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Sunday, July 26, 2020

युद्ध को चीन की धरती पर ले जाना जरूरी



युद्ध को चीन की धरती पर ले जाना जरूरी





अब से हजारों वर्ष पहले महाभारत का युद्ध हुआ था और उसमें कितनी जान हानि हुई थी इसके बारे में कोई गिनती नहीं है बस उस दिन से युद्ध हमारा गौरव का विषय हो गया। हमारे नेता हमारे सैनिकों को सीमा पर भेज के शहीद करते हैं और इसे देश की शान तथा लज्जा से जोड़ देते हैं।


जो आप तो लड़ता नहीं


कटवा किशोरों को मगर


आश्वस्त होकर सोचता है


शोणित बहा , लेकिन,


गई बच लाज सारे देश की


और तब सम्मान से जाते गिने


नाम उनके, देशमुख की लालिमा


है बची जिनके लुटे सिंदूर से


देश की इज्जत बचाने के लिए


या चढ़ा दिए जिसने निज लाल हैं


आज भारत का याद आ रहा है। लेकिन तब के युद्ध में और आज के युद्ध में बहुत बड़ा अंतर है। पिछले दिनों भारतीय सेना और चीन की सेना में पूर्वी लद्दाख में झड़प हो गई। हमारे 20 सैनिक शहीद हो गए। इसके बाद कूटनीतिक एवं सैन्य स्तरीय वार्ताएं चली और दोनों पक्ष उस इलाके से पीछे हटने पर सहमत हो गए। पर, चीन ने उस सहमति का सम्मान नहीं किया और बड़ी संख्या में उसकी फौज वहां कायम रही। ऐसे हालात में मीडिया को एक व्यवस्थित तरीके से उस क्षेत्र के कथानक मुहैया कराने के स्रोत भी मौन हो गए। जो खबरें पहले पन्ने पर होती थी वह भी चली गईं। यह स्थिति चीनी सेना के दक्षिणी शिंजियांग सैन्य क्षेत्र के कमांडर मेजर जनरल लियू लिन के कठोर और अड़ियल रवैया के कारण उत्पन्न हुई सी लगती है। लिन देपसांग से किसी भी तरह से पीछे हटने को तैयार नहीं है। उन्होंने इसे चीनी भू भाग होने का दावा करते हैं। हॉट स्प्रिंग के उत्तर कई ऐसे क्षेत्र हैं जहां से चीन थोड़ा पीछे हटा है बेशक सीमित स्तर पर ही , लेकिन वह पीछे हटना समझौते के अनुरूप नहीं हैं। चीन उस क्षेत्र को लेकर बड़ा ही सक्रिय है क्योंकि वहीं से गलवान नदी के ऊपरी क्षेत्र की राह निकलती है। गोगरा इलाके में भी बात है इसलिए जो समझौता हुआ वह पूरी तरह पालन नहीं किया जा रहा है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने एक हफ्ते पहले लद्दाख में सेना को संबोधित करते हुए कहा था कि वास्तविक नियंत्रण रेखा उपरोक्त स्थिति पर खुलकर बातचीत हुई और अभी भी बातचीत चल रही है लेकिन कितना समाधान हो पाएगा यह कहना मुश्किल है। इसकी गारंटी नहीं दी जा सकती है लेकिन दुनिया की कोई भी ताकत हमारी 1 इंच जमीन नहीं ले सकता। मई में चीनी अतिक्रमण के बाद या पहली बार अधिकृत तौर पर कहा गया है कि चीन जहां तक घुस आया है उस इलाके को खाली नहीं करना चाहता है।


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर विपक्ष में आरोप लगाया है कि सख्त नेता की छवि को कायम रखने के लिए इस मुद्दे पर भ्रम का सहारा लिया जा रहा है। चीन की हठधर्मिता और अड़ियल रवैये के सामने भारत के पास दो ही विकल्प और वह हैं चीन द्वारा आरंभ किया गया युद्ध और दूसरा भारत द्वारा छेड़ी गयी जंग। अगर चीन युद्ध आरंभ करता है तो उसका परिदृश्य पाकिस्तान की तरह एटमी आराम तक भी खिंच सकता है। चीन ऐसा कई बार इशारा भी कर चुका है।यदि भारत ने आगे बढ़कर चीनी कार्रवाई के चलते वर्तमान स्थिति को स्वीकार करने हो तैयार नहीं होता है संभव है कि चीन की शेरा इस स्थिति को अनिश्चित काल तक के लिए खींचेगी या फिर या फिर अपनी बात मनवाने के लिए भारत को पूरी तरह से उस क्षेत्र में पराजित करने के बारे में सोचे। भारत के मुख्य रक्षा पंक्ति बहुत ऊंचाई पर है और जो वास्तविक नियंत्रण रेखा पर है 10 से 80 किलोमीटर दूर है। अब अगर युद्ध होता है तो संभावना है कि भारत के मुख्य रक्षा पंक्ति से आगे वह लड़ेगा। ऐसी स्थिति में हमारा मुख्य उद्देश्य चीन की सेना को रोकने के साथ उससे अधिक या बराबर की जमीन पर अधिकार का होना चाहिए ताकि सौदेबाजी की जा सके। शत्रु को पीछे धकेलने के लिए हमारे पास सेना की कमी नहीं है। अगर ऐसा होता है तो यह भारत के लिए फायदेमंद होगा क्योंकि चीनी सेना को भारतीय सेना की टुकड़ियों से दो दो हाथ करना होगा जो उसके सामने भी वर्चस्व वाली स्थिति में है।





अब अगर चीन बढ़त बनाकर रखना चाहता है यह हमारे ऊपर होगा कि उसे ऐसा करने से रोकें और इसके लिए जरूरी है कि हम सीधे घुसपैठ वाले बिंदुओं पर हमला करें। हमारे लिए एक और विकल्प है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर वह हमला करें जहां उसकी मोर्चाबंदी कमजोर है और फिर सौदेबाजी हो। अगर हमें अपने देश का सम्मान बचाना है तो इसे युद्ध को दुश्मन के खेमे मेले जाना ही होगा। इसके बाद ही सौदेबाजी हो सकती है।

ममता और पवार का अनुकरण क्यों नहीं किया पायलट ने



ममता और पवार का अनुकरण क्यों नहीं किया पायलट ने


ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट एकदम नौजवान नेता हैं और यकीनन एक नई पार्टी बनाकर कांग्रेस और भाजपा के विकल्प के रूप में एक राजनीतिक संगठन प्रस्तुत कर सकते थे। जैसा कि ममता बनर्जी ने कांग्रेस से टूटकर किया था। हालांकि, सिंधिया ने तो भाजपा का दामन पकड़ दिया है लेकिन पायलट कहां जाएंगे यह अभी तक साफ नहीं हुआ है और ना ही उनकी तरफ से कोई ऐसा संकेत मिला है जिससे पता चले किधर जा रहे हैं या फिर कोई नई पार्टी बनाना चाह रहे हैं। पायलट ममता बनर्जी नहीं हैं की उम्र में ममता जी की तरह संघर्ष की क्षमता हो और आम मतदाताओं को यह विश्वास दिला सकें कि उनमें लड़ने की ताकत है। ममता जी ने अपनी इसी क्षमता के कारण कामयाबी पाई और आज प्रदेश की गद्दी पर हैं। पायलट ने आखिर यह साहस क्यों नहीं दिखाया जबकि उनका दावा है राजस्थान की जनता उन्हें पसंद करती है। संभवतः उनकी तरह धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील विचारों वाले नेता बहुसंख्यक वादी राजस्थान में कितना सफल हो पाएंगे इसकी गणना उनके पास भी नहीं है। पायलट पर यह आरोप लगाया जा रहा है कि वह अपने समर्थकों को लेकर भाजपा में जा रहे हैं। यह आरोप ही अपने आप में उत्तर है। इससे पता चलता है पायलट मेहनत करने की बजाय मौजूदा समय में स्थापित पार्टी में शामिल हो जाना सही समझते हैं। जिन लोगों ने ममता बनर्जी को पार्टी खड़ी करते देखा है वह उनकी मेहनत से वाकिफ होंगे। सचमुच एक नई पार्टी खड़ी करने में जो जटिलताएं सामने आती हैं और जितनी मेहनत करनी पड़ती है वह सोचा जा सकता है। एक नई पार्टी बनाने के लिए एक व्यापक जनाधार, समय, शक्ति, धनबल और बाहुबल के साथ-साथ व्यापक तजुर्बे की भी जरूरत होती है। ऐसे विचार को करने की आवश्यकता होती है जो बाध्यकारी हो साथ ही नरेंद्र मोदी के चुनाव जीतने की क्षमता के बीच वोटरों का मनोभाव समझने का भी आत्मविश्वास होना चाहिए। या तो आज के समय में नई पार्टी बनाने वाले को अरविंद केजरीवाल की तरह होना चाहिए जो भयानक विद्रोहियों तथा मान्य व्यवस्थाओं को मटियामेट करने की क्षमता रखता हो। अथवा, ममता बनर्जी की तरह युद्ध के मैदान में केवल अपने समर्थकों के बल पर निहत्थे खड़ा होने का साहस होना चाहिए। जिन्होंने सीपीआईएम के काल में ममता बनर्जी के साथ हुए सितम को देखा होगा और महसूस किया होगा वही इसे समझ सकते हैं। पायलट में ऐसा साहस और गुण नहीं है।


किसी भी नई पार्टी के राष्ट्रीय विकल्प के रूप में खड़े होने के लिए राजनीतिक व्यवस्था की कमजोरियों के कारण एक उपयुक्त राजनीतिक वातावरण का होना जरूरी है। संपूर्ण क्रांति आंदोलन के दौरान इंदिरा जी के आपातकाल और राजीव गांधी के काल में बोफोर्स दलाली से लेकर आज के अरविंद केजरीवाल द्वारा भ्रष्टाचार के नारों ने यह वातावरण मुहैया कराया। लेकिन आज हालात दूसरे हैं। मोदी और अमित शाह किसी भी मूल्य पर किसी भी विपक्षी विकल्प को भरने का मौका नहीं देते। इसलिए पायलट या सिंधिया के लिए नए सिरे से शुरुआत करने का कोई स्कोप नहीं है। यहां तक कि अरविंद केजरीवाल ने भी मोदी शाह के युग के पहले यह सब किया था। सिंधिया और पायलट एक बात समान है वह कि दोनों को यह मुगालता था कि चुनाव जीतने के बाद उन्हें अपने-अपने राज्यों का मुख्यमंत्री बनाया जाएगा लेकिन जो उनसे सीनियर थे उनके इगो के आगे उनकी एक नहीं चली। पायलट अपने 18 समर्थक विधायकों को लेकर अलग हुए और अगर उनमें इतना ही साहस था उन्हें मुख्यमंत्री बनाया जाना चाहिए तो उन्हें अपनी अलग पार्टी बनानी चाहिए थी। हालांकि पायलट ने मुख्यमंत्री बनने का अपना सपना कभी किसी से गोपनीय नहीं रखा और सदा शिकायत करते हैं कि उन्हें गलत तरीके से मुख्यमंत्री पद से अलग रखा गया है। उनका मानना था यह गलत है और ज्यादा थी भरा है। कांग्रेस के नौजवान नेताओं के साथ हर जगह यानी हर राज्य में ऐसा ही हो रहा है और अगर पायलट में इतनी क्षमता थी तो उन्हें सभी राज्यों के ऐसे नेताओं को जोड़ने के लिए कदम आगे बढ़ाना चाहिए था। पायलट को यह मालूम है एक स्थापित मंच पर जगह बनाना आसान है स्टार्टअप के मुकाबले। अगर आनन फानन में ताकत एकत्र करनी है तो नई पार्टी नहीं चलेगी। वोट बैंक बनाने के लिए कठोर मेहनत की जरूरत पड़ती है और लंबे समय तक सत्ता से बाहर रहना पड़ता है तथा इस अवधि में धैर्य जरूरी है। यही नहीं इसके लिए धन जुटाना भी बहुत कठिन काम है।


शरद पवार ने 1999 में सोनिया गांधी से नाता तोड़ लिया था और कांग्रेस छोड़ दीजिए तथा राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का गठन किया था। इन 21 वर्षों में उन्होंने महाराष्ट्र के बिग बॉस का मुकाम हासिल किया। ममता बनर्जी 1997 में कांग्रेस से अलग होकर नई पार्टी बनाई और पश्चिम बंगाल में अपनी राजनीतिक जड़े जमाने की कोशिश करने लगीं।लेकिन इलीट गाइडेड पश्चिम बंगाल की राजनीति में किसी नई पार्टी को जड़े जमाना बड़ा कठिन है। यही नहीं पश्चिम बंगाल की राजनीति वामपंथियों के कारण बेहद हिंसक और और स्पष्ट थी। लेकिन उन्होंने वाम मोर्चे की सत्ता को उखाड़ फेंका। आज पायलट के बारे में एक महत्वपूर्ण प्रश्न है या फिर चाहते क्या हैं? अगर आसानी से जगह बनानी है तो भाजपा मुफीद है और अगर एक पहचान कायम करनी है तो उन्हें एक नई राजनीतिक विरासत की नींव रखनी होगी और खुद को एक विश्वसनीय विकल्प के रूप में पेश करना होगा। उनका कंफ्यूजन भारतीय राजनीति को नुकसान पहुंचाएगा।





