ग्रामीण गरीबों के लिए मंदी का समय और भूख पर्यायवाची हैं। मौसमी मंदी वह समय होता है जबकि जमा किया हुआ अनाज समाप्त हो जाता है और नयी फसल आने में थोड़ा समय होता है। खाद्य पदार्थों के मूल्य में उतार-चढ़ाव, संस्थागत ऋण तक पहुंच का न होना और भंडारण की अपर्याप्त सुविधा के कारण किसानों को बाध्य होना पड़ता है कि वे पूर्व में लिए गए ऋण की अदायगी और फसल को कीड़ों इत्यादि से नष्ट होने से बचाने के लिए अपनी पैदावार (फसल) को कम कीमत पर बेच दें। इसी किसान को कुछ महीनों बाद बाजार में अधिक दाम चुकाकर पुन: अनाज खरीदना पड़ता है।
लंबे समय से भारत ऐसा देश रहा है, जहां एक तरफ तो संपन्नता और समृद्धि की चमक-दमक है तो दूसरी तरफ घोर निर्धनता है। हाल के कुछ दशकों में यह फासला और बढ़ा है। एक छोटा तबका आला दर्जे की जीवनशैली का आनंद उठा रहा है, वहीं करोड़ों लोग विकास की दौड़ में पीछे छूट गए हैं।
हमारे यहां दुनिया के सबसे अमीर लोगों की फेहरिस्त में शामिल धनकुबेर हैं तो लगभग दो करोड़ लोग भूखे पेट सोने को भी मजबूर हैं। हमारे लगभग आधे बच्चे कुपोषित हैं। इनमें भी बीस फीसदी ऐसे हैं, जो पर्याप्त पोषक आहारों के अभाव में पूर्णत: विकसित नहीं हो पाते। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने आगामी 2 नवंबर को आने वाली नयी मौद्रिक नीति से पहले जारी अपने आर्थिक विश्लेषण में खाद्य पदार्थों की महंगाई को लेकर गंभीर चिंता जताई है। उसके मुताबिक यह ढांचागत महंगाई है, जिसका असर अभी की तरह आने वाले महीनों में भी सभी चीजों के महंगा होते जाने के रूप में दिखाई पड़ेगा।
सरकार ने अब तक गेहूं, चावल, दाल, चीनी, सब्जी वगैरह की महंगाई थामने के जो भी उपाय किए हैं, वे सब के सब बेअसर साबित हुए हैं। इससे संदेह होता है कि वह इस सवाल को लेकर चिंतित भी है या नहीं। रोजाना सौ रुपए या उससे कम की कमाई में जीने वाली देश की लगभग तीन चौथाई आबादी की ज्यादातर आय खाने और तन ढकने के कपड़ों पर ही खर्च हो जाती है। पिछले साल दिसंबर में 20 प्रतिशत की सीमा पार कर जाने के बाद फिलहाल 15 प्रतिशत से ऊंची चल रही खाद्य पदार्थों की महंगाई आबादी के इस हिस्से की हैसियत बढऩे की नहीं, उसके तबाह होने की सूचना दे रही है।
आरबीआई ने देश में प्रोटीन की आपूर्ति बढ़ाने के लिए सरकार से दालों के आयात या कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का सहारा लेने की अपील की है। खुद को आम तौर पर पैसे-कौड़ी की चिंताओं में ही व्यस्त रखने वाले रिजर्व बैंक के लिए सरकार को इस तरह का सुझाव देना कोई सामान्य बात नहीं है। इससे आने वाले दौर की उन समस्याओं की थाह मिलती है, जिसे ऊंची विकास दर की संकरी दूरबीन से देख पाना वित्तमंत्रियों के लिए संभव नहीं होता।
ऐसे अवसरों पर हमारे अर्थशास्त्री दिमाग के बजाय दिल से सोचें। वे एक ऐसे वैकल्पिक अर्थशास्त्र पर भी अपना ध्यान केंद्रित करें, जो अर्थशास्त्र के सिद्धांतों के अनुरूप होने के साथ ही देश के आम जन के हित में भी हो।
