हमारी शिक्षा प्रणाली : एक कपट तंत्र
जब परीक्षाओं के परिणाम घोषित होते हैं, खास कर माध्यमिक और अच्च माध्यमिक परीक्षाओं के नतीजे घोषित होते हैं तो अखबारों में सफल छात्रो- छात्राओं की तस्वीरे प्रकाशित होती हैं। उनके सपनों के बारे में पूछा जाता है। कोई डाक्टर बनना चाहता है कोई इंजीनियर बनना चाहता है। आंखों में एक सपना और उस सपने पीछे छिपा भय, होठों में भंगुर मुस्कान। डाक्टर का सपना, इंजीनियर का सपना, आई ए एस , आई पी एस का सपना और ना जाने कितने सपने। ये सपने शोषण और दरिद्रता के शाश्वत चक्र से निकलने की अकुलहट के प्रति हमें आश्वस्त करते हैं। लेकिन हमारी शिक्षा प्रणाली बच्चों की प्रतिभा का सही आकलन नहीं कर पाती और ना उचित प्रतिदान दे पाती है। जब हम छात्रों की नाकामयाबी और निराशा के कारण होने वाली घटनाओं के आंकड़े देखते हैं तो मन विगलित हो जाता है। हमारी मेनस्ट्रीम शिक्षा व्यवस्था में अनेक खामियां हैं। वे खामियां हमारे नीति निधारकों की कपट पूर्ण चालों के कारण पैदा होती हैं। ढेर सारे बच्चे नाकामयाब होते हैं। इसका कारण यह नहीं कि वे बच्चे अशक्त हैं या पढ़ने लिखने से दिल चुराते हैं। कारण यह है कि हमारी शिक्षा प्रणाली इनकी प्रतिभा या क्षमता का सही मूल्यांकन नहीं कर पाती। अब मेडिकल की पढ़ाई की ही बात करें। यह एक भला पेशा है, नेकी के अवसर हैं। मेडिकल अलावा भी कई अच्छे संकाय हैं जहां शिक्षण होता है। किंतु क्या वहां हर कोई शिक्षा ग्रहण कर सकता है या डॉक्टर बन सकता है। डॉक्टर या इंजीनियरी की कोशिश से तभी सफल हो सकता है जब सम्बद्ध संस्थान में उसका नाम लिखा जाय। इस नामांकन कि लिये कितने पापड़ बेलने पड़े हैं यह तो वही जानता होगा जो इसकी जद में आया होगा। यहां जो कहने का मतलब है वह है कि इन सब संस्थानों में सीटें सीमित हैं और बच्चों की एक बड़ी संख्या इसमें प्रवेश का स्वप्न लिये घूमती रहती है। आंकड़े बताते हैं कि गत वर्ष एन ई एॡ् टी परीक्षा में 7 लाख से ज्यादा बच्चे शिमिल हुये । इनमें महज 3 हजार पांच सौ पचहत्तर बच्चे ही पास कर पाये। अब उनमें बहुत से बच्चे बेहद संवेदन शील रहे होंगे और वे अपने सपनों के बोझ से दबे सिसक रहे होंगे। यहां सभी मेडिकल कालेज सरकारी हैं और प्राइवेट मेडिकल कालेजों में 70-80 लाख रुपये डोनेशन देकर अपने बच्चों की औकात है क्या? यही कहानी इंजीनियरिंग कालेजों के साथ भी है। आई आई टी के 10 हजार सीटों के लिये लाखों छात्र परीक्षाओं में बैठते हैं। इन संस्थानों में नामांकन के सपने दिखाने वाले कई कोचिंग संस्थान हैं। ये सपने बुनने के कारखाने हैं। े कोचिंग संस्थान लाखों छात्रों की क्षमता को बाधित कर रहे हैं। केवल कोटा में ही लगभग एक लाख छात्र इन कॉलेजों में नामांकन की तैयारी के नाम पर लाखों रुपये गवां रहे हैं। अब ऐसे में उन साधनहीन बच्चों के सपनों का क्या हश्र होगा जो मेडिकल या इंजीनियरिंग की परीक्षा की तैयारी के लिये कालेज की पढ़ाई का सिलसिला रोक सकते हैं या काहेचिंग के लिये रुपया पानी की तरह बहा सकते हैं। अखबारो में छपी उन बच्चों की तस्वीर देख कर हम उनकी प्रशंसा कर सकते हैं, उनमें से अगर कुछ को जानते हों तो उनकी पीठ टोंक सकते हैं पर यह भी जानते हैं कि उनममें सैकड़ों मेधावी बच्चे होंगे जो निहायत साधनहीन होंगे और वे फकत सपने ही देख रहे होंगे बस। हम कहते हैं कि हमारा समाज प्रतिभा का सम्मान करता है पर यहां प्रतिभा को साबित करना सरल नहीं है। सच तो यह है कि साधनहीन बच्चों में से अधिकांश खास कर कन्यायें पढ़ाई छोड़ देने के लिये बाध्य हो जाती हैं। इस स्थिति को आप बढ़ती आबादी का दंड नहीं कह सकते हैं। यह दलील बहुत सही नहीं है। दरअसल हम अपने सभी बच्चों से कपटपूर्ण ढंग से निर्मित इस शिक्षा प्रणाली में बहुत अच्छा करने कु उम्मीद नहीं कर सकते। ऐसे में जरूरी है कि हम इस प्रणाली पर उंगली उठायें, इसके प्र्रति सवाल उठायें। यह कितना बड़ा फरेब है कि बेहद मशहूर संस्थान खुद का गौरव बढ़ाने के लिये सीटों का छद्म अभाव पैदा करते हैं। ऐसे हमारे कुल छात्रों में से आधे भी साइंस की पढ़ाई को आगे नहीं बढ़ा सकते हैं। साथ ही अच्छे संस्थानों का अभाव अलग। यहां सवाल आई आई टी या आई आई एम की कम संख्या का मसला नहीं है मसला है कि उनके विकल्प क्या हैं जिनमें से बच्चे खुद चयन कर लें। शिक्षा को हमारे देश में ब्रैंड बिजनेस बनाया दिया गया है। यही नहीं शिक्षा का उद्देश्य बदल दिया गया है। शिक्षा का अर्थ आंकड़े याद करना नहीं है बल्कि ज्ञान हासिल करना। इन बड़े संस्थानों से निकले छात्र जरूरी नहीं कि ज्ञानी हों। अलबत्ता जो वहां दाखिले की जरूरत थी उसे उन्होंने पूरा जरूर किया है। यहां से आये छात्रों को मोटी तनख्वाह पर नौकरी जरूर मिल जाती थी। लेकिन यकीनन वे हमारे देश के सर्वाधिक रचनात्मक लोग नहीं हैं। ऐसे लोगों से हमारा देश भाड़े के श्रमिकों के देश के रूप में बदलता जा रहा है और शिक्षा व्यवस्था सामूहिक खपत की वस्तु। इस कपट पूर्ण ढंग से गढ़ी गयी शिक्षा प्रणाली से हमारे नौजवानों की एक बहुत बड़ी आबादी एक तरह से ठगी जा रही है।
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