राजस्थान की जंगः कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना



राजस्थान की जंगः कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना


राजस्थान में सियासी घमासान मचा हुआ है। वैसे राजस्थान का इतिहास भितरघातों और खुली जंग के जिक्र से भरा पड़ा है। आज भी वहां एक नया घमासान चल रहा है। इसमें भितरघात भी है और खुली लड़ाई भी है। राजस्थान के मौजूदा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खिलाफ उन्हीं की पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट ने बगावत का झंडा बुलंद कर दिया और पायलट की पीठ पर भाजपा के हाथ हैं यह किसी से छिपा नहीं है। यह पूरा का पूरा प्लॉट कुछ वैसा ही है जैसा पिछले 70 वर्षों से भारत और पाकिस्तान के बीच के युद्ध का है। इस युद्ध से जिस तरह से लोग ऊब चुके हैं और आर पार का फैसला चाहते हैं ठीक वैसे ही आज के राजस्थान में चल रही सियासी जंग से लोग उठ गए हैं। खरीद-फरोख्त का वही पुराना रवैया के एक और महत्वाकांक्षी कांग्रेस नेता बगावत करता है, विधायकों की खरीद बिक्री का बाजार खुल जाता है तथा एक गैर भाजपाई सरकार गिरने के कगार पर आ जाती है। यह पूरी की पूरी फिल्म देखी देखी सी लगती है। भारत की जनता आखिर इसे कितनी बार देखेगी। लेकिन यहां कुछ उप कथाएं भी इस स्क्रिप्ट में जुड़ गईं हैं। जैसे दो सिंधियाओं की जंग छिड़ गई है। उधर, वसुंधरा राजे सिंधिया भाजपा आलाकमान की बात नहीं मानते हुए गहलोत पायलट की रस्साकशी से अलग हैं। वह अनुभवी राजनीतिज्ञ हैं और पूरी तरह वाकिफ है ऐसा करने से आलाकमान नाराज हो जाएगा। वसुंधरा राजे सिंधिया लगभग चुप हैं। उन्होंने 3 दिन पहले एक ट्वीट किया था और कहा था कि जनता के बारे में सोचिए। यह उनकी अपनी ही पार्टी को दी गई झिड़की की मानिंद थी या कह सकते हैं कि कोरोना के संकट के दौरान राजस्थान सरकार को गिराने की भाजपा की कोशिशों की आलोचना जैसी थी। राजस्थान में जो जंग चल रही है उसके पहले वाले प्लॉट पर भी नजर डालें यानी दो सिंधियाओं की जंग पर। ग्वालियर के पूर्व राजघराने वंशज जायदाद के विवाद में पहले से फंसे हुए हैं, लेकिन चुनाव के दौरान कभी भी एक दूसरे के चुनाव प्रचार नहीं करते। पहली बार वे दो हजार अट्ठारह में मध्य प्रदेश के कोलारस में हुए उपचुनाव में एक दूसरे के सामने आ गये थे। ज्योतिरादित्य सिंधिया वहां कांग्रेस उम्मीदवार के लिए प्रचार कर रहे थे और यशोधरा राजे सिंधिया वहां भाजपा के लिए प्रचार करने के दिए मैदान में उतर गईे। यशोधरा ज्योतिरादित्य सिंधिया की बुआ हैं। दोनों में थोड़ा फासला हो गया। मार्च में जब ज्योतिरादित्य भाजपा में शामिल हुए तो यशोधरा राजे इसका यह कहते हैं स्वागत किया कि राजमाता के खून ने राष्ट्र हित में फैसला किया है और अब दूरी खत्म हो गई। फिर जरा राजस्थान इसमें एक और है ज्योतिरादित्य कांग्रेस में अपने पुराने साथी सचिन पायलट की पर्दे के पीछे से मदद कर रहे हैं दूसरी हैं वसुंधरा राजे जिन का राजनीतिक भविष्य पायलट के जीतने और हारने पर निर्भर है। अगर पायलट जीत जाते हैं तो बेशक वसुंधरा राजे के भविष्य पर दुष्प्रभाव पड़ेगा। आप अगर पायलट किसी भी तरह से मुख्यमंत्री बन गए वसुंधरा राजे की राजनीतिक डगर पर गड्ढे जरूर आ जाएंगे। पिछले दो दशकों से वे और गहलोत राजस्थान के मुख्यमंत्री बनते रहे हैं। अब अगर एक और विकल्प सामने आ जाए जिसके पीछे आलाकमान खुद खड़ा हो तो वसुंधरा राजे के लिए मामला बिगड़ जाएगा। सिंधिया घराने के इन दो धड़ों के बीच कितनी मिल्लत है यह बात किसी से छिपी नहीं है लेकिन तब भी किसी मोड़ पर दोनों आमने-सामने आ जाते हैं एक दूसरे के प्रति सम्मान व्यक्त करते हैं। लुटियंस में होने वाली पार्टियों में भी दोनों शाखाओं के सदस्यों को एक साथ कभी नहीं देखा गया। जाहिर है ज्योतिरादित्य राजस्थान में वही कर रहे हैं जो उनकी पार्टी चाहती है और अब इससे उनकी बुआ को हानि होगी तो क्या किया जा सकता है। राजघरानों का इतिहास एक दूसरे की पीठ में छुरा घोंपने के उदाहरणों से भरा पड़ा है। यहां यह जाहिर हो रहा है कि गहलोत और पायलट जोर आजमाइश का नतीजा चाहे जो हो जय और विजय तो बुआ और भतीजे में किसी एक की होगी ।





वैसे भाजपा आलाकमान से वसुंधरा राजे के संबंध बहुत ही गर्म नहीं है और यह बात किसी से छुपी नहीं है। भाजपा आलाकमान लंबे समय से वसुंधरा के विरोधियों को आगे बढ़ा रहा है उनमें से एक केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत जो ज्योतिरादित्य के साथ मिलकर वसुंधरा की राजनीतिक कश्ती डुबोने में लगे हैं। लेकिन वसुंधरा इस क्षेत्र की पुरानी खिलाड़ी हैं और उन्हें कम करके आंकना भूल होगी, उनके विरोधी यही भूल कर रहे हैं।वसुंधरा का कद राजस्थान में बहुत बड़ा है खास करके एक जन नेता के रूप में प्रदेश भाजपा में उनकी टक्कर का कोई नहीं है। अब आलाकमान गजेंद्र सिंह शेखावत को उनके विकल्प के रूप में आगे बढ़ा रहा है तो शायद यह उसकी गलती है। शेखावत मोदी लहर में दोनों बार चुनाव जीते और जोधपुर के बाहर शायद उनकी बहुत ज्यादा पहचान नहीं है। दिल्ली में बैठे लोगों को वसुंधरा के कद के बारे में बहुत अंदाजा नहीं है। पहली बार जब वसुंधरा राजे भाजपा की प्रदेश अध्यक्ष बनकर आई तो लोगों में तरह-तरह की चर्चाएं होती थीं लेकिन कुछ ही महीनों में उस काल के सबसे कद्दावर नेता भैरों सिंह शेखावत से आगे बढ़कर दिखा दिया। आज राजस्थान में वसुंधरा राजे का राजनीतिक कद सबसे ऊंचा है और उनके खिलाफ अगर कोई योजना शुरू होती है तो जरूरी नहीं कि उन्हें पराजित किया जा सके। अलबत्ता, हाईकमान अपनी विशेष शक्तियों का उपयोग कर उनकी राह में रोड़े जरूर अटका सकता है। उधर, सचिन पायलट पर ज्यादा निर्भर होना राज्य भाजपा के लिए बहुत उपयोगी नहीं होगा क्योंकि भाजपा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व के करिश्मे और गृहमंत्री अमित शाह की रणनीतियों के बल पर चुनाव जीतती रही है। नए लोग शायद ही इस मामले में कोई सहयोग कर सकते हैं।

ओली की समस्या कैसे सुलझाए भारत



ओली की समस्या कैसे सुलझाए भारत


नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली लगातार भारत के सामने समस्याएं खड़ी कर रहे हैं। जानकारों का कहना है कि वह ऐसा चीन के इशारे पर कर रहे हैं। भारत को शर्मशार करने के लिए उन्होंने राम का मसला उठा दिया। प्रधानमंत्री ओली ने दावा किया राम का जन्म ठोरी गांव में हुआ। त्रेता युग से अब तक किसी ने इस पर बात नहीं की थी और मानस में प्रसंग है जिसमें मिथिला और अवध की संस्कृतियों के बारे में राम और सीता के विवाह को लेकर व्याख्या की गई है। इसके अलावा भारत में कई ऐसे स्थल हैं जहां राम के सांस्कृतिक उद्भव के निशान मिलते हैं। यही नहीं, भगवान राम का वन गमन, हनुमान ,बालि, सुग्रीव इत्यादि से मुलाकात और फिर लंका अभियान एवं वहां से वापसी के रोड मैप पर अवधी संस्कृति का स्पष्ट उल्लेख है। ओली ने इन सारी व्याख्या तथा व्यंजनाओं को गलत बताते हुए राम को नेपाल का बाशिंदा बताया। यही नहीं, राम का राजकुमार राम से मर्यादा पुरुषोत्तम में बदलने के हालात के बारे में भी जो व्याख्या भारतीय वांग्मयों में उपलब्ध है उन्हें भी ओली ने स्वीकार नहीं किया और ऐसे मौके पर यह विवाद पैदा किया जब भारत में राम मंदिर के निर्माण की तैयारी हो रही है। इस इलाके में और आसपास के क्षेत्रों में कई मस्जिदें हैं जहां बांग्लादेश और पाकिस्तान के कट्टरपंथी तत्वों का बोलबाला है। डर है कि भविष्य में राम मंदिर को लेकर एक नया आंदोलन आरंभ हो जाय। बात यहीं खत्म हो जाए तब भी गनीमत है। ओली ने वर्षों से कायम भारत- नेपाल सीमा को भी अमान्य करते हुए भारत के 3 गांव पर अपना हक जताया है।शनिवार को भारतीय सीमांत पर स्थित गांव भिखना ठोरी में उनके आगमन के पूर्व काफी तोड़फोड़ हुई। नेपाल प्रशासन के हुक्म से सीमा स्तंभ 436 को उखाड़ दिया गया। इतना ही नहीं सीमा के पंडई नदी का पानी भी भारत में आने से रोक दिया गया। मामला बिगड़े नहीं इसलिए भारतीय सीमा सुरक्षा बल सब जान कर भी अंजान बनी हुई है। उधर, ओली के इस क्षेत्र में आने का उद्देश्य ही है राम को लेकर भारत में आंदोलन शुरू करवाना। ठोरी बीरगंज जिले में एक छोटा सा गांव है और उसी से सटे हुए भारतीय सीमा आरंभ होती है। नेपाल के पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने इस क्षेत्र में धनुषा नदी के किनारों बारा और चितवन के जंगलों में राम के जन्म के सबूत खोजने शुरू कर दिये हैं। आरंभ में तो इस संस्था में साफ कहा था ऐसा कोई सबूत नहीं है जिससे राम के जन्म का प्रमाण माना सके। लेकिन आप उन्होंने प्रधानमंत्री ओली के बयान का समर्थन हो सके। ओली के बयान से भारत में बहुत बड़ी संख्या में लोग क्षुब्ध हैं। यही नहीं ओली ने भारत पर आरोप लगाया है सांस्कृतिक आक्रमण कर रहा है और ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़ मरोड़ रहा है।


ओली के कुछ सहायकों ने इसे मनगढ़ंत बताया है यहां तक कि कुछ विद्वानों ने तो इसे एक विकृत मस्तिष्क की कसरत बताया है। ओली भारत और नेपाल आपसी रिश्तों को बिगाड़ने में लगे हैं। उन्होंने इन संबंधों को पहले ही बहुत बिगाड़ दिया है। यहां तक कि नेपाल के विदेश मंत्रालय ने कहा है कि प्रधानमंत्री की बात राम और रामायण के बारे में और अधिक तथ्य जुटाने के प्रयास स्वरूप यह बात कही है। अगर ऐसा है तो ओली ने भारत पर सांस्कृतिक आक्रमण का आरोप क्यों लगाया? ओली के बॉडी लैंग्वेज, मनोविज्ञान और उनकी कोशिशों देखने से यह पता चलता है वे अपनी कुर्सी बचाने में जी जान से लगे हैं। हालांकि ओली धीरे- धीरे अब मत में आ गए हैं ।अब तक और दहल में 8 बार बातें हो चुकी हैं। ओली फिलहाल पार्टी के अध्यक्ष और प्रधानमंत्री हैं। वह दोनों में से किसी भी पद को छोड़ना नहीं चाहते। 17 जुलाई को वार्ता के दौरान उन्होंने अपने समर्थकों को भड़का दिया तथा वह वार्ता स्थल पर प्रदर्शन करने लगे। इससे, पार्टी के अन्य नेता काफी नाराज हो गए। ओली का संसद में बहुमत नहीं है और इसलिए वे राष्ट्रपति का सहयोग चाहते हैं ताकि राष्ट्रपति संसद को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दें। 25 अगस्त को सेंट्रल कमिटी की मीटिंग होने वाली है और अगर संसद को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया गया तो ओली को इन विरोधियों से थोड़ी निजात मिल जाएगी। वहां कई ऐसे हैं जो चाहते हैं कि महामारी को बेकाबू होने के कारण देश में स्वास्थ्य आपात व्यवस्था लागू हो जाए।





ओली के पक्ष में तीन मामले हैं। पहला की दहल और अन्य सदस्य चाहते हैं कि पार्टी में किसी कीमत पर विभाजन नहीं हो। दूसरा कि, देश के राष्ट्रपति पाऊस में पूर्ण समर्थन है। तीसरा कि चीन से मिलने वाला संकेत जिसमें साथ आ गया है पार्टी को किसी भी कीमत पर टूटने से बचाना होगा। चीन से संबंध बनाए रखना उसकी मजबूरी है क्योंकि भारत से उसके रिश्ते बिगड़ चुके हैं। जो खबरें मिल रही हैं उससे लगता है कि संभवतः सेंट्रल कमेटी की मीटिंग अगस्त में नहीं होगी और ओली को थोड़ा वक्त मिल जाएगा। इसमें एक अच्छी बात दिख रही है कि सभी तरह के उकसावे के बावजूद भारत कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त कर रहा है। भारत को इंतजार करना चाहिए और किसी भी किस्म की प्रतिक्रिया से बचना चाहिए। ओली की समस्या को सुलझाने का एक मात्र यही विकल्प है।

अब एक और अयोध्या विवाद



अब एक और अयोध्या विवाद


नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने दावा किया है कि भारत ने सच्चाई को तोड़ मरोड़ कर पेश किया है और राम को उत्तर प्रदेश के फैजाबाद की अयोध्या का राजा बताया है जबकि सच है किराम आज के नेपाल के किसी स्थान से आए थे। नेपाल के राष्ट्रकवि भानुभक्त आचार्य 206वीं जन्म जयंती पर आयोजित एक समारोह में ओली ने कहां की अयोध्या बिहार की सीमा बीरगंज के पश्चिमी क्षेत्र में थी। यहां यह बता देना प्रासंगिक होगा कि भानुभक्त ने बाल्मीकि रामायण का नेपाली में अनुवाद किया था। ओली ने कहा कि उत्तर प्रदेश से आकर राम ने अयोध्या में शादी की यह सही नहीं है। “ हमें सांस्कृतिक रूप में चला गया है और भारत ने वास्तविकता को तोड़ा मरोड़ा है।” ओली ने कहा कि उत्तर प्रदेश के फैजाबाद के अयोध्या का उदय बाद में हुआ और वह वास्तविक राम की राजधानी नहीं थी। उन्होंने कहा कि राम नेपाल के थे और सीता भी नेपाल की थीं। उन्होंने बारे में बताया कि बिहार की सीमा पर ठोरी एक जगह है वहीं अयोध्या थी। पुराणों में कहा गया है कि जब राम ने सीता का त्याग कर दिया तो वह अपने पुत्रों लव और कुश के साथ महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में रहती थीं। यह नारायणी( आज के गंडक) के तट पर था। यह नेपाल और बिहार की सीमा पर है और आज भी बड़ी संख्या में श्रद्धालु आ जाते हैं। ओली ने दावा किया कि जिन पंडितों ने राजा दशरथ के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ कराया था नेपाल के रिदी क्षेत्र से गए थे।


नेपाल के प्रधानमंत्री का यह बयान एक ऐसे समय में आया है जब भारत और नेपाल में पहले से ही तनाव कायम है। नेपाल में कुछ लोग इस टिप्पणी का समर्थन भी कर रहे हैं और ज्यादा लोग इसका मजाक उड़ा रहे हैं। नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टराई ने ओली के बयान पर तंज किया और ट्वीट किया कि “ होली द्वारा रचित कल युग रामायण सुनिए और सीधे बैकुंठ की यात्रा कीजिए।” नेपाल के पूर्व उपप्रधानमंत्री कमल थापा ने कहा किसी भी प्रधानमंत्री के इस तरह का आधारहीन बयान देना उचित नहीं है। प्रधानमंत्री के इस बयान पर नेपाल के वरिष्ठ पत्रकार अमित ढकाल ने भी चुटकी ली और कहा कि “श्रीलंका काशी के पास है और वहां हनुमान नगर विजय जिसका निर्माण वानर सेना ने तब किया होगा जब वे पुल बनाने के लिए वहां एकत्र हुए होंगे।”


