दीपावली का दर्शन
कल दीपावली है। देश भर में इसे दीप उत्सव के रूप में मानाया जायेगा। दीपावली हमारे ऋग्वैदिक काल के ऋषियों की परिकल्पना है। इसे चाहे जिस भी मिथक से जोड़ें लेकिन यह कर्म की प्रधानता की व्याख्या करता है। इसकी व्याख्या बिम्बों के तौर पर है।हरेक दीप एक इकाई है। उसका निर्माण मिट्टी से हुआ है। उसके अंक में तेल है और कपास की बाती। प्रकाश इकाई नहीं है। हो भी नहीं सकता। वह ढेर सारी किरणों का समुच्चय है। वह सात रंगों से रचा बसा है। लेकिन दीपक में ऐसा प्रकाश भी इकाई के रूप में उगता है, अनंत से आता है, अनंत की सूचना देता है। प्रकाश का यह स्रेत अजर-अमर और अक्षय है। काल उसे बूढ़ा नहीं करता। काल उसे मार भी नहीं सकता। प्रकाश विराट अक्षर है। तभी तो कृष्ण के विराट रूप का वर्णन करते हुए कहा गया- दिव्य सूर्य सहस्त्राणि।ज्योति कभी स्थिर नहीं रहती और वह माटी के दिये पर , कपास की बाती से जलती है। माटी यानी धरा, भौतिकता, कपास यानी कृषि से पोषण और लपलपाती दीपशिखा यानी जीवन की ऊर्जा जो लक्ष्मी है यानी धन है। कांपती दीपशिखा यानी चंचल स्वभाव। इसी समग्र दर्शन से हमारे देश में रुपया का चलन हुआ। रूप और या यानी लक्ष्मी का रूप। इसी रूप का बिमब हैं आज का रूपया। जिसका एक स्वरूप है और उसी स्वरूप के भीतर अव्यक्त और परोक्ष उर्जा समाहित है।रूप में यह कागज है, इस रूप के भीतर समस्त भौतिक वस्तुएं छुपी हैं। रुपया दो, जो पसंद है वह लो। रुपया बड़ा शक्तिशाली है। ऋग्वेद में मुद्रा को देवताओं जैसा शक्तिशाली बताया गया है। देवताओं की ताकत है- बहुरूपिया होना। रुपया भी बहरूपया है। धनतेरस और दीपावली लक्ष्मी आराधना का मुहूर्त है। लक्ष्मी धन की देवी हैं। वे ‘शुभ लाभ’ देती हैं। हमारा देश भारत है। भा यानी प्रकाश और रत यानी प्रकाश में संलग्न। हमारी राष्ट्रीय संस्कृति ही प्रकाशोन्मुख है। प्रकाश और अंधकार का संघर्ष सनातन है। इसीलिये अंधकार से प्रकाश में ले जाने की बात हमारे वैदिक ऋषियों ने की है। विज्ञान कहता है कि प्रकाश का अभाव है अंधकार। अंधेरे की अनुभूति के लिए किसी अध्यात्म शास्त्र या योग ध्यान की जरूरत नहीं होती। अंधेरा प्रत्यक्ष होता है। इसी लिये ,समाज के लिए. लेकिन प्रकाश स्थायी लब्धि नहीं बन पाया। स्वयं हमने ही प्रकाश की ओर से मुंह फेरा, अंधेरे को गले लगाया। अंधेरा बहुआयामी हुआ। चारो तरफ अंधेरा ही अंधेरा है। हमारे देव प्रकाशवाची होते हैं। इसलिये सूर्यदेव हैं और हम चांद को भी अर्घ्य देकर पूजते हैं क्योंकि चंद्रमा भी अंधकार से लड़ता है। अमावस्या की रात दीपावली का भी एक खास वैदिक महत्व है। दीपक अंधकार को पराजित करता है और उसी दिन से प्रकाश बढ़ने लकाता है। अंधकार पराजिमत होने लगता है। रोज अंधकार पिटता है। हर रात प्रकाश की विजय होती है। यह क्रम पूर्णिमा तक चलता है। हमारे अंदर अंधकार को पराजित करने की प्रेरणा देकर चांद धीरे से चला जाता है। एक पखवाड़े के लिये। फिर चांद आता है हमारे प्रयास को देखने। हर साल दिवाली हमारे प्रयास की सफलता का पर्व है। साल दर साल सफलता। सफलता ही लक्ष्मी है। लक्ष्मी जो कमल पर विराजती हैं। कमल यानी पंकज। पंक यानी अकर्मण्यता से अछूते रह कर कर्म करना और उससे धन की प्राप्ति ही तो लक्ष्मी का संकेत है। लक्ष्मी कोई देवी नहीं हैं दर्शन के अनुसार। उनके एक हाथ में धान्य जो धन है और दूसरे हाथ से निकलती मुद्राएं। मुद्रा खुद धन का प्रतीक है और धान्य परलोक में नहीं इसी लोक में होता है। लक्ष्म इसी लोक की देवी हैं। जहां-जहां तम वहां-वहां उसे पराजित करने के लिये दीप है। दीपोत्सव मनुष्य की कर्मशक्ति का गढ़ा तेजोमय प्रतीक है। प्रकाश ज्ञानदायी और समृद्धिदायी भी है। भारत इस रात केवल भूगोल नहीं होता, राज्यों का संघ नहीं होता। भारत इस रात ‘दिव्य दीपशिखा’ हो जाता है। घर, आंगन, तुलसी के चौबारे, गरीब किसान के दुवारे, खेत-खलिहान, नगर, गांव, मकान, दुकान, ऊपर-नीचे सब तरफ दीपशिखा। इसीलिए दीप पर्व स्वाभाविक ही लक्ष्मी-गणोश का मुहूर्त बना। दीप-उत्सव है अतिरिक्त आनंद का अतिरेक। संपूर्णता का केंद्र है उत्स। उत्सव इसी केंद्र का उफनाया आनंद है। पहले उत्सव की खबर ऋतु देती थी, अब उत्सव की खबर अखबारी विज्ञापन देते हैं। वस्तुएं उत्सव का विकल्प बनती है। बाजार में मादक क्रांति है। उत्सवी मानुष हलकान है। महंगाई आसमान पर है। लक्ष्मी समृद्धि की देवी हैं। हम उनके उपासक हैं। लेकिन गहन रूप में आहत् हैं। तमस् ने आवृत्त और आच्छादित कर लिया है।
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