खरीफ की फसलों का उत्पादन इस साल ऐतिहासिक होने का आकलन कई कृषि विज्ञानी पेश कर चुके हैं। इसके बावजूद बाजार में खाने-पीने की चीजों की कीमत कम होने का नाम नहीं ले रही है। यह खुद में एक असाधारण बात है। सरकार को देश की ऊंची विकास दर को लेकर अपनी पीठ थपथपाने के बजाय आम आदमी के सिर पर मंडरा रही इस आपदा का कोई निदान खोजना चाहिए।
भोजन से वंचित और कुपोषित आबादी की संख्या सरकार के अर्थशास्त्रियों द्वारा चिह्नित किए गए लोगों से कहीं ज्यादा है। यदि सरकार देशभर में किसानों से लाभकारी कीमतों पर खाद्य पदार्थ क्रय करती है, तो उसके पास वितरण प्रणाली के लिए खासी मात्रा में अनाज होगा। सरकार इसे जरूरतमंदों को आधी कीमतों पर मुहैया करा सकती है।
आज हमारे देश में पर्याप्त मात्रा में अन्न का उत्पादन होता है। ऐसे में सरकार यदि चाहे तो इस अन्न को हमारे एक अरब से भी ज्यादा लोगों तक पहुंचाने का खर्च वहन कर सकती है। अलबत्ता अर्थशास्त्री इसके उलट सरकार को यह हिदायत देते हैं कि उसे अपने सार्वजनिक व्ययों पर लगाम लगानी चाहिए, या उसे खाद्य पदार्थ वितरित करने के बजाय कार्यों को प्रोत्साहन देने में निवेश करना चाहिए या सस्ता या मुफ्त भोजन मुहैया कराने से किसान उत्पादन के लिए प्रेरित नहीं होंगे।
Saturday, October 30, 2010
और बढ़ेगी महंगाई
Posted by pandeyhariram at 2:38 AM 0 comments
अरुंधति राय बनाम राष्ट्र
क्या अरुंधति राय राजद्रोह की दोषी हैं ? क्या विख्यात लेखिका और सोशल वर्कर अरुंधति राय ने अपने भाषणों और कामकाज से जम्मू कश्मीर के आंदोलनकारियों के प्रति सहानुभूति दिखाकर और उनके आंदोलन को समर्थन देकर कुछ ऐसा काम किया है जिससे उन पर राष्ट्रद्रोह का मामला बनता है ?
अगर सरल परिभाषा की बात करें या सहज जानकारी की बात करें तो कह सकते हैं कि राष्ट्रद्रोह (सीडेशन) का अर्थ होता है सत्ता के खिलाफ विद्रोह और राष्ट्र के प्रति विश्वासघात का मतलब होता है राष्ट्र की सम्प्रभुता से अपने सम्बंधों को खत्म करना। या फिर ऐसे कह सकते हैं कि ..सीडेशन.. अपने देशवासियों को सत्ता के खिलाफ भड़काना है और ..ट्रीजन.. देश के विरुद्ध सक्रिय तत्वों को गुप्त रूप से मदद पहुंचाना है। जहां तक अरुंधति राय का प्रश्न है तो उन्होंने घाटी में विद्रोह या अपघात या आतंकवाद की शुरूआत नहीं की।
अरुंधति ने किया केवल यह कि घाटी में फैलते असंतोष पर ध्यान दिया,उसका विश्लेषण किया और फिर जिन्होंने वहां हथियार उठाया है, उनके प्रति सहानुभूति जाहिर की। इसलिये उनके खिलाफ देशद्रोह का मामला प्रमाणित करना शायद कठिन हो जायेगा। अरुंधति के इस ताजा अभियान का मुकाबला कश्मीर और देश के अन्य भागों में जनता के विचारों में बदलाव लाकर करना होगा, न कि उन्हें गिरफ्तार कर और मामला चला कर। उनके खिलाफ कठोर कार्यवाही से बचना होगा।
लेकिन कश्मीरियों के दुःखों को दूर करने का नुस्खा बताने वाली बेहद चालाक महिला अरुंधति से एक सवाल है कि क्या अगर कश्मीर मतांतरित न हुआ होता, हिंदू या बौद्ध ही बना रहता तो क्या आज कश्मीर समस्या होती?