राजनीति और कूटनीति से ऊपर है धर्म और बड़ा ही भावनात्मक मामला है। इस तरह की बयानबाजी से शर्मिंदगी के अलावा कुछ नहीं है क्योंकि अगर अयोध्या नेपाल में है और थी तो सरयू कहां है। लगता है कि ओली भारतीय मीडिया को मसाला दे रहे हैं। इस तरह की अनर्गल बातें खास करके पौराणिक तथ्यों के बारे में कहना और कह कर खुद को विद्वान महसूस करना बड़ा हास्यास्पद है। नेपाल के प्रधानमंत्री की बात को सुनकर ऐसा लगता है कि वे भारत को उकसाने के लिए उसने कुछ करते रहना चाहते हैं। नेपाल में अभी हाल में सीमा को लेकर जो कुछ बयानबाजी की है उसे कायम कटुता अभी खत्म नहीं हुई और केपी शर्मा ओली एक नया बयान देकर कटुता को बढ़ाने की कोशिश की है। राम और अयोध्या का संबंध एक ऐसा मसला है जो सदियों से भारत में विवाद का विषय बना है और इसे लेकर कई बार खून खराबे भी हुए हैं। बड़ी मुश्किल से अदालत के हस्तक्षेप के बाद मामला है और भगवान राम का मंदिर बनने की तैयारी चल रही है। ओली के इस बयान से इस स्थिति में कटुता पैदा हो सकती है। ओली जिस पार्टी के हैं उसका नाम है नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी । नाम में ही कम्युनिस्ट लगा है और कम्युनिज्म धर्म को नहीं मानता। ओली के प्रधानमंत्री पद की शपथ ले रहे थे तो उन्होंने भगवान का नाम लेने से इनकार कर दिया था और जब भारत के प्रधानमंत्री मोदी ने जनकपुर में पूजा की थी ओली उससे अलग ही थे। आश्चर्यजनक बात यह है कि इस मौके पर जब राजनीतिक पैंतरा बदलना है तो ओली को राम की याद आ गई।


विगत कुछ महीनों से भारत और नेपाल में नक्शे को लेकर तनाव चल रहा है। नेपाल ने अपने नए नक्शे में लिपुलेख, लिंपियाधुरा और काला पानी पर दावा किया है। यह तीनों इलाके फिलहाल भारत में हैं। इस नए नक्शे के बाद दोनों देशों में तनाव बढ़ता गया। पिछले साल जम्मू कश्मीर को 2 केंद्र शासित प्रदेश बनाए जाने के बाद भारत ने अपना नक्शा अपडेट किया उस समय यह तीनों इलाके भारत के थे। लेकिन नेपाल में चीनी राजदूत होउ यांकी की मुलाकात के बाद तनाव बढ़ने लगा। कहा तो यह भी गया कि ओली को हनी ट्रैप में फंसा कर यह सब करवाया जा रहा है। इस पर ओली ने बहुत कड़ी प्रतिक्रिया जाहिर की। भारतीय मीडिया के कई चैनलों पर रोक लगा दी गई। वैसे चीन के राजदूत की नेपाल में सक्रियता को देखकर वहां के लोगों ने भी इस पर आपत्ति की है।





धीरे धीरे भारत और नेपाल में तनाव बढ़ता जा रहा है। नेपाल को अपनी सीमाएं और भारत पर आर्थिक निर्भरता के बारे में सोचना चाहिए। नेपाली अर्थव्यवस्था भारत पर बहुत कुछ टिकी है। नेपाल चुकी लैंडलॉक्ड है इसलिए वह भारतीय गोदियों को अपने व्यापार के लिए इस्तेमाल करता है और लगभग 60 लाख नेपाली भारत में काम करते हैं। नेपाल को अपनी गलतियों से सीखना चाहिए मलहम वह भारत से वार्ता के लिए पूरी तरह तैयार नहीं है। सीमा विवाद एक गंभीर परिणाम हो सकते हैं भारत और नेपाल दोनों देशों को समझना चाहिए।

Friday, July 17, 2020

चीन की आक्रामक रणनीति का भारत द्वारा जवाब



चीन की आक्रामक रणनीति का भारत द्वारा जवाब


चीन को भारत यह समझाने में लगा है कि अगर दोनों देशों में युद्ध होता है तो ज्यादा नुकसान चीन का होगा और भारत ने उस पर आर्थिक वार करना आरंभ कर दिया है। बुधवार को भारत में 5जी नेटवर्क तैयार करने और उसके अनुरूप टेलीफोन या कहें स्मार्ट फोन बनाने के लिए जहां भारत के जिओ नेटवर्क ने गूगल से हाथ मिलाया है वहीं भारत सरकार ने तीनों सेनाओं को रक्षा खरीद की खुली छूट दे दी है और साथ ही कूटनीतिक एवं सैन्य वार्ताओं के माध्यम से भी उसे बताने में लगा है कि जंग ना हो उसी में भलाई है। भारत में 5जी नेटवर्क के लिए गूगल ने 33,737 करोड़ रुपए के निवेश की मंजूरी दे दी है। वहीं भारत चीन गतिरोध के मद्देनजर भारत सरकार ने सेना के तीनों अंगों को 300 करोड़ रुपए तक की पूंजीगत खरीद की मंजूरी दी है। इन सबके बावजूद यहां एक प्रश्न उभरता है क्या यह वास्तविक नियंत्रण रेखा से पीछे हटने संबंधी समझौता सचमुच शांति के लिए है या यह नए तरह का युद्ध है। जहां तक वास्तविक नियंत्रण रेखा से पीछे हटने संबंधी समझौते की बात है तो उस पर ज्यादा भरोसा करना उचित नहीं होगा क्योंकि पीछे हटने की प्रक्रिया बहुत धीमी है और इसी बीच वार्ताएं भी हो रही हैं। वार्ताओं के बीच चीन ने साफ कर दिया है कि वह फिंगर क्षेत्र को खाली नहीं करेगा। हालांकि वह फिंगर 4 से थोड़ा पीछे हटा है लेकिन वह पूरे फिंगर क्षेत्र को खाली करने को तैयार नहीं है। भारत और चीन में बुधवार को 15 घंटे तक बातचीत चली और 21 या 22 जुलाई को भारत और चीन पीछे हटने की प्रक्रिया को वेरीफाई करेंगे। भारत और चीन के बीच जो वार्ताएं उस का मुख्य आधार था कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तनाव कम किया जाए। इसके अलावा मीटिंग में पैंगोंग त्सोऔर देपसॉन्ग पर भी वार्ताएं हुई । लेकिन चीन की गतिविधि लगता है कि वार्ता के पर्दे में एक नए तरह का युद्ध चला रहा है। गलवान में जो मुठभेड़ हुआ वह चीन की अगली रणनीति की ओर इशारा करता है तथा भारत को भी यह संदेश देता है कि वह आदेश की प्रतीक्षा ना करें और तारक कदम उठाएं।





वैसे आज युद्ध का स्वरूप बदल गया हैऔर अब वह केवल मैदान में ही सीमित नहीं रहा जाता वहां से निकलकर तरह-तरह के रूप बदलकर हमें या कहिए लड़ने वालों को प्रभावित करता है। जहां तक, भारत चीन समरनीतिक रिश्ते हैं हमें उनकी जटिलताओं आकलन करना होगा । अभी जो सैनिक हैं ,हथियार हैं और वार्ताएं हैं वह सब तात्कालिक हैं क्योंकि यह सब चलता रहता है और युद्ध भी स्वरूप बदल कर कायम रहता है जैसे आतंकवाद, कूटनीति गुटबाजी, आर्थिक प्रहार इत्यादि इत्यादि। यह सब युद्ध के बदले हुए स्वरूप हैं। जब से भारत आजाद हुआ चीन से हमारा नरम गरम रिश्ता कायम रहा है। इन सबके बीच चीन हमले भी कर लेता है और मोर्चेबंदियां भी। यह कहने का मतलब है कोई भी समझौता और इस तरह की चीजें ब्रह्मवाद नहीं हैं इन सब का इस्तेमाल बहुत सोच समझ कर किया जाना चाहिए। जैसे हमने चीनी आयात पर प्रतिबंध की बात की है तो हमें देखना पड़ेगा कि वर्तमान में चीन और भारत के आर्थिक रिश्ते कितनी दूर तक जुड़े हुए हैं और यदि उन पर प्रहार होता है तो ज्यादा हानि किसकी होगी? हमारे यहां आत्मनिर्भर भारत जबरदस्त चर्चा है लेकिन हमें यह देखना होगा हमारी आत्मनिर्भरता कितनी दूर तक परनिर्भरता से जुड़ी है और हम उससे क्या-क्या लाभ उठा सकते हैं। चीन ने इस तथ्य को अच्छी तरह समझा है। वह यूरोप पर निर्भर रहते हुए आत्मनिर्भर हो गया और फिर उसके पल्ला झाड़ लिया। भारत को भी इस गणित का लाभ उठाना चाहिए। जहां तक कूटनीतिक पैंतरेबाजी का सवाल है तो इसका दिलचस्प उदाहरण हांगकांग है। अभी हाल में चीन ने हांगकांग पर एक नया कानून थोपा जिसके अंतर्गत चीन का विरोध करने वाले प्रदर्शनों में शामिल लोगों को जेल भेजा जा सकता है। अमेरिका में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई और अमेरिका ने भी एक नया कानून पारित कर दिया। देखने की बात है दोनों देशों ने जो कानून बनाए हैं वह एक्स्ट्रा टेरिटोरियल है। ना यह कानून चीनी सीमा के भीतर लागू है और ना अमेरिकी सीमा के। यहां एक दिलचस्प मसला सामने आता है हांगकांग पर नई स्थिति का क्या असर होगा और उसका भारत पर क्या प्रभाव पड़ेगा क्योंकि हांगकांग के रास्ते भारत में आयात ज्यादा है। पिछले कुछ वर्षों से चीन से आयात कम हो रहा है और हांगकांग से बढ़ रहा है। इस बीच हमारे देश में आत्मनिर्भरता की बात उठ रही है। आत्मनिर्भरता के लिए सबसे जरूरी है अपने देश के उद्योग धंधों को वैश्विक स्तर पर प्रतियोगितामूलक बनाना। अगर कोई देश हमारे उद्योगों से ज्यादा सस्ता माल बनाता है तो वह हमारे देश में आएगा ही चाहे जिस रास्ते से आए। अगर हमें आत्मनिर्भर बनना है तो अपने देश में बिकने वाले माल को दूसरे देशों से आने वाले उसी माल से सस्ता देना होगा। अगर ऐसा हम नहीं कर पाते हैं तो आत्मनिर्भरता के नारे सिर्फ नारे बनकर रह जाएंगे। अभी चीन के साथ जो कुछ भी चल रहा है वह एक युद्ध है और हमें उस में चीन को पछाड़ने की बात सोचनी चाहिए। हम युद्ध नहीं चाहते हैं लेकिन अपनी भूमि नहीं छोड़ेंगे। अगर हम चीन की योजनाओं के शिकार होते हैं तो हमारा भविष्य हमें नहीं माफ करेगा। हमें हर मोर्चे पर दृढ़ता से अपनी मातृभूमि की रक्षा करनी होगी चाहे वह प्रत्यक्ष युद्ध का मैदान हो या परोक्ष मोर्चाबंदी।

राजस्थान का सियासी तापमान



राजस्थान का सियासी तापमान


राजस्थान के कांग्रेसी सियासत में अब पायलट सीट नहीं रही। बगावती सचिन पायलट को 72 घंटे तक मनुहार किया जाता रहा लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ उसके बाद उन पर कार्रवाई की गई। उन्हें उपमुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के पद से हटा दिया गया। हालांकि अभी उन्हें पार्टी से निकाला नहीं गया है। झगड़ा तब शुरू हुआ जब सचिन पायलट मुख्यमंत्री पद से नीचे के लिए तैयार नहीं थे और कांग्रेस हाईकमान गहलोत से पल्ला झाड़ने के पक्ष में नहीं है। 72 घंटे तक बात चली पायलट ने राहुल गांधी से भी मुलाकात की और उनकी बात से भी इंकार कर दिया। पायलट ने सिर्फ कांग्रेस नेतृत्व के समक्ष 4 शर्तें रखी थी लेकिन बात नहीं बनी और अंततः पायलट को हटा दिया गया। अब बात उठती है कि आगे क्या होगा? राजस्थान में 2018 में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को पराजित कर कांग्रेस ने गद्दी अपनायी थी। इसके पहले कांग्रेस की करारी हार हो गई थी। सचिन पायलट वाले मामले से पहले मध्यप्रदेश में ऐसा हो चुका है और वहां कांग्रेस को सत्ता खोनी पड़ी है। इसके बाद आया है मामला राजस्थान और इस मामले ने कांग्रेस के भीतर की समस्त व्यवस्था को झकझोर दिया है। मध्य प्रदेश के बाद राजस्थान में ऐसा हुआ है और इससे पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरता हुआ है, पार्टी के भीतर खलबली मच गई है। वैसे सियासी गलियारों में यह चर्चा है बगावत की शुरुआत तो मार्च में ही हो गई थी लेकिन हाईकमान को इसका पता नहीं चला और जब पता चला तो परंपरागत इलाज के अलावा कुछ नहीं था, कोई रास्ता ही नहीं बचा। कांग्रेस पार्टी 2014 के पराजय के बाद से भीतरी चुनौतियों का सामना कर रही है। आंतरिक विद्रोह के कारण यह चारों खाने चित नजर आ रही है। आखिर देश की सबसे पुरानी पार्टी का इतना बुरा हाल क्यों हुआ? लोग पार्टी छोड़ कर क्यों जा रहे हैं? कांग्रेस के चरित्र और उसके आचरण को देखते हुए यह कहा जा सकता है की जो कुछ हो रहा है उसकी वजह गांधी परिवार है खास कर वर्तमान में सोनिया गांधी। अगर कांग्रेस का इतिहास देखें तो हर पार्टी के भीतर टूटन के लिए पार्टी हाईकमान का जिद्दी रवैया ही जिम्मेदार रहा है। सुभाष चंद्र बोस की घटना हो या फिर पटेल की या भारत के विभाजन की सब जगह पार्टी नेतृत्व का जिद्दी रवैया दोषी रहा है। इस बार भी चाहे वह सचिन पायलट का मामला हो या सिंधिया का सोनिया गांधी का मनोविज्ञान साफ दिख रहा है कि वह नहीं चाहतीं कोई भी ऐसा नेता उभरे जो राहुल गांधी की चुनौती बन सके। यहां तक कि उन्होंने प्रियंका गांधी के भी आगे नहीं बढ़ने दिया। पार्टी के कार्यकर्ताओं का कहना है कि बेटे के करियर को आगे बढ़ाने के लिए सोनिया गांधी ने सिद्धांतों और मेरिट को भी कुर्बान कर दिया। आम धारणा है कि भारतीय जनता पार्टी इन नेताओं को कांग्रेस से निकलने के लिए ना केवल उकसा रही है बल्कि बाध्य भी कर रही है। परंतु भारतीय जनता पार्टी के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि उन्होंने कभी इनको बुलाया नहीं आए। इनका मानना है पार्टी में मेरिट को नजरअंदाज कर दिया जा रहा है और राहुल गांधी में राजनीति की समझ शून्य है । भाजपा का दावा है उसकी पार्टी में आने वाले कांग्रेसियों की लाइन लगी हुई है लेकिन जिनमें कुछ मेरिट है उन्हें ही पार्टी में लिया जा रहा है।


दूसरी तरफ कांग्रेस के नेताओं का मानना है कि सोनिया गांधी या राहुल गांधी से किसी को कोई समस्या नहीं है। कुछ कार्यकर्ताओं का यह भी कहना है कांग्रेस पार्टी और गांधी परिवार को सोशल मीडिया पर लगातार बदनाम किया जा रहा है। एक साथ गिरोह बन गया है जिसमें सोशल मीडिया के लोग, बिकी हुई मीडिया और कुछ फिल्म स्टार शामिल हैं। उन्हें देशद्रोही की तरह पेश किया जाता है। यह हिटलर का जमाना याद दिलाता है। यह एक बड़ा संघर्ष है जिससे हम मुकाबले की कोशिश में लगे हुए हैं। लेकिन पार्टी के चरित्र को निश्चित किए जाने के बाद निष्कर्ष निकलता है के कांग्रेस पार्टी समय के अनुसार खुद को नहीं बदल पा रही है और उसने अब तक भीतर से आत्म निरीक्षण नहीं किया। कांग्रेस में राजनीतिक और वैचारिक कायाकल्प का कभी गंभीर प्रयास नहीं किया गया। बेशक, कांग्रेस पार्टी आंदोलन के आधार पर खड़ी हुई और वहीं से उसका सियासी सफर शुरू हुआ जिसके कारण पार्टी में काडर नहीं बल्कि कार्यकर्ता हैं। दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी काडर आधारित पार्टी है। यहां गौर करने की चीज है कि काडर विचारधारा से बनता है जबकि पार्टी वर्कर से बनती है। वैसे बाजार में एक चर्चा है इन दिनों राजनीति मनी, मसल और मीडिया से न केवल संचालित रहती है बल्कि इसी से प्रभावित भी होती है। कांग्रेस के साथ सबसे बड़ी मजबूरी है इससे निपटने का तरीका उसको मालूम नहीं है।





