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Friday, October 7, 2016

सपा का झगड़ा

सपा का झगड़ा

हाल के हफ्तों में उत्तर प्रदेश की सियासी खबरों में समाजवादी पार्टी  की नयी और पुरानी पीढ़ी के तीखे झगड़े छाये रहे। अलग अलग ढंग से उनके बारे में विश्लेषण आये। इसी बीच उड़ी हमला और भारत का सर्जिकल हमला भी हुआ इसलिये खबरें उतनी गर्म नहीं हो सकीं। पर उनकी सरगोशियों चालू रहीं। कुल मिला कर देखने में ऐसा लग रहा है कि यह एक परिवार की पार्टी है और इसमें पी्रढ़यों के बदलने से बदलाव का रहे हैं। मुलायम सिंह यादव ने इस पार्टी की स्थापना की।  अब मुलायम सिंह बूढ़े हो गये और पार्टी की लगाम अपने हाथ में रखने के लिये बेटे अखिलेश और बाप मुलायम में रस्साकशी चल रही है। उनके साथ हैं  चाचा शिवपाल तथा एक बाहरी तत्व अमर सिंह। इसके कारण अखिलेश कुछ कर नहीं पा रहे हैं। हालांकि वे पढ़े लिखे इंसानक हैं और चाहते हैं कि बुढ़ाये तथा भ्रष्ट लोगों के कब्जे से पार्टी निकल आये। सबको उम्मीद है कि मुलायम सिंह इस झगड़े को सुलझा लेंगे। लेकिन उन्होंने अपने भाई शिवपाल और अमर सिंह को ज्यादा  अधिकार दे दिये हैं जिससे अखिलेश शर्मिंदा महसूस कर रहे हैं। यह सारा मामला अजीब सा लग रहा है। क्योंकि 2017 के शुरू में ही चुनाव होने वाले हैं। और वहां प्रतियोगिता सत्तारूढ़ दल सपा और      भाजपा में है। इस सारे प्रकरण में दो मसले बहुत महत्वपूर्ण लग रहे हैं और जिनपर विचार जरूरी है। पहला कि पार्टी की भीतरी लड़ाई का इसके राजनीतिज्ञ भविष्य पर  असर पड़ेगा। यह झगड़े का अगर मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया जाय तो पता चलेगा कि उत्तर प्रदेश में पार्टीगत राजनीति का पराभव हो रहा है और सत्ता के लिये झगड़े बढ़ रहे हैं जिससे हमारे लोकतंत्र का काम काज प्रभावित होगा। समाजवादी पार्टी के साथ जो सबसे बड़ी समस्या है वह है कि तीन तीन बार चुनाव जीतने और सरकार बनाने के बावजूद उसका वैचारिक और सामाजिक आधार गंभीर संकट में है। पार्टी के पास राजनीति के लिये तीन सामाजिक अाधार हैं। पहला समाजवादी आधार जो राममनोहर लोहिया ने तैयार किया था , दूसरा हरित क्रांति के उपरांत चरण सिंह द्वारा तैयार कृषक आधार तथा तीसरा 1960 के दशक से राज्य में व्याप्त पिछझ्ड़ी जाति से जुड़ी राजनीति। लेकिन उत्तर प्रदेश सामाजिक , आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर  बहुत तेज बदलाव आये और पार्टी इसके साथ अपने को नहीं बदल सकी। मुलायम सिंह ने पार्टी का नाम समाजवादी पार्टी रखा पर उसका समाजवादी आधार डांवाडोल होता गया और 1980 के दशक में यह अचानक शिनाख्त की राजनीति के झगड़े में जा फंसी। चरण सिंह की मृत्यु तथा आर्थिक कारणों के फलस्वरूप उत्तर प्रदेश में कृषक राजनीति अप्रभावी हो गयी। उत्तर प्रदेश में शिक्षा का निचले स्तर पर विकास , तेज शहरीकरण और साथ ही संचार साधनों के व्यापक विकास के फलस्वरूप वहां जाति- उपजाति , अमीर- गरीब और शहरी-ग्रामीण विवाद बढ़ता गया। नतीजा यह हुआ कि जो थोड़े अमीर थे वे भाजपा की ओर चले गये और गरीब तथा दलित बसपा के साथ आ गये। नतीजा हुआ कि भाजपा तथा बसपा भी सत्ता में आयी। सपा यादवों की पार्टी बन कर रह गयी। दो बातों ने सपा के खिलाफ वातावरण बनाया। वह थीं बाबरी मस्जिद कांड के बाद सपा का मुस्लमानों के साथ होना उसके लिये जहां लाभदायक हुआ वहीं  मुज्जफरनगर दंगे को काबू करने में सपा की नाकामयाबी ने उसे मुस्लिम मतदाताओं से काट दिया। दूसरे कि अखिलेश ने सपा और अपराधियों की सांठ र्गाठ को खत्म करने का प्रयास किया ताकि पार्टी की साख बढ़े लेकिन पुराने नेताओं ने इसका विरोध किया जो जनता के सामने आ गया। अंदरूनी झगड़ों के कारण पार्टी ने अपना चुनाव अभियान आरंभ नहीं किया है पर प्रतिपक्ष ने अपना अभियान आरंभ कर दिया है। इस झगड़े का सबसे ज्यादा लाभ भाजपा और बसपा को मिलेगा और सबसे ज्यादा हानि भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली को होगी।

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