयी। प्रतीक के तौर पर सेना लोकतंत्र का पहरुआ है या लोकतंत्र की हिफाज करने वाले तंत्रों का स्तम्भ है लेकिन सेना और आम जन का जीवन एक दूसरे पर आधारित नहीं होना चाहिये। पाकिस्तान सहित जिस देश में भी सेना और आमजन पारस्परिक आधारित हें वहां क्या हालात हैं यह किसी से छिपा नहीं है। सेना और आम जनमता एक दूसरे से पहले भी जुड़ी थी और नारा था ‘जय जवान ,जय किसान।’ मृत्युंजय कुमार सिंह का यह भोजपुरी गीत ‘तोहरे बलमुआ कप्तान हो सखि त हमरो सजनवा किसान’, भोजपुरी भाषियों में बेहद लोकप्रिय है। इन दिनों ये नारे पुराने पड़ गये हैं। राहुल गांधी ने इस शास्त्री काल के इस नारे को पेश करने की जगह कुछ ऐसा कह दिया जिससे बातें बिगड़ गयीं। आज की दुनिया अपेक्षा की दुनिया है एक चाह की दुनिया है। अब तो अपेक्षाएं सरकारी शदों में बदल ग्कायीं हैं। ऐसे में सेना की कामयाबी बहुत बड़ी नहीं कही जा सकती है। साथ ही ,अगर ऐसा होता है तो असैनिक जीवन या समाज के प्रति सेना का इगो बढ़ता जायेगा। यही नहीं सेना का क्षेत्र एक चुनौती भरा क्षेत्र है। एक जमाने में जब भारतीय समाज कृषि आधार से औद्योगिक आधार में बदल रहा था तो उसमय सेना एक बहुत बड़ी शैक्षणिक शक्ति थी आज उसका वह स्वरूप खत्म हो चुका है। सेना शौर्य का प्रतीक थी पर आज क्या है आप खुद देखें। राहुल गांधी शायद यही कहना चाह रहे हों। हो सकता है यह गलत हो पर इन दिनों भारतीय जनता पार्टी कुछ ऐसा प्रदर्शित कर रही है मानो वह युद्ध प्रिय है। इस मनोवृति से कम से कम ऐसा तो महसूस होने लगा है कि सेना कभी आदर्श थी आज उसके उस स्वरूप में कमी आ रही है। वरना क्या बात है कि कुछ लोगों का एक समुदाय घायल सैनिकों की तस्वीरें साेशल मीडिया पर डाल कर उसे जयहिंद करने की अपील कर रहा है। अबसे पहले तो एक फौजी के आगे देश यू ही श्रद्धवनत था।हिमें खोजना होगा कि किन कारणों से यह सामाजिक परिवर्तन हुआ। अगर समाज वैज्ञानिक नजरिये से देखें तो तकनीकी और संचार के विकास के बाद फौज अब एक नौकरी बन गयी है। बिम्बों और प्रतीकों की ताकत समाजवैज्ञानिक हकीकत को नहीं दबा सकती है। यह तो महसूस होने लगा है कि सेना अब वह करिश्माई प्रतीक नहीं रही। राहुल गांधी की गलती यह है कि उन्होंने नतीजों पर कुछ सोचे बिना बात कह डाली। वरना, अब से पहले भी सेना के विशेषधिकार कानून (आर्मी स्पेशल पावर एक्ट) पर कई बार बातें हुईं हैं। आज के जनरलों में करियप्पा या थिमैय्या या मानिक शॉ का करिश्मा दिखता है। सेतना को अपना वह स्वरूप हासिल करना होगा लेकिन इसके लिये राजनीतिक दृढ़ता जरूरी है औरर वह दृढ़ता ना कांग्रेस में थी और ना भाजपा में है। शहादत और कुर्बानी की बाते भावावेश को जन्म देतीं हैं। जब खून बहता है तो लोग आंसू बहा देते हैं और फिर भूल जाते हैं। शांति के लिये प्रयास नहीं होते। वैश्विक समाजिक परिवर्तनों ने इंसानी सोच में बदलाव ला दिया है और इससे छिछली राजनीति का विकास हुआ है। राहुल ने जो कहा वह एक पढ़े लिखे अज्ञानी की बात है पर साथ ही जो मूल समस्या है उसपर सोचना जरूरी है।
हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे
अभी आओ विचारें आज मिल कर
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