इन सब मजबूरियों के बावजूद सचिन पायलट ने कांग्रेस नहीं छोड़ने का फैसला किया है और आगे के कदमों पर विचार कर रहे हैं। उनका कहना है कि पार्टी के भीतर उनकी छवि खराब करने के लिए यह लगातार बात फैलाई जा रही है वह भाजपा के साथ खड़े हैं। उन्होंने स्पष्ट कहा कि वे भाजपा में शामिल नहीं हो रहे हैं।उनका कहना है कि वह अभी भी कांग्रेस पार्टी में है और आगे क्या करना है इस पर फैसला कर रहे हैं। वह राजस्थान के लोगों की सेवा करते रहेंगे। राजनीति में अटकलबाजियां बहुत होती हैं और इनके आधार पर कोई भी निर्णय बड़ा कठिन होता है। इसलिए यहां यह कहना ही पर्याप्त है कि सब कुछ आने वाला समय बताएगा। कांग्रेस पार्टी ने भी पायलट के लिए एक खिड़की खुली रखी है और वह है अभी उन्हें पार्टी से निकाला नहीं गया है केवल पद से हटाया गया है। इसका मतलब है पायलट अभी भी कांग्रेस में हैं और कुछ भी हो सकता है। कोविड-19 के इस दौर में दो चीजों का आकलन बड़ा कठिन है पहला शारीरिक तापमान और सांस लेने की प्रक्रिया। राजस्थान की सियासत में कुछ ऐसा ही दिख रहा है, वहां के सियासी तापमान को मापना बड़ा कठिन है।

अब एक और अयोध्या विवाद



अब एक और अयोध्या विवाद


नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने दावा किया है कि भारत ने सच्चाई को तोड़ मरोड़ कर पेश किया है और राम को उत्तर प्रदेश के फैजाबाद की अयोध्या का राजा बताया है जबकि सच है किराम आज के नेपाल के किसी स्थान से आए थे। नेपाल के राष्ट्रकवि भानुभक्त आचार्य 206वीं जन्म जयंती पर आयोजित एक समारोह में ओली ने कहां की अयोध्या बिहार की सीमा बीरगंज के पश्चिमी क्षेत्र में थी। यहां यह बता देना प्रासंगिक होगा कि भानुभक्त ने बाल्मीकि रामायण का नेपाली में अनुवाद किया था। ओली ने कहा कि उत्तर प्रदेश से आकर राम ने अयोध्या में शादी की यह सही नहीं है। “ हमें सांस्कृतिक रूप में चला गया है और भारत ने वास्तविकता को तोड़ा मरोड़ा है।” ओली ने कहा कि उत्तर प्रदेश के फैजाबाद के अयोध्या का उदय बाद में हुआ और वह वास्तविक राम की राजधानी नहीं थी। उन्होंने कहा कि राम नेपाल के थे और सीता भी नेपाल की थीं। उन्होंने बारे में बताया कि बिहार की सीमा पर ठोरी एक जगह है वहीं अयोध्या थी। पुराणों में कहा गया है कि जब राम ने सीता का त्याग कर दिया तो वह अपने पुत्रों लव और कुश के साथ महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में रहती थीं। यह नारायणी( आज के गंडक) के तट पर था। यह नेपाल और बिहार की सीमा पर है और आज भी बड़ी संख्या में श्रद्धालु आ जाते हैं। ओली ने दावा किया कि जिन पंडितों ने राजा दशरथ के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ कराया था नेपाल के रिदी क्षेत्र से गए थे।


नेपाल के प्रधानमंत्री का यह बयान एक ऐसे समय में आया है जब भारत और नेपाल में पहले से ही तनाव कायम है। नेपाल में कुछ लोग इस टिप्पणी का समर्थन भी कर रहे हैं और ज्यादा लोग इसका मजाक उड़ा रहे हैं। नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टराई ने ओली के बयान पर तंज किया और ट्वीट किया कि “ होली द्वारा रचित कल युग रामायण सुनिए और सीधे बैकुंठ की यात्रा कीजिए।” नेपाल के पूर्व उपप्रधानमंत्री कमल थापा ने कहा किसी भी प्रधानमंत्री के इस तरह का आधारहीन बयान देना उचित नहीं है। प्रधानमंत्री के इस बयान पर नेपाल के वरिष्ठ पत्रकार अमित ढकाल ने भी चुटकी ली और कहा कि “श्रीलंका काशी के पास है और वहां हनुमान नगर विजय जिसका निर्माण वानर सेना ने तब किया होगा जब वे पुल बनाने के लिए वहां एकत्र हुए होंगे।”


राजनीति और कूटनीति से ऊपर है धर्म और बड़ा ही भावनात्मक मामला है। इस तरह की बयानबाजी से शर्मिंदगी के अलावा कुछ नहीं है क्योंकि अगर अयोध्या नेपाल में है और थी तो सरयू कहां है। लगता है कि ओली भारतीय मीडिया को मसाला दे रहे हैं। इस तरह की अनर्गल बातें खास करके पौराणिक तथ्यों के बारे में कहना और कह कर खुद को विद्वान महसूस करना बड़ा हास्यास्पद है। नेपाल के प्रधानमंत्री की बात को सुनकर ऐसा लगता है कि वे भारत को उकसाने के लिए उसने कुछ करते रहना चाहते हैं। नेपाल में अभी हाल में सीमा को लेकर जो कुछ बयानबाजी की है उसे कायम कटुता अभी खत्म नहीं हुई और केपी शर्मा ओली एक नया बयान देकर कटुता को बढ़ाने की कोशिश की है। राम और अयोध्या का संबंध एक ऐसा मसला है जो सदियों से भारत में विवाद का विषय बना है और इसे लेकर कई बार खून खराबे भी हुए हैं। बड़ी मुश्किल से अदालत के हस्तक्षेप के बाद मामला है और भगवान राम का मंदिर बनने की तैयारी चल रही है। ओली के इस बयान से इस स्थिति में कटुता पैदा हो सकती है। ओली जिस पार्टी के हैं उसका नाम है नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी । नाम में ही कम्युनिस्ट लगा है और कम्युनिज्म धर्म को नहीं मानता। ओली के प्रधानमंत्री पद की शपथ ले रहे थे तो उन्होंने भगवान का नाम लेने से इनकार कर दिया था और जब भारत के प्रधानमंत्री मोदी ने जनकपुर में पूजा की थी ओली उससे अलग ही थे। आश्चर्यजनक बात यह है कि इस मौके पर जब राजनीतिक पैंतरा बदलना है तो ओली को राम की याद आ गई।


विगत कुछ महीनों से भारत और नेपाल में नक्शे को लेकर तनाव चल रहा है। नेपाल ने अपने नए नक्शे में लिपुलेख, लिंपियाधुरा और काला पानी पर दावा किया है। यह तीनों इलाके फिलहाल भारत में हैं। इस नए नक्शे के बाद दोनों देशों में तनाव बढ़ता गया। पिछले साल जम्मू कश्मीर को 2 केंद्र शासित प्रदेश बनाए जाने के बाद भारत ने अपना नक्शा अपडेट किया उस समय यह तीनों इलाके भारत के थे। लेकिन नेपाल में चीनी राजदूत होउ यांकी की मुलाकात के बाद तनाव बढ़ने लगा। कहा तो यह भी गया कि ओली को हनी ट्रैप में फंसा कर यह सब करवाया जा रहा है। इस पर ओली ने बहुत कड़ी प्रतिक्रिया जाहिर की। भारतीय मीडिया के कई चैनलों पर रोक लगा दी गई। वैसे चीन के राजदूत की नेपाल में सक्रियता को देखकर वहां के लोगों ने भी इस पर आपत्ति की है।





धीरे धीरे भारत और नेपाल में तनाव बढ़ता जा रहा है। नेपाल को अपनी सीमाएं और भारत पर आर्थिक निर्भरता के बारे में सोचना चाहिए। नेपाली अर्थव्यवस्था भारत पर बहुत कुछ टिकी है। नेपाल चुकी लैंडलॉक्ड है इसलिए वह भारतीय गोदियों को अपने व्यापार के लिए इस्तेमाल करता है और लगभग 60 लाख नेपाली भारत में काम करते हैं। नेपाल को अपनी गलतियों से सीखना चाहिए मलहम वह भारत से वार्ता के लिए पूरी तरह तैयार नहीं है। सीमा विवाद एक गंभीर परिणाम हो सकते हैं भारत और नेपाल दोनों देशों को समझना चाहिए।

Tuesday, July 14, 2020

धोरों में बवंडर



धोरों में बवंडर


धोरों की धरती राजस्थान में इन दिनों सियासी बवंडर चल रहा है। स्थापित शासन संकट में आ गया है और आरोपों-प्रत्यारोपों झड़ी लगी हुई है। 2 दिन पहले मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भाजपा पर आरोप लगाया कि वह उनकी सरकार को गिराने में लगी है । उनका कहना है कि फिलहाल वे तीन तीन मोर्चों पर जूझ रहे हैं। एक तरफ तो कोरोना से दो-दो हाथ कर रहे हैं दूसरी तरफ अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए लड़ रहे हैं और अब यह तीसरा सियासी मोर्चा खुल गया है। भाजपा विधायकों की खरीद-फरोख्त में लगी है। इस खरीद-फरोख्त को लेकर स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप जांच में भी लगी है। पुलिस के इस स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप ने मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री, मुख्य सचेतक को भी जांच के लिए बुलाया था। लेकिन अब बात बदल चुकी है। अब राजस्थान की यह सियासी जंग अशोक गहलोत बनाम सचिन पायलट की हो गई है। ठीक उसी तरह जैसे मध्यप्रदेश में कमलनाथ बदाम ज्योतिरादित्य सिंधिया की हो गई थी और वहां से कांग्रेस को हाथ धोना पड़ा। सचिन पायलट का कहना है कि गहलोत की सरकार अल्पमत में आ गई है। उधर कांग्रेस का कहना है गहलोत के साथ 109 विधायक हैं। पार्टी के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने ट्वीट किया है कि “ क्या हम तभी जागेंगे जब सारे घोड़े अस्तबल से निकल जाएंगे। ” राजस्थान की यह खींचतान 2018 में उस समय से शुरू होती है जब यहां कांग्रेस की सरकार बनी और मुख्यमंत्री पद को लेकर अशोक गहलोत तथा सचिन पायलट में रस्साकशी शुरू हो गई। हालांकि, गहलोत को मुख्यमंत्री और सचिन पायलट उप मुख्यमंत्री बनाया गया। इसके बाद रस्साकशी खत्म हो गई। लेकिन अब करीब डेढ़ साल बाद एक बार फिर से राजस्थान कांग्रेस में इन दोनों शीर्ष नेताओं के बीच तनाव बढ़ता जा रहा है। तनाव का चरित्र और भारतीय राजनीतिक आचरण को देखते हुए ऐसा लग रहा है अब राजस्थान में भी वही होने जा रहा है जो मार्च में मध्यप्रदेश में हुआ। मध्य प्रदेश के ज्योतिरादित्य सिंधिया ने के माध्यम से सचिन पायलट के लिए समर्थन जताया है और कहा है कि कांग्रेस में प्रतिभा और काबिलियत के लिए बहुत कम जगह है। अब यहां जो पहला सवाल उठता है वह कि क्या सचिन पायलट कांग्रेस छोड़ेंगे? शायद ऐसा नहीं होगा क्योंकि अक्षर कांग्रेस के पुनरुत्थान की बात करते हैं और अभी भी उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया है कि क्या होने वाला है।


अगर मामला इतना लचीला है तो फिर कांग्रेस में युवा नेता और पुराने क्षेत्रीय नेताओं में तालमेल का इतना अभाव क्यों? मध्यप्रदेश में आज जो कुछ हुआ है वह तो अच्छे से दिख रहा था और अब राजस्थान में भी दिखने लगा है कि क्या होने वाला है और क्या हो रहा है। इस सारे सियासी खेल में समय और आरोपों का शौक था महत्वपूर्ण है। यह कैसे वक्त में आया जब सरकार महामारी से जूझ रही है, लॉक डाउन चल रहा है और अधिकांश राजनीतिक दल अपनी राजनीतिक गतिविधियों को खुलकर नहीं चला पा रहे हैं और ना इसमें कोई बाहरी कारक हैं। लेकिन इसमें कांग्रेस के आंतरिक डायनामिक्स का सबसे ज्यादा साबका है।


भारत की राजनीति में पायलट की है दूसरी पीढ़ी है लेकिन राजनीतिक स्टाइल में यह उससे यानी पहली पीढ़ी से बिल्कुल अलग है। आज पायलट को राजस्थान के सबसे प्रभावशाली जाति समूह गुर्जरों का समर्थन प्राप्त है। सचिन पायलट ने ऊपमुख्यमंत्री पद के लिए कठोर संघर्ष किया इससे साफ जाहिर होता है पायलट में सियासत की भूख है और महत्वाकांक्षा है साथ ही वे समझते हैं कि इस विद्रोह की क्या कीमत चुकानी पड़ेगी। इसलिए, कहा जा सकता है कि इस बार मोर्चाबंदी जरा कठोर है और वह जानते हैं इस बार यह पहले की तरह कारोबार नहीं है तथा पार्टी नेतृत्व उनकी बात सुनना चाहता है।





गहलोत एक ही पत्थर से दो शिकार करना चाहते हैं और इसलिए उन्होंने कदम थोड़ा आगे बढ़ा दिया है। गहलोत ने भाजपा पर आरोप लगाया कि वह पार्टी को तोड़ना चाहती है और इसके लिए उन्होंने एक दिखावटी जांच बैठा दी।वह थोड़ा आगे बढ़ गए उन्होंने यह नहीं समझा पालक इसका जवाब देंगे। पायलट ने इस पर गहलोत की उम्मीद से तीखी प्रतिक्रिया जाहिर की । अतीत में भी दोनों में कहासुनी हो चुकी है। विभागों के बंटवारे से लेकर गहलोत द्वारा अपने बेटे वैभव को लोकसभा चुनाव में खड़ा किए जाने की इच्छा को लेकर दोनों भिड़ गए थे। कोटा हे अस्पताल में बच्चों की मौत को लेकर भी दोनों में कहासुनी हो चुकी है। इस बार गहलोत और पायलट के बीच रस्साकशी का एक कारण को छोड़कर कोई जाहिर कारण नहीं है। लेकिन जो भी हो यह बवंडर राजस्थान में पार्टी के भविष्य को तय करेगा।

Monday, July 13, 2020

भारत की “चीन” पहेली



भारत की “चीन” पहेली


भारत में जिस तरह गीता का सम्मान है उसी तरह चीन में प्राचीन पुस्तक आई चिंग का मान है। आई चिंग में बताया गया है कि “अपनी भावनाओं पर काबू रखें अगर ऐसा नहीं करेंगे तो आगे तबाही का सामना करना पड़ेगा। ”चीन पर शासन करने वाले सम्राट समझदारी भरे इस सलाह को बहुत सम्मान देते थे। आज भी आई चिंग चीन में उसी तरह जबरदस्त असर है रखती है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी अपनी अभेद्यता के लिए दुनिया में मशहूर है और इसीलिए इसे फोरबिडेन सिटी कहते हैं।चीन इससे कई बार डिगा भी है लेकिन बाद में इसे संभाल लिया है। चीन ने कोविड-19 हो जिस तरह संभाला वह उदाहरण का मुद्दा है। अलग-अलग महा देशों में हजारों लोगों की मौत उससे भी ज्यादा प्रभावित है और उससे कई गुना ज्यादा आजीविका के खत्म होने से छीन के प्रति गुस्सा तो जरूर है और यह वास्तविक है। आगे भी यह गुस्सा कायम रहेगा। चीन का शासक अच्छी तरह समझता है इस गुस्से का व्यापक नतीजा हो सकता है। बेशक दुनिया भर का गुस्सा चीन की अर्थव्यवस्था पर प्रभाव डालेगा। यही नहीं इस गुस्से और उसके असर के कारण हो सकता है कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी योजना और सियासत दोनों खत्म हो जाए। राजनीतिक और आर्थिक रूप से चीन अलग-थलग हो जा सकता है एक आदेश हो सकता है और तब यह वैश्विक ताकत हो जाने की महत्वाकांक्षा नहीं रख सकता। जब से चीन में डेंग जियाओ पिंग का शासन था तब से चीन की सत्ता का लक्ष्य वैश्विक ताकत बनना ही था। चीन की मौज मस्ती खत्म हो गई है। आंकड़े बताते हैं कि कोविड-19 ने वैश्विक अर्थव्यवस्था की लगाम थाम ली है और सभी देश इस से मुक्त होने के लिए संघर्ष कर रहे हैं लेकिन चीन को यह गुमान है कि वह इससे बाहर निकल आएगा और उसका कुछ नहीं बिगड़ेगा तो उसने खुद का गलत आकलन किया है। पूरी दुनिया के साथ साथ चीन की अर्थव्यवस्था भी कठिनाई में पड़ी हुई है। आंकड़ों को अगर देखें तो पता चलेगा चीन में बेरोजगारी की दर लगभग 10% है, यानी हर दसवां आदमी बेकार है। कल कारखाने बंद है इसका मतलब है रोजगार में कमी। शी जिनपिंग कभी सोचा ही नहीं होगा और वायरस चीन पर इतना प्रहार करेगा। 2019 की पहली तिमाही के मुकाबले 2020 की पहली तिमाही में अर्थव्यवस्था 6.8% गिर जाएगी। यही कारण है पिछले हफ्ते चीन की सबसे महत्वपूर्ण बैठक टू सेशन्स बैठक में अर्थव्यवस्था और आगे के सभी राहों पर लंबी चर्चा हुई। इस बैठक में हुई चर्चा में सरकार का मिजाज कैसा था इसकी झलक तो जरूर मिली है। 1990 के बाद से पहली बार चीन ने सालाना जीडीपी लक्ष्य नहीं तय किया है। चीन की सरकार दोबारा वही सोच लगेगी जहां दशकों पहले थी यानी रोजगार का निर्माण लाखों लोगों की नौकरी चली गई और उन्हें फिर से खपाना इसके साथ ही ही 87 लाख ग्रेजुएट के लिए रोजगार पैदा करना, महंगाई से निपटना इत्यादि ऐसी है जो चीन के सामने प्रस्तुत है। चीन का आर्थिक व्यापार पूरी तरह से वैश्विक अर्थव्यवस्था पर निर्भर है। चीन की सरकार या चीनी सत्तारूढ़ दल के लिए अच्छा समय नहीं है। चीन की देश में आलोचना और विदेशों में निंदा हो रही है तथा भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को नीचा दिखाने के चीनी मंसूबे तार-तार हो गए। महामारी के प्रकोप से निपटने के चीनी सरकार के खासकर शी जिनपिंग तरीकों का उल्टा असर पड़ा। शी जिनपिंग के तरीके में मोह, माया, कोमलता, चिंता दया इत्यादि की कमी दिखाई पड़ी। दूर की कौड़ी लाने वाले लोग यह कहते सुने जा रहे हैं चीन की कार्रवाई भारत द्वारा धारा 370 को खत्म करने तथा जम्मू कश्मीर को पुनर्गठित करके तो अलग-अलग केंद्र शासित प्रदेश में बदलने जिसके तहत लद्दाख सीधे केंद्र सरकार के अधीन आ जाता है। चीन की वर्तमान आक्रमकता का कारण यही है। चीन ने यही कारण है ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ अपशब्दों का प्रयोग किया और उसे अमेरिका का कुत्ता कहा। जवाब में अमेरिकी राष्ट्रपति ने चीन के राष्ट्रपति सनकी कहा। ऐसा करके आई चिंग को नजरअंदाज कर रहा है, जिसमें कहा गया है ऐसा करने से कोई फायदा नहीं होगा केवल तमा ही जाएगी।





भारतीय क्षेत्र के लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर बार-बार चीन की घुसपैठ और नेपाल की ओली सरकार द्वारा भारत की छवि जमीन कब्जा करने वाले देश के रूप में पेश करने अभियान को इसी पृष्ठभूमि जाना चाहिए। भारत के गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में बयान दिया था अधिकृत कश्मीर और अक्साई चीन का नियंत्रण अपने हाथ में देंगे के लिए भारत वचनबद्ध है। यह बात समझ से परे है अगर चीन युद्ध नहीं चाहता तो वह वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भारत के रणनीतिक बुनियादी ढांचे के निर्माण से गुस्से में क्यों है? वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीन की कार्रवाई के तीन कारण हो सकते हैं पहला की कम्युनिस्ट पार्टी के नेता देश में बढ़ती दिक्कतों की वजह से लोगों की सरकार विरोधी भावनाओं को भटकाना चाहते हैं। ठीक वैसा ही जिस तरह अरब देशों में जब-जब घरेलू मुद्दों पर असंतोष बढ़ता है और वह सड़कों पर उतरते हैं तो वहां की सरकार हद स्टील के लिए समर्थन का ऐलान कर देती है। दुनिया के दूसरे हिस्सों में चीन ने अपने दूतावासों को आक्रामक अंदाज में रखा है लेकिन इस हिस्से में अपनी सेना को वास्तविक नियंत्रण रेखा के पार भेज कर भारतीय इलाके में शिविर डाल दिया है। दोनों ही चाल कम लागत वाली है। दूसरा कारण हो सकता है कि शी जिनपिंग की सरकार अपने देश की जनता को बताना चाहती है कोविड-19 के लिए उसे जो कीमत चुकानी पड़ रही है उससे चीन भले ही कमजोर हो गया है लेकिन विचलित नहीं हुआ है। शी यह दिखाना चाहते हैं कि वे हर हाल में अपराजेय हैं और दुनिया में चीन की धाक जमाने में लगे हैं। तीसरी बात है कि वह भारत को चेतावनी देना चाहता है कि महामारी की वजह से जो जगह खाली है मुझे भरने की कोशिश ना करें और खुद को सप्लाई लाइन के केंद्र के रूप में पेश न करें। लेकिन यह सब अटकलबाजी है। लड़ाई झगड़े से रोमांच तो जरूर पैदा होता है लेकिन यह मूर्खता पूर्ण है। अटल बिहारी बाजपेई ने कहा था कि कितना भी समतल क्यों न हो हर जगह ढलान है। धौंस जमाने वाले नतीजों की परवाह किए बगैर ढलान में गिर जाते हैं और जिम्मेदार ताकतें ढलान को छोड़ देती हैं।

चीन के मंसूबे ढेर



चीन के मंसूबे ढेर


सभ्यताएं बताती हैं कि आबादी के सोचने का ढंग क्या है। हमारे यहां वेदों में कहा गया है कि जैसी सभ्यता होगी वैसे ही सोचने का तरीका होगा। भारतीय सभ्यता हो अगर कुल मिलाकर देखें तो वह वसुधैव कुटुंबकम की सभ्यता है। इसका मतलब है कि हम भारतीय आक्रमण और प्रसार में भरोसा नहीं रखते जबकि चीन शब्द का मतलब है केंद्र। चीन शब्द की शुरुआत चुंग वा साम्राज्य से आरंभ हुई और इसका मतलब होता है मध्य देश। चीन के सोचने का ढंग भी कुछ ऐसा ही है कि खुद को दुनिया का केंद्र मानता है यानी दुनिया की हर चीज हर ताकत उसके चारों ओर घूमती है और वह स्वयं केंद्र में रहे। चीन खुद के लिए सबसे ज्यादा सोचता है । हम यहीं से अलग हो जाते हैं। दुनिया के दो शक्तिशाली देश जो एक दूसरे के पड़ोस में हैं वहां की आबादी यह सोचने का ढंग अलग अलग है। अतीत में गस्ती हुआ करती थी और कभी कभार दोनों देशों की सेना भी आमने-सामने आ जाती, लेकिन सैनिकों की संख्या बहुत कम होती थी , 40, 50या 100 के आसपास। परंतु इस बार पूर्वी लद्दाख में बड़ी संख्या में फौज उतर गई। चीनी सेना ने इसके लिए तैयारी की थी। यही कारण है कि हमारी सरकार कह रही है कि चीनी फौजों की यह मोर्चाबंदी सोची समझी गई थी। पूर्वी लद्दाख में फौज उतारी गई और उसे भी सीमा पर तैनात ना कर के भारतीय सीमा के थोड़ा भीतर किया गया। ऐसा रातो रात हो नहीं सकता है,इसके लिए पहले से तैयारी करनी होगी और चीन ने अप्रैल के आरंभ से ही यहां युद्धाभ्यास करने की योजना बनाई और आनन-फानन में पूर्वी क्षेत्र में सेना भेज दी गई।


चीनी सेना मोर्चे पर एकदम तैयार होकर और योजना बना कर आई थी यह अचानक नहीं हुआ था। इसे सेना की दो टुकड़ियों के बीच अचानक “फेस ऑफ” नहीं कहा जा सकता है।इसलिये हमें खुद से एक सवाल पूछना होगा कि वह ऐसा क्यों कर रहा है और इसका संदेश क्या है? अब लगता है इसके दो कारण हो सकते हैं। पहला रणनीतिक जिसे सब कोई कह सकता है यानी वास्तविक नियंत्रण रेखा पर। अब यहां यह याद करना होगा वास्तविक नियंत्रण रेखा खुद में विवादास्पद है और इसे लेकर दोनों देशों के बीच भारी वैचारिक मतभेद है। अब ऐसा लगता है कि चीन खुद एक तरफा वास्तविक नियंत्रण रेखा करना चाहता है। समरनीतिक दृष्टिकोण से देखें सचिन सीमा पर शांति चाहता है क्योंकि संबंधों को आगे बढ़ाने के लिए यह पहली जरूरत है इसलिए वह भारत को धोखे में रखना चाहता है और यह बताना चाहता है कि उसका देश एशिया में महाशक्ति है। लेकिन भारत उसे यह नहीं करने दे रहा है। गलवान घाटी में भारतीय सेना में उसे वास्तविक नियंत्रण रेखा पर रोक दिया। दोनों देशों में वार्ता के दौरान भारत की ज़िद थी कि चीन पूर्ववर्ती यथास्थिति कायम रखें इसका मतलब है कि चीन पीछे लौटे और वहां जाए जहां आरंभ में थी।


गलवान घाटी में झड़प के दौरान भारतीय सेना के 20 जवान मारे गए लेकिन कितने सैनिक मारे गए इसके बारे में कोई सही खबर नहीं है यह बात खुलेगी भी नहीं, यह उनकी आदत है। इससे साफ जाहिर होता है कि चीनी प्रशासन पारदर्शी नहीं है। चीन में जो सबसे बड़ा बदलाव आया है वह है अर्थव्यवस्था का। अगर, हम 1980 के दशक में देखते हैं पता चलेगा कि भारत और चीन की जीडीपी बराबर है परंतु आज चीन की जीडीपी लगभग 4.5 गुना ज्यादा है। 1980 के दशक में चीन डेंग जियाओ पिंग की कहावत पर चलता था चीन को अपनी ताकत को छुपाना चाहिए और अपने को बढ़ाना चाहिए। अब इस घटना के चार दशक हो गए और इस अवधि में चीन में काफी विकास हुआ लगभग 10% प्रतिवर्ष और अब उस पर शी जिनपिंग का शासन है जो उनके चीन के राष्ट्रपति होने से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि वाह चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव भी हैं। अब चीनियों को लगता है उनका समय आ गया है तथा यह दिखाना होगा में कितनी ताकत है। वह दक्षिण चीन सागर में भी कुछ ऐसा ही कर रहा है। हांगकांग में भी उसके यही करतूत हैं। इसका साफ मतलब है कि चीन में दो तरह की शासन पद्धति चल रही है एक तो वह अपने देश में संप्रभुता की बात करता है और दूसरे हांगकांग की संप्रभुता का हनन कर रहा है। ताइवान को चेतावनियां दे रहा है और अमेरिका के साथ एक तरह से तकनीकी युद्ध आरंभ कर चुका है साथ ही भारत के साथ मामला गर्म हो ही रहा है। लेकिन उसके मंसूबों पर पानी उस समय फिर गया जब भारत में खुलकर मुकाबला किया। चीन को यह उम्मीद नहीं थी। वह आज के भारत को भी 1962 का भारत समझ रहा था। लेकिन उसे क्या मालूम कि आज का भारत नरेंद्र मोदी का भारत है जिसका सूत्र वाक्य है कि शांति भंग करने वालों हम भंग कर देंगे।आज का भारत कबूतरों वाली शांति के पक्ष में नहीं है वह सोए हुए शेर की शांति का समर्थक है।


हमने लौटाए सिकंदर सिर झुकाए मात खाए


हम से भिड़ते हैं वे जिनका मन धरा से भर गया है


सिंह के दांतो से गिनती सीखने वालों के आगे


शीश देने की कला में क्या अजब है क्या नया है

अब हॉट स्प्रिंग से भी वापसी



अब हॉट स्प्रिंग से भी वापसी


गलवान घाटी से पीछे हटने के एक दिन बाद अब चीनी और भारतीय सेना हॉट स्प्रिंग के गोगरा क्षेत्र से लौट रही है। वास्तविक नियंत्रण रेखा पर शांति के लिए दोनों पक्षों में समझौते हुए और इसके बाद वहां से वापसी शुरू हो गई। लेकिन चीन पर भरोसा मुश्किल है 1962 में पंचशील के परदे के पीछे से चीन ने भारत के पीठ में छुरा भोंक दिया और इस धोखेबाजी से नेहरू इतने टूटे कि अवसाद के कारण 2 वर्ष के बाद इस दुनिया को छोड़ कर चले गए। चीन जब भी गले मिलता है तो बघनखे छिपाकर मिलता है। चीन भारत से संबंधित जितने पड़ोसी हैं सबको भारत के खिलाफ मानसिक रूप से तैयार कर रहा है। पाकिस्तान तो खैर भारत का जन्मजात दुश्मन है ही नेपाल भूटान पर भी वह जवाब दे रहा है। वैसे तो वास्तविक नियंत्रण रेखा पर दोनों देश अपने निर्माण कार्य को रोक देगा। आश्चर्यजनक रूप से चीन तैयार हो गया है लेकिन उस पर भरोसा नहीं है। भारतीय सेना भी वहां से पीछे जा रही है ताकि दोनों के बीच थोड़ी दूरी बढ़ जाए और झड़प की गुंजाइश कम रहे।