हां, कश्मीर में समस्याएं तो होतीं, रोजगार और गरीबी की,अशिक्षा की और विकास की, जैसी कि शेष भारत में हैं,लेकिन कोई कश्मीर-समस्या न होती। राजनीति जब ईश्वर-अल्लाह के नाम पर चलने लगती है तो जाहिर है वह हमें आज की समस्याओं का समाधान नहीं देती।
क्या धर्म ने पाकिस्तान की समस्याओं का समाधान कर दिया है ?
नहीं, क्योंकि धर्म तो जिंदगी के बाद का रास्ता बनाता है।
हमें मालूम है कि कश्मीर के अलगाववादी आंदोलन की असलियत क्या है ? अगर कश्मीर पाकिस्तान के कब्जे में चला जाता तो वही सब कुछ पाकिस्तानी भू-स्वामी वर्ग और पाकिस्तानी सेना द्वारा वहां किया जाता, जो कबाइलियों ने 1947 में प्रारंभ किया था। अरुंधति को शायद मालूम होगा कि हुर्रियत के बिलाल गनी लोन ने स्वीकार किया है कि ये पैसों पर बिकी कायरों की जमातें हैं। पाकिस्तान का समापन किस रूप में होगा,इसका परिदृश्य सामने आने लगा है। कश्मीर को अपनी आखिरी उम्मीद मानकर वह किसी भी तरह वार्ताओं का दौर प्रारंभ करना चाहता है। पाकिस्तान से वार्ता करना तो उसके आतंकी और साजिशी स्वरूप को मान्यता देना है। अरुंधति ने अगर इतिहास पढ़ा हो तो शायद उन्हें याद होगा कि आजादी के आंदोलन के अंतिम दौर में कश्मीर को लेकर ब्रिटिश सोच बदल चुका था। यही सोच समस्या का कारण बना। माउंटबेटन उत्तरी कश्मीर के स्ट्रेटेजिक महत्व से वाकिफ थे। उन्होंने सेनाओं को जानबूझकर उड़ी से डोमेल, मुजफ्फराबाद की ओर नहीं बढऩे दिया। वह चाहते थे कि गिलगिट बालतिस्तान का क्षेत्र पाकिस्तान के कब्जे में रहे, जिससे आगे चलकर सीटो, सेंटो संगठन द्वारा उसका उपयोग सैन्य अड्डों के लिए किया जा सके। कश्मीर मामला संयुक्त राष्ट्र में ले जाने के प्रस्ताव में उनकी मुख्य भूमिका थी।
शेख अब्दुल्ला जनमत संग्रह के पक्ष में नहीं थे, लेकिन जनमत संग्रह के प्रस्ताव ने कश्मीर को एक ऐसी..ओपेन एंडेड स्कीम.. का रूप दे दिया, जिसमें कभी भी कोई भी निवेश कर सकता है। कश्मीर की इन नकली समस्याओं के कारण जो असल समस्याएं शिक्षा, रोजगार और विकास की हैं, पीछे रह गई हैं। इस जहालत के माहौल ने उन्हें राष्ट्रीय नागरिक नहीं बनने दिया।
हम सशक्त देश हैं, पर कमजोरों की तरह व्यवहार करते हैं।
गठबंधनों से आ रही सत्ताएं