हालांकि, भारत और चीन के बीच मोर्चाबंदी उपक्रम करने की प्रक्रिया का असर हमारी सेना या दुश्मन की सेना की सतर्कता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। भारत को विवादास्पद सीमा पर नई हकीकत से निपटने के लिए तैयार रहना होगा। यहां पिछले पांच दशक के बाद बर्फ पर खून फैल गया था। इसका सबसे बड़ा कारण था दोनों से देशों की सेना में भरोसे की भारी कमी। दोनों देशों की सेना के कोर कमांडरों में बातचीत के पहले दौर के बाद दोनों देशों की सेना गलवान में पीछे हटने लगी थी लेकिन चीन की एक निगरानी चौकी के स्थल को लेकर बात बढ़ गई और इतनी बड़ी कि 15 जून को हिंसक संघर्ष हो गया जिसने भारतीय सेना के 20 जवान शहीद हो गए और चीन के कितने जवान मारे गए इसकी कोई खबर नहीं है। अब फिर दोनों देश अपने-अपने मोड़ के हटा रहे हैं लेकिन भारतीय सेना चीन की सेना के हर कदम की निगरानी कर रही है और आश्वस्त होने के बाद ही पीछे की ओर कदम उठा रही है। इसका मतलब है कि मोर्चाबंदी खत्म करने के लिए जो प्रक्रिया आरंभ हुई है उसमें काफी वक्त लगेगा। क्योंकि का जो मनोविज्ञान है उसे देखते हुए फौज का पीछे हटना और वहां टिके रहना एक दिवास्वप्न भी हो सकता है।





दोनों देशों में जो शांति की प्रक्रिया आरंभ हुई है दोनों ने अलग-अलग बयान जारी किए हैं। भारत की तरफ से जारी बयान में कहा गया है कि दोनों देशों के बीच शांति बनाए रखने के लिए और सीमा पर शांति जरूरी है। बयान में कहा गया है कि दोनों देशों की सीमा पर शांति बनी रहे और दोनों देश वास्तविक नियंत्रण रेखा का सम्मान करना चाहिए। आने वाले दिनों में ऐसा ना हो इसलिए आपसी सहमति तैयार की गई। चीन द्वारा दिए गए बयान भाषा भारत से अलग है। उधर चीन के बयान कहा गया है कि वह अपनी संप्रभुता बनाए रखने के लिए शांति बहाल करना चाहता है।





उधर चीन को लेकर भारत में विचित्र स्थिति है। पहली बार भारत मनोविज्ञान के बारे में कुछ समझ में नहीं आ रहा है। यह पता लगाना मुश्किल है कि भारतीय नेतृत्व चाहता क्या है क्या चीन के साथ संघर्ष चाहता है यह सामा कानून खत्म करना चाहिए और भावी रणनीति है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन का नाम लेकर अभी तक कुछ कहा नहीं है। उन्होंने जो कुछ भी कहा है उसे दोहराने की हिम्मत किसी भारतीय नेता में नहीं है। भारतीय सैनिकों की हौसला अफजाई के लिए और भारतीय सेना के बलिदान और पराक्रम की प्रशंसा में कह दिया कि भारतीय सीमा में प्रवेश नहीं किया है और ना भारत की जमीन पर कब्जा किया है। इसके अंधेरे पक्ष को लेकर काफी टीका टिप्पणी हुई और कई नेताओं ने तो इसे सूचना छिपाना कहा। लेकिन इसका एक प्रत्यक्ष असर दिखाई पड़ रहा है चीन के राष्ट्रपति ने अब तक भारत के खिलाफ कुछ नहीं कहा। इसे देखते हुए मोदी जी की कूटनीति की प्रशंसा करनी होगी। मोदी जी ने जिस तरह से मामले को हैंडल किया उसे अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो की प्रशंसा मिली और दबी जुबान से ही सही फ्रांस ने भी भारत की प्रशंसा की। डोभाल के साथ श्री प्रतिनिधि की बातचीत के बाद जो तनाव कम हुआ इसका मुख्य कारण था कि चीन यह समझ गया भारत के साथ दुनिया के कई बड़े दोस्त की तरह खड़े हैं। गौर करें चीन के साथ तब कौन खड़ा हुआ जिसने एलएसी पारकर हमले की बात की ,शायद कोई नहीं। यहां तक कि चीनी कर्ज के बोझ से दबा लाओस और पाकिस्तान ने भी सामने आकर कोई बात नहीं की। इसके विपरीत भारत ने दुनिया के कुछ सबसे शांत और सबसे अशांत खिलाड़ियों को अपने साथ खड़ा कर लिया। चीन के हाथ पांव फूल गए और उसने लौटने में ही कुशलता समझी। यह नरेंद्र मोदी की कूटनीति का कमाल है।

चीन के तंबू उखड़े



चीन के तंबू उखड़े


अगर समरनीतिक भाषा में कहें तो चीन के तंबू नहीं पैर उखड़ गए हैं। 15 तारीख के हमले के बाद 61 दिन के दरमियान चीन बड़ी-बड़ी बातें कर रहा था कभी नेपाल के मुंह माध्यम से, कभी पाकिस्तान के माध्यम से और कभी भूटान के माध्यम से। हालांकि चीन का मनोविज्ञान देखते हुए इस बात पर भरोसा नहीं हो रहा था कि चीन इन बड़ी-बड़ी बातों पर कायम रहेगा। क्योंकि आरंभ से ही एक व्यापारिक देश है। चीन जितनी तरक्की कर सकता था उसने व्यापार के माध्यम से ही किया। भारत ने खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया। उसके डिजिटल पैंतेरे को चारों खाने चित कर दिया तथा अन्य व्यापारिक उद्देश्यों के आगे अवरोध खड़े कर दिए। चीन की आवाज बदल गई। रविवार को भारतीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और चीनी प्रतिनिधि वांग ई में टेलीफोन पर लंबी बातचीत के बाद चीन गलवान घाटी से अपनी फौज हटाने को तैयार हो गया। हालांकि भारतीय सेना को पूरी तरह सचेत रहने के लिए कहा गया है और ज्यादा आशावादी नहीं बनने के लिए कहा गया है। चीनी सेना भारतीय सीमा में लगभग 8 किलोमीटर घुस आयी थी और उसे लौटते हुए देखा गया है। फौजें पीछे हटाने के मसले पर यह दूसरे दौर की बातचीत थी। पहले दौर की वार्ता 6 जून को हुई थी और उसके बाद 15 जून को चीन की सेना ने भारत पर हमला कर दिया। इस हमले को नाकाम बनाने की कोशिश में भारत के 20 जवान शहीद हो गए। पूरी प्रक्रिया काफी लंबी चली। चीन का चरित्र कुछ ऐसा है अभी उसके पीछे हटने पर पूरी तरह आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता है और 15 जून की घटना की पुनरावृत्ति नहीं होगी। भारत और चीन 3 दिनों के बाद इसकी जांच करेंगे कि समझौतों पर पूरी तरह अमल हुआ है या नहीं


लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा का पश्चिमी हिस्सा पड़ता है और गलवान से लेकर हॉट स्प्रिंग तक कई ऐसे स्थल जहां से चीन अप्रैल-मई में भारतीय सीमा में घुसपैठ कर चुका है। अभी जो फौज हटाने का सिलसिला चालू हुआ है उसके अंतर्गत चीन 1.5 से लेकर 2 किलोमीटर पीछे लौटेगा जबकि भारत को इतना पीछे नहीं लौटना होगा क्योंकि भारतीय सेना अपनी ही भूमि पर थी। दोनों देश की सेना बफर जोन के लिए तैयार है। इस जोन में कोई भी पक्ष नया ढांचा नहीं बनाएगा या गश्त नहीं लगाएगा। इससे जाहिर होता है चीनी सेना भारत के मुकाबले वास्तविक नियंत्रण रेखा के ज्यादा करीब है। इस समझौते में एक विवाद का बिंदु दिख रहा है वह की इस बात पर कोई समझौता नहीं हुआ है बफर जोन कब तक रहेगा। विशेषज्ञों का मानना है यह विश्वास बहाली का एक उपाय है और अप्रैल के आरंभ की स्थिति पर आने के लिए एक समय है। लेकिन एक दिलचस्प बात यह है या पीछे लौटना उस समय हुआ है जब गलवान घाटी में पानी का बहाव तेज हो गया है। अभी वहां बर्फ पिघल रही है उससे पानी के बहाव में दीजिए जिसके फलस्वरूप दोनों देशों इस सेना के लिए वहां रह पाना कठिन है। इस पूरी स्थिति को देखकर ऐसा लगता है कि इसमें चीन का एक गेम प्लान है। वह चाहता है कि शायोक गलवान नदी के आसपास भारत कोई निर्माण नहीं कर सके क्योंकि नदी की तेज धार के कारण ऐसा करना फिलहाल मुश्किल है।





सीमा समस्या को हल करने की गरज से भारत और चीन में मई से ही कूटनीतिक तथा सैन्य वार्ताएं चल रही हैं। रविवार को टेलीफोन पर डोभाल और वांग में बातचीत हुई। इसमें जो सबसे बड़ी बात तय हुई वह थी आंखे दिखाने के बदले रणनीतिक आकलन किया जाए और दोनों देश एक दूसरे को विकसित होने का अवसर प्रदान करें। लेकिन चीन अक्सर जो बोलता है वह करता नहीं है। 1962 में जो जंग हुई उसके पहले वह लगातार हिंदी चीनी भाई भाई कहता रहा था इसलिए भारत को हमेशा सतर्क रहना होगा और सीमा की नई वास्तविकता से निपटने के लिए तैयार रहना होगा। दोनों देशों में कमांडर स्तर की वार्ता के बाद पीछे हटने की प्रक्रिया शुरू हो गई थी लेकिन 15 जून को हिंसक झड़प हो गई। गलवान घाटी में जो खून बहा उसका घाव अभी ताजा है और उसे भरने में वक्त लगेगा। तनाव कम करने की इस प्रक्रिया में भारत को बहुत ज्यादा सतर्क रहना पड़ेगा और पूरी प्रक्रिया में काफी समय लगेगा। चिंता इस बात की भी है कि उल्टी दिशा में चल सकता है और इसलिए भारत को अपनी फौज कम करने के बारे में सोचना नहीं चाहिए। बेशक, समझौते की शर्तों के अनुसार सेना की संख्या और भारी हथियार हटाने होंगे लेकिन तुलनात्मक तौर पर यह भी देखना होगा उसने कितना हटाया है। डोभाल और वांग 2018 और 19 में मिल चुके हैं उस समय भी ऐसे ही समझौते हुए लेकिन चीन ने उसे भंग कर दिया और 20 भारतीय सैनिकों को अपनी जान देकर इसकी कीमत चुकानी पड़ी। इसके बाद 17 जून को विदेश मंत्री एस जयशंकर की भी वांग ई से बातचीत हुई थी। अभी हाल के समझौते के बाद भारतीय विदेश मंत्रालय ने कहा कि दोनों पक्ष चरणबद्ध तरीके से पीछे हटेंगे वास्तविक नियंत्रण रेखा का सम्मान करेंगे। भविष्य में कोई भी ऐसा कदम नहीं उठाएंगे जिससे यथास्थिति बदले। लेकिन, चीन पर पूरी तरह भरोसा करना उचित नहीं होगा।

Monday, July 6, 2020

चीन ने बदला पैंतरा



चीन ने बदला पैंतरा


अब चीन ने भूटान की पूर्वी सीमा पर दावा करना शुरू किया है और इससे दिल्ली की बेचैनी बढ़ गई है। पूर्वी भूटान के ट्रेसीगैंग इलाके में विकसित किए जाने वाले एक वन्य जीव अभयारण्य पर आपत्ति जताते हुए दावा किया है कि यह क्षेत्र उसका है। भूटान ने इसके लिए 1992 में ग्लोबल एनवायरमेंटल फैसिलिटी (जीईएफ) से समझौता किया था। यह एक अमेरिकी फर्म है। भूटान में चीन के दावे पर आपत्ति जताई है और जीईएफ ने परियोजना को पारित कर दिया है। इस परियोजना की कार्रवाई के बाद प्रकाशित रिपोर्ट में कहा गया है चीनी प्रतिनिधि ने इस पर आपत्ति जताई है। पता चला है कि भूटान चीन को अपनी आपत्ति के बारे में बता दिया है ।पता चला है कि भूटान और चीन ने सीमा मामले पर 24 बार बातें की अब अगर अगली सीमा वार्ता में चीन इस मामले को उठाता है तो भूटान इसका प्रतिरोध करेगा। यह वन्यजीव अभयारण्य भूटान के भीतरी भाग में है और इसके अंतर्गत 650 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र है। चीन ने इस पर पहले कभी आपत्ति नहीं की थी अब उसने लद्दाख की घटना के बाद शायद भारत पर दबाव बनाने के लिए आपत्ति शुरू कर दी है। यहां भी उसका वही पैंतरा है कि इस क्षेत्र में अभी सीमा का निर्धारण नहीं हुआ है और पूर्वी तथा पश्चिमी सीमा को लेकर अक्सर विवाद होता रहा है यह कोई नया विवादास्पद क्षेत्र नहीं है। चीन सदा बातचीत के लिए तैयार है। चीन ने कहा है की इस मामले में किसी तीसरे पक्ष को कुछ कहने की जरूरत नहीं है। चीन का इशारा शीशे भारत की ओर है। अब इधर भारतीय विदेश मंत्रालय चीन के दावे पर बहुत बारीकी से नजर रखे हुए। चीन और भूटान के बीच केवल उत्तरी और पश्चिमी क्षेत्र में सीमा को लेकर विवाद है। यह सब कोई जानता है कि चीन और भूटान में 1984 से लेकर 2016 के बीच 24 बार बैठकें हुई हैं। 2017 से दोनों देशों के बीच कोई बातचीत नहीं हुई है। यह बता देना जरूरी है कि 2017 में ही डोकलाम को लेकर भारत से विवाद हुआ था और उसी के बाद दोनों देशों के बीच वार्ता रुक गई। अब इधर भारत नेपाल के साथ सीमा विवाद में उलझा हुआ है भूटान की बात एक नया मोर्चा खोल दिया। जानकारों का मानना है कि चीन ने भूटान के साथ विवाद पैदा कर भारत को परेशान करना चाह रहा है।


ध्यान देने की बात है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भारत और चीन की फौज में गुत्थम गुत्था 2 महीने हो गए। पहली बार 5- 6 मई को गलवान घाटी में झड़प हुई थी और उसके बाद दोनों देशों के बीच सेना का जमावड़ा हो गया। आज जो दिखाई पड़ रहा है कि यह डोकलाम के संघर्ष से लंबा खींचेगा और उस समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और शी जिनपिंग ये बीच में समझौतो को निरस्त कर देगा। 30 जून को कोर कमांडर स्तर की वार्ता हुई थी और इससे आवाज नहीं बदले दोनों अपनी अपनी जगह जमे हुए हैं। चीन ने वास्तविक नियंत्रण रेखा पर एक तरफा फैसला ले लिया है और भारत का कहना है कि चीन पीछे लौट जाए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लद्दाख में फौजियों को संबोधित किया और कहा कि 1962 की पराजय जैसी हालत नहीं होगी। सैन्य स्तरीय वार्ता से कोई नतीजा निकलता नहीं दिख रहा है। सेना की तैनाती को लेकर विवाद बढ़ता जा रहा है और अब और सेना वहां जा रही है। कूटनीतिक स्तर पर भी बातचीत कोई नतीजा नहीं दिख रहा है। चीनी एप्स पर पाबंदी और भारत द्वारा उसके खिलाफ उठाए गए कदमों कभी कोई प्रभाव बीजिंग पर पड़ता नहीं दिख रहा है।





दोनों देशों को अपने रणनीतिक आकलन में लग जाना चाहिए। भारत के लिए जरूरी है कि वह अपनी फौज का आकलन कर ले जिससे चीन पर दबाव दिया जा सके और चीन को भी चाहिए कि वह संबंधों के स्थाई तौर पर खराब होने से रोकने के लिए कोई उपाय करे। दोनों देश मैं अगली बातचीत जल्दी होने वाली है और हो सकता है कि कोई न कोई हल निकल आए जिससे दोनों देश की सेना आमने सामने एक दूसरे को डराने के काम से बाज आए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी लद्दाख यात्रा के दौरान यह स्पष्ट कर दिया है कि भारत डरने वाला नहीं और चीन विस्तारवाद की अपनी नीति को छोड़ दे। अगर चीन अपनी हरकत से बाज नहीं आता है तो केवल एक ही रास्ता रह जाता है वह है युद्ध का। चीन भी यह बखूबी समझता होगा आज का भारत 1962 वाला नहीं है इसलिए वह भी नहीं चाहेगा जंग हो। शांति एकमात्र रास्ता है जिससे दोनों देश के लोग अपने संबंध को बनाए रखें और विकास की राह पर चलते रहें। अगर चीन अपने परमाणु बम पर ऐंठा हुआ है तो उसकी गलती है।

चीनी हमले के आईने में प्रधानमंत्री का लद्दाख दौरा



चीनी हमले के आईने में प्रधानमंत्री का लद्दाख दौरा


गलवान घाटी में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीन के हमले के बाद ऐसा लगने लगा है कि दशकों की शांति अब समाप्त हो गई। वस्तुतः भारत चीन के बीच समझौते ऐसे हैं जैसे भारत को प्रतिक्रियात्मक स्थिति उलझा देना है। ऐसा लगता है कि मोर्चाबंदी के सदा एक कदम पीछे है और चीन के उकसावे तथा गलत सूचनाओं के जंजाल में भारत हमेशा फंस जाता है। इसमें सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है और चिंताजनक भी किस सिद्धांत रूप से भारत और चीन के बीच एक समझौता हुआ जिसके तहत वास्तविक नियंत्रण रेखा से 2 किलोमीटर के दायरे में इसी प्रकार के हथियार का उपयोग नहीं करना है भारत और चीन के लिए सीमा अवधारणा अलग-अलग है उसी तरह हथियार की भी अवधारणा पृथक है। इन सारी स्थितियों में सबसे बड़ी बात क्या है कि चीन में वास्तविक नियंत्रण रेखा का फिर से निर्धारण के प्रति अनिच्छा जताई है ताकि भारत का संतुलन बिगड़ता रहे यहां तक कि उसने इस मामले में इसके पहले कभी बातचीत भी नहीं की है। नतीजा यह हुआ है कि दशकों से सीमा विवादास्पद रही है और हम उसे शांति समझते रहे हैं और सीमा के प्रति लापरवाह रहे हैं। यह पहला अवसर है प्रधानमंत्री अग्रिम मोर्चे पर खुद गए और हाल की झड़प में घायल सैनिकों से अस्पताल में जाकर मुलाकात की। बेशक इसका समर नैतिक मूल्य बहुत कम है परंतु हमारे सैनिकों का इससे मनोबल तो जरूर बढ़ेगा। भारत का सैनिक इतिहास देखें तो सीमा की स्थिति का पता चलेगा। 1962 के युद्ध के 1 साल के बाद चीन ने सिक्किम में सीमा पर निर्माण कार्य शुरू किया। क्योंकि काम चीन की तरफ हो रहा था इसलिए भारत ने कुछ किया नहीं। इसके बादअभी भारत 1965 के पाकिस्तान युद्ध से उबरा ही था कि 1967 में नाथूला में भारतीय सीमा में घुसकर चीन ने अचानक हमला कर दिया। महीनों के चीनी मोर्चाबंदी और हाथापाई कमांडर ने सीमा पर कटीले तारों की लगा दी ताकि आमने सामने की मुठभेड़ ना हो सके। खंभे गाड़े जाने लगे कि चीन की ओर से चेतावनी आने लगी। भारतीय सेना अपनी सीमा के भीतर थी और बिल्कुल खुले में थी। वहां चीनी सैनिक भी पहुंच गए और बाड़ लगाने का काम रोकने की कोशिश करने लगे। अचानक चीन की तरफ से फायरिंग शुरू हो गई। भारतीय सेना के कमांडर लेफ्टिनेंट कर्नल रायसिंह को सीने में गोलियां लगीं लेकिन वह तब तक नहीं गिरे जब तक उन्होंने उस चीनी अधिकारी का खात्मा नहीं कर दिया जिसने उन को चेतावनी दी थी और फिर उसकी मशीन गन मशीन भी छीन ली। कर्नल राय सिंह उस हमले से बच गए। चीन को अपनी सेना के लोगों के मरने की परवाह नहीं 5 घंटे तक युद्ध चला और 80 भारतीय सैनिक शहीद हुए तथा 300 चीनी सैनिक मारे गए लेकिन भारत की सेना ने नाथूला को नहीं जाने दिया। यह 9 सितंबर की घटना है। इसी के कुछ दिन बाद 1 अक्टूबर को फिर मामला उस समय गरम हो गया जब चीनियों ने समीप के ही चो ला कब्जा कर लिया और भारतीय सैनिकों से हाथापाई के दौरान एक चीनी सैनिक ने एक भारतीय जवान को संगीनों से घायल कर दिया। वहां तैनात गोरखा ब्रिगेड के जवान आग बबूला हो गए और खुखरी से चीनियों पर हमला कर दिया। चीनी भाग खड़े हुए। भारतीय सैनिकों ने उस स्थान को फिर से अपने कब्जे में ले लिया। वास्तविक नियंत्रण रेखा कायम रही।


1967 की घटना के समय पूर्वी कमान जनरल मानेक शा के हाथों में थी और वे सेना प्रमुख की भूमिका निभा रहे थे। वहां उन्होंने लोगों के सवाल के जवाब में कहा मैं अब बताऊंगा उनसे कैसे निपटा जाएगा। मानेक शा की बात सुनकर चीनी हतप्रभ रह गए और जब उन्होंने देखा वहां तैनात भारतीय फौज को अतिरिक्त भेजी जा रही है वे समझ गए कि मामला गड़बड़ होगा उन्होंने सिक्किम का नाथू ला खाली कर दिया।


नाथू ला और गलवान की मोर्चाबंदी में एक बात समान है कि चीनी वहां लगातार गश्त कर रहे हैं कर रहे हैंऔर भारतीय सैनिकों को धमका रहे हैं ताकि भारतीय फौज के जवान डर जाए लेकिन ऐसा नहीं होगा उन्होंने भी जैसे को तैसा करना शुरू कर दिया है। हमारे सैनिकों ने गलवान में जो वीरता दिखाई वह तारीफ के काबिल थी। भारत के सैनिक इतिहास में इस घटना का जिक्र स्वर्ण अक्षरों में किया जाएगा। अब जरूरी है हमारे नेता कुछ करें और इसी के तहत प्रधानमंत्री ने पहला कदम उठाया है। इसके बाद जरूरी है कि सुरक्षा संबंधी विदेश नीति में बदलाव किया जाए। अब हमें 70 साल पुरानी इस नीति को त्यागना होगा वीरता पर आधारित तैयार करनी होगी।


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लद्दाख जाने के बाद इस दिशा में परिवर्तन साफ दिखाई पड़ रहा है। भारतीय सेना ने लड़ाकू विमानों, हेलीकॉप्टरों तथा अन्य परिवहन बेड़ों की तैनाती बढ़ाने शुरू कर दी है। वायु सेना ने भारत की सैन्य तैयारियों को और मजबूत करने के लिए कई अग्रिम मोर्चे तक भारी सैन्य उपकरण और हथियार पहुंचाने के लिए सी 17 जो मास्टर 3 परिवहन विभाग और सी130 जे सुपर हर्कुलस के बेड़े भी लगाया है। एक तरफ सैनिक तैयारियां चल रही है और दूसरी तरफ कूटनीतिक एवं राजनीतिक हवा भी गर्म की जा रही है। प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में साफ कहा उदारवाद का जमाना गया तथा विकास का जमाना है। हालांकि उन्होंने चीन का नाम नहीं लिया लेकिन यदि गुंजाइश नहीं छोड़ी है कि कयास लगाया जा सके कि निशाना किस की ओर है। इसके बाद उन्होंने खोल कर कहां की हमें मालूम है इसके खतरे क्या हैं। प्रधानमंत्री ने कहा कि शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन के विस्तार वादी इरादों को सारी दुनिया समझ चुकी है और अब चीन नया सिरदर्द बन गया है। प्रधानमंत्री ने कहा लद्दाख तो चीन के लिए छोटा सा मामला है बड़ा मामला तो 83000 वर्ग किलोमीटर वाला अरुणाचल प्रदेश है और अगर वह सोच रहा है अरुणाचल को कब्जे में लेगा तो 21वीं सदी में ऐसी बातें सोचने का मतलब है आपको अपने दिमाग का इलाज कराने जरूरत है। जबरन कब्जा कभी नहीं किया जा सकता। की सलाह से चीन चौंक गया। लेकिन मोदी की इस बात से देश की सेना और देश की जनता का मनोबल तो बढ़ा ही है। बढ़े हुए मनोबल से तो कुछ भी किया जा सकता है। आजादी के बाद किसी प्रधानमंत्री ने इतने सख्त शब्दों में चीन को नहीं चेताया।

Saturday, July 4, 2020

नेपाल की राजनीति में तूफान



नेपाल की राजनीति में तूफान


नेपाल की राजनीति में तूफान आया हुआ है। गुरुवार को प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने प्रधानमंत्री पद छोड़ने के पार्टी के दबाव को मानने से इंकार कर दिया और दोनों सदन की बैठक स्थगित कर दी। स्थगन के पहले उन्होंने दोनों सदन के अध्यक्षों से भी परामर्श नहीं किया। उनके इस कदम से माओवादी नेता अत्यंत गुस्से में है। पूर्व प्रधानमंत्री एवं माओवादी नेता पुष्प कमल दहल प्रचंड नए राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी से भेंट की और प्रधानमंत्री के इस और संवैधानिक हरकत पर विरोध किया तथा उनसे कहा कि वे इस पर कार्रवाई करें। प्रचंड और ओली दोनों सत्तारूढ़ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष हैं। पार्टी को टूटने से बचाने के लिए केंद्रीय समिति की बैठक शनिवार तक टाल दी गई है। ओली ने टिप्पणी की थी कि नेपाल के राजनीतिक भारत के साथ मिलकर उनकी सरकार को चाहता है। उनकी इस टिप्पणी पर सत्तारूढ़ दल में बवाल हो गया। पार्टी में ओली के कामकाज को लेकर भारी विवाद है खासकर भारत के साथ संबंध को लेकर। नेपाल के नए नक्शे पुष्कर संविधान संशोधन विधेयक को प्रस्तुत किए जाने कई दिन पहले ओली ने कहा था कि काठमांडू के कुछ नेता भारत के साथ मिलकर उन्हें पद से हटाना चाहते हैं। उनकी इस टिप्पणी से गुस्साए लोग साफ-साफ कहने लगे कि उन्होंने पार्टी को जटिल स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है। उन्हें पद छोड़ देना चाहिए। यह मांग जैसे-जैसे बढ़ती गई और उन पर दबाव बढ़ता गया उन्होंने वहां की संसद के दोनों सदनों की बैठक स्थगित कर दीं। अनुमान है कि कुछ विद्रोही नेताओं को मंत्री पद से हटाकर प्रधानमंत्री खुद अपनी पसंद के नेताओं को लाएंगे और यह काम जल्दी होने वाला है। ओली का कहना है कि प्रचंड ने उनकी पीठ में छुरा मारा है। ओली ने हर पैंतरा आजमाया है और दोनों देशों में सत्ता के गलियारे में यह चर्चा है कि सरकार यह सब चीन के समर्थन से कर रही है। इन बातों में तो सच्चाई हो या ना हो लेकिन चीन की छाप काठमांडू की हर गली में दिखाई पड़ती है। चाहे वह धर्म हो, अध्यात्म या फिर रहन सहन और खान पान सब जगह चीन की मौजूदगी के संकेत मिलते हैं। चीन की नेपाल में रुचि लगभग डेढ़ दशक से दिखाई पड़ती है लेकिन जब मधेसी आंदोलन हुआ तो चीन की दिलचस्पी और बढ़ गयी। उसके अफवाह तंत्र ने यह हवा फैलाई कि सब भारत का किया धरा है। इससे नेपाल में नाराजगी की लहर फैल गई। नेपाल और भारत में रोटी बेटी का रिश्ता होने के बावजूद नेपाल के पहाड़ी क्षेत्रों में और काठमांडू अभिजात्य वर्ग में भारत के प्रति शंका दिखाई पड़ने लगी। अचानक 2016 में नोटबंदी हुई उससे नेपाल और नाराज हो गया। भारत नेपाल से आए चलन से बाहर हुए नोटों को बदलने से लगातार टालता रहा। यह भारत के प्रति नेपाल की नाराजगी का मुख्य कारण बताया जाता है। अभी जो कुछ नेपाल में हो रहा है उससे साफ लगता है कहीं न कहीं चीन की भूमिका है। वह भारत से नेपाल के संबंध को कमजोर कर अपने हितों को साधना चाहता है। नेपाल के वर्तमान प्रधानमंत्री का चीन से नजदीकी रिश्ता है यह सब जानते हैं लेकिन अभी जो हालात पैदा हुए हैं उससे साफ जाहिर हो रहा है कि ओली अलग-थलग पड़ गए। 2016 में प्रचंड ने ओली को सत्ता से हटाया था उस समय चीन का सरकार समर्थित पत्र ग्लोबल टाइम्स ने लिखा था कि काठमांडू वैसे बीजिंग के साथ का मौका गंवा सकता है। इससे साफ जाहिर होता है कि चीन नेपाल की राजनीति को कैसे देखता है।


इसके पहले भी भारत और नेपाल में दो एक बार जिच पैदा हुई थी। इसे बातचीत के जरिए और कूटनीतिक समझ बूझ के साथ सुलझा दिया गया। 1960 की घटना है जब राजा महेंद्र ने भारत को यह कह कर डाल दिया कि चीन द्वारा बनाई गई सड़क नेपाल और तिब्बत को जोड़ने के लिए है और इसका महत्व केवल विकास के लिए बाकी कुछ नहीं और इस सड़क का रणनीतिक उद्देश्य तो बिल्कुल नहीं है। 1980 में जब महाराजा विरेंद्र नेपाल में सत्तारूढ़ तो उन्होंने चीन द्वारा सड़क बनाने के एक ठेके को रद्द कर दिया था। 210 किलोमीटर लंबी सड़क कोहलपुर से बनबसा के बीच थी और भारतीय सीमा के करीब थी। बाद में महाराजा विरेंद्र में यह ठेका भारत को दे दिया। इससे पता चलता है नेपाल के पूर्व शासकों ने भारत से कैसे संबंध को साध रखा था और जब चीन और भारत के हित टकराते थे तो वह भारत के पक्ष में फैसला देते थे। लेकिन हालात तब बदले जब 2005 में राजशाही को समाप्त करने के लिए नेपाल के आठ राजनीतिक दलों के बीच 12 सूत्री समझौता हुआ। इस समझौते पर हस्ताक्षर करने वालों में माओवादी भी शामिल थे। भारत नेपाल की अंदरूनी सियासत का एकमात्र कारक तत्व था। लेकिन जब भारत ने नेपाल को हिंदू राष्ट्र से एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र बनाने में खुलकर सहायता की तो नेपाल में उसके चाहने वाले धीरे-धीरे कम होने लगे । नेपाल की आंतरिक राजनीति में भारत ,अमेरिका और यूरोपीय यूनियन की बढ़ती पकड़ से चिंतित हो गया और उसने नेपाल में निवेश बढ़ाना शुरू कर दिया तथा साथ ही उस पर दबाव बनाने लगा।





अब यहां दो महत्वपूर्ण प्रश्न उभरते हैं। जब नेपाल से राज शाही खत्म हुई थी तो भारत मानता था उसकी पकड़ बढ़ेगी। लेकिन हुआ इसका विपरीत चीन के पैर वहां जमने लगे और दूसरा प्रश्न कि क्या नेपाल में भारत के लिए वातावरण तैयार करने के उद्देश्य से कोई संगठन है या नहीं। दोनों प्रश्नों के उत्तर अभी तक नहीं मिल रहे हैं। उधर ओली की सांस भी फूल गई है और कोई पैंतरा काम नहीं कर रहा है यहां तक कि हर वक्त जब ओली ऐसी स्थिति से दो-चार होते थे तो राष्ट्रवाद का पत्ता फेंका करते थे इस बार वह भी नहीं काम आ रहा है और ना भारत ही उन्हें कोई मदद कर रहा है। ऐसा लगता है पार्टी विभाजन के कगार पर है और उन्हें सत्ता से हटाया जा सकता है। अगर ऐसा होता है तो भारत के पड़ोस में एक और चीन समर्थक देश खड़ा हो जाएगा और भारत की घेराबंदी बढ़ जाएगी। इसलिए भारत को अभी से सचेत हो जाना चाहिए।

Friday, July 3, 2020

चीनी सीमा पर गर्म हो रहा है मामला



चीनी सीमा पर गर्म हो रहा है मामला


भारत में चीन के लगभग 59 एप्स पर प्रतिबंध लगा दिया। भारत के साथ ही अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया से लेकर जापान तक कई देशों ने इस पाबंदी का समर्थन किया है। अमरीकी विदेश मंत्री माइकल पॉम्पियो ने बुधवार को कहा कि भारत ने जो किया वह सही किया है और इससे चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के निगरानी का एक तंत्र खत्म हो गया। ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरीसन ने अपनी सुरक्षा रणनीति का खुलासा किया और उसमें भारत चीन की मोर्चाबंदी का भी जिक्र किया। ऑस्ट्रेलिया से लेकर जापान तक, राष्ट्र संघ से लेकर आसमान तक और यूरोप में एक ढीला ढाला रणनीति संबंध है और सब के सब भारत के कदम का समर्थन कर रहे हैं। चीन ने खुलकर भारत के इस कदम पर कुछ नहीं कहा लेकिन चुपचाप 20000 और सैनिक पूर्वी लद्दाख में भेज दिए। चीन की इस गतिविधि से ऐसा लगता है मामला जल्दी सुलझेगा नहीं। क्योंकि भारत पर दबाव बनाने की चीन की चाह पर पाकिस्तान ने भी गिलगित बालटिस्तान में नियंत्रण रेखा के निकट 20000 सैनिकों को तैनात कर दिया है। चीन के इस कदम को देखते हुए दुनिया के कई देशों में भारी आशंका उत्पन्न हो गई है और सैन्य विशेषज्ञ यह कयास लगाने लगे हैं इस विवाद के कारण मलेशिया, इंडोनेशिया और फिलीपींस जैसे देशों के लिए 17 उत्पन्न हो रहा है। अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ने इसे वर्तमान समय की चुनौती के रूप में बताया है और उन्होंने कहा कि वे सुनिश्चित करना चाहेंगे उनके साधन सही जगह पर मौजूद हैं या नहीं। अमेरिका का इशारा यूरोपियन एलाइज की तरफ है। यहां उल्लेखनीय है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका ने जर्मनी और जापान पर कब्जा किया था बाद में कब्जा तो रहा नहीं लेकिन दोनों देशों में अमेरिकी सेना की टुकड़ियां अभी मौजूद हैं। राष्ट्र संघ के आंकड़ों के अनुसार जर्मनी में लगभग 40000 अमेरिकी सैनिक और 15000 असैनिक मौजूद हैं। अमेरिका इन्हें हटाना चाह रहा है। पहले इन्हें पोलैंड भेजने की बात थी। यह चीन के लिए चेतावनी है। अमेरिका उसे यह बताना चाह रहा है कि वह एशिया प्रशांत की ओर मुड़ रहा है। ट्रंप लगातार चीन के खिलाफ बातें कर रहे हैं। हालांकि भारत इन बातों को गंभीरता से नहीं ले रहा है क्योंकि अमेरिकी सेना के पास समुद्र में लड़ने या बर्फीले पहाड़ों पर लड़ने की ट्रेनिंग नहीं है। हो सकता है अमेरिका अपने देशवासियों का ध्यान किसी एक मुद्दे से हटाकर दूसरी ओर करना चाह रहा है ।दूसरी तरफ चीन अपनी रणनीति क्षमता को बढ़ाना उसने अपनी अति महत्वाकांक्षी परियोजना बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव के तहत विश्व के किस्से में बंदरगाह बना रखा है बंदरगाहों को सड़कों से जोड़ रहा है ताकि वह अपनी सेना को जल्दी से मोब्लाइज कर सके। बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव चीन की अरबों डालर की परियोजना है जो 2013 में जिन पिंग सत्ता में आने के बाद शुरू हुई। इस परियोजना के तहत दक्षिण पूर्वी एशिया , मध्य एशिया, खाड़ी क्षेत्र, अफ्रीका और यूरोप के हिस्सों को जोड़ना है। इसके माध्यम से जमीन से लेकर समंदर तक सड़कों का जाल बिछाने वाला है।





भारत सरकार द्वारा पिछले वर्ष जम्मू और कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने और अनुच्छेद 370 को खत्म किए जाने के बाद लद्दाख सीधे केंद्र के अधीन आ गया। अब क्योंकि चीन ने अक्साई चीन पर कब्जा कर रखा है और यह भू भाग भैौगोलिक रूप से लद्दाख का हिस्सा है और चीन की महत्वाकांक्षी परियोजना इसी रास्ते से गुजरती है तो इसे लेकर झगड़ा तो पड़ेगा ही क्योंकि चीन की विस्तार वादी नीति को तेज आघात लगा है। भारत सरकार के इस कदम से उसके मकसद के सामने एक बड़ी बाधा उत्पन्न हो गई है। नरेंद्र मोदी के शासनकाल का सबसे सूझबूझ भरा कदम है। चीन यह रणनीतिक तैयारी किसी युद्ध की मंशा से बल्कि सीमा पर तनाव बढ़ाकर दमखम दिखाने की चाल है। चीन एक तरह से भारत को सीमा विवाद के माध्यम से धमकाने की कोशिश कर रहा है तरह-तरह के पैंतरे रहा है उन पैतरों में सीमा पर फौज की तैनाती और फिर बातचीत के बाद उसे थोड़ा पीछे हटा लेने की आड़ में वह साजो सामान जमा करने तथा निर्माण संबंधी तैयारियां मजबूत करने में लगा है। उधर, भारत भी उसकी मंशा को समझ रहा है और मिरर इमेज की रणनीति अपना रहा है। भारत पूरी तरह तैयार है। पड़ोसी देशों से सीमा पर लगातार घुसपैठ की गतिविधियों के मध्य नजर भारत में एक तरफ नियंत्रण रेखा और दूसरी तरफ वास्तविक नियंत्रण रेखा मध्य पड़ने वाले क्षेत्र लद्दाख में बेहतर बुनियादी ढांचा और सड़क संपर्क के साथ-साथ अब संचार नेटवर्क के विस्तार के प्रयास में है। भारत ने इसी नजरिए के अंतर्गत चीनी एप्स पर रोक लगाने के बाद दो और निर्णय किए जिससे चीन को भारी आर्थिक आघात पहुंचेगा। इसमें पहला निर्णय है कि भारत के हाईवे प्रोजेक्ट में चीनी कंपनियों का प्रवेश निषेध यही नहीं संचार मंत्रालय ने चीन की कंपनी द्वारा बीएसएनल के 4G अपग्रेडेशन का टेंडर रद्द कर दिया। भारत सरकार चीन पर हथियारों से नहीं हमला करने की तैयारी में है और ना चीन की ऐसी मंशा दिखाई पड़ रही है फिर भी दोनों तरफ से तनाव कायम है और दंडात्मक कदम उठाए जा रहे हैं। इसी को देखते हुए भारत सरकार ने चीन के आर्थिक तंत्र पर आघात किया है और चीन घबरा गया है। सीमा पर नई तैनाती इसी घबराहट को दिखाती है। यह सब संभवतः सितंबर अक्टूबर या नवंबर तक चलेगा। जब गलवान घाटी और अन्य क्षेत्रों में बर्फ जम जाएगा तो फिर सब कुछ शांत हो जाएगा। इस बीच इन चाहता है भारत को ताकत का प्रदर्शन कर कुछ हासिल कर ले। लेकिन भारत शायद ऐसा नहीं करने देगा। जब जम्मू कश्मीर को भारत में शामिल किया गया तो चीन ने तीखी प्रतिक्रिया जाहिर की थी उसी दिन लगने लगा था कि हिमालय पर बर्फ पिघलने के बाद कुछ होने वाला है। वैसे इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि कहीं ना कहीं चीन भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ करने के लिए छोटा-मोटा हमला कर दे। इसी उद्देश्य थे सीमा पर वह हालात को गर्म कर रहा है।

Thursday, July 2, 2020

अब छठ तक गरीबों को मुफ्त अनाज



अब छठ तक गरीबों को मुफ्त अनाज


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को राष्ट्र को संबोधित करते हुए कहा कि गरीब कल्याण अन्न योजना का विस्तार दिवाली और छठ तक कर दिया गया है। इसका मतलब है अगले 4 महीने तक देश के करीब 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज उपलब्ध कराया जाएगा। इसके तहत प्रति व्यक्ति 5 किलो गेहूं या 5 किलो चावल और प्रति परिवार 1 किलो चना मुफ्त मिलेगा।कोरोनावायरस महामारी में भारत सरकार ने गरीब परिवारों को यह राहत देने की योजना बनाई जिसे अब नवंबर तक विस्तार दे दिया गया है और इस योजना पर लगभग 1. 50 लाख रुपए खर्च होंगे। प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में कहा कि भारत दुनिया के अन्य देशों के मुकाबले बेहतर स्थिति में है लेकिन अनलॉक एक के पश्चात लोगों में लापरवाही बढ़ गई है तथा लोगों ने सावधानी बरतनी छोड़ दी है। जबकि अनलॉक के दौरान ज्यादा सावधानी जरूरी है और लापरवाही हानिकारक है। प्रधानमंत्री ने हिदायत दी कंटेनमेंट जोन में स्थानीय प्रशासन के नियमों को पालन करना आवश्यक है। प्रधानमंत्री ने कहा लॉकडाउन के दौरान सरकार के अलावा सिविल सोसायटी ने भी प्रयास किया कि कोई गरीब भूखा ना रहे। संकट के समय सही फैसले लेने से संकट का मुकाबला करने की ताकत कई गुना बढ़ जाती है प्रधानमंत्री ने कहा कि जब लॉकडाउन शुरू हुआ था तो प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना लाई गई। इसमें पौने दो लाख का पैकेज घोषित हुआ और 9 करोड़ से ज्यादा किसानों के खाते में 18000 करो रुपए डाले गए 20 करोड़ से अधिक महिला जन धन अकाउंट में पैसे डाले गए। अप्रैल मई और जून राशन 80 करोड़ लोगों को मुफ्त दिया गया इसके अलावा प्रति परिवार हर महीने में 1 किलो दाल भी मुफ्त दी गई। अमरीका पूरी आबादी ढाई गुना अधिक एवं ब्रिटेन की जनसंख्या से12 गुना अधिक लोगों को मोदी सरकार ने मुफ्त अनाज दिया।





कई लोग इसे मोदी सरकार का राजनीतिक दृष्टिकोण मान रहे हैं। उनका कहना है कि अगले दो-तीन महीनों में बिहार समेत कई राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। खास तौर पर उनका फोकस बिहार पर है। कुछ राजनीतिक समीक्षकों का यह मानना है कि बार-बार छठ का नाम लेकर घोषणाओं को दोहराना स्पष्ट बताता है कि मोदी जी का ध्यान बिहार पर है। लेकिन इन आलोचकों ने यह नहीं सोचा कि बिहार में जिसके लिए हुए पानी पी पीकर मोदी जी को कोस रहे हैं वहां का मुख्य पेशा और आमदनी का जरिया मेहनत मजदूरी है या फिर कृषि। बिहार में बरसात के दिनों में अनाज की भारी किल्लत रहती है और सबसे ज्यादा काम कृषि क्षेत्र में ही होता है। उसी दौरान धीरे धीरे त्योहारों का मौसम भी आता है और त्योहार ना केवल जरूरतें से बढ़ाते हैं बल्कि खर्च भी। उधर लॉकडाउन के कारण रबी की फसल का आधा अधूरा लाभ मिला। उसी दौरान बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में तेज बारिश के कारण खेतों में खड़ी रबी की फसल का सत्यानाश हो गया। साथ ही, बाहर जाकर कमाने वाले लोग महामारी के चलते घर लौट आए जिससे आमदनी शुन्य हो गई। सरकार ने शुरू में ही कठिनाइयों को समझा और मुफ्त अनाज देने की घोषणा की। आज अगर अनलॉक डाउन के तहत यह राहत बंद कर दी जाती है तो भुखमरी की स्थिति आ जाएगी। त्योहारों आना जाना इसी दरमियान शुरू होता है और यह सिलसिला छठ तक चलता रहता है। उस समय किसानों के घर में नया आना-जाना शुरू हो जाता है जिससे थोड़ी राहत मिलती है। इसी कठिनाई को ध्यान में रखकर प्रधानमंत्री ने मुफ्त अनाज देने का फैसला किया। कुछ लोगों का कहना है प्रधानमंत्री ने 17 मिनट के अपने संबोधन में चीन का जिक्र नहीं किया। अब उन लोगों को या कैसे समझाया जाए कि भाषण का लक्ष्य देश के गरीब लोग थे जिन्हें केवल मेहनत करना और जान देना आता है। यह लोग ड्राइंग रूम में बैठकर सेब खाते हुए अंतरराष्ट्रीय मसलों पर चर्चा नहीं करते। यह अपने खेतों की और अपनी गरीबी की चर्चा में डूबे रहते हैं। ऐसे लोगों को चीन की बात सुनाना बड़ा अजीब लगता है। जिन 80 करोड़ लोगों के लिए प्रधानमंत्री घोषणा कर रहे थे उनमें 80 लाख लोग भी टिक टॉक नहीं जानते होंगे और अगर नाम भी सुना होगा तो उन्होंने उपयोग नहीं किया होगा । जो आलोचक इस किस्म की बातें करते हैं वह मुख्य मसले पर से फोकस भटकाना चाहते हैं। सामाजिक तौर पर हमारे देश में जो लोग ज्यादा गरीब हैं वह ज्यादा चिंतित हैं और जो ज्यादा चिंतित हैं उनमें ज्यादातर लोग बीमार हैं। ऐसे में चीन, गलवान घाटी इत्यादि की चर्चा व्यर्थ है। आज की जो जरूरत है वह है बीमार होने पर खर्च करने के लिए पैसे कहां से आएंगे, खाना कहां से खाएंगे और तब कहीं जाकर नंबर आता है बच्चों को पढ़ाएंगे कैसे? इस स्थिति में उनकी पीड़ा पर मरहम लगाने वाला अगर दूसरी बात करता है तो वह गलती करता है। मोदी जी ने इस अवसर पर चीन की चर्चा ना करके सही काम किया है। जो लोग गरीबों को मुफ्त अनाज दिए जाने की घोषणा को राजनीति से जोड़ते हैं वह खुद नहीं समझ पाते कि उनका यह इनकार भी राजनीति प्रेरित है। जिस देश में राम की पूजा करना भी राजनीतिक घटना बन जाती है उस देश में अनाज का मुफ्त वितरण अगर राजनीति से जुड़ता है तो क्या कहा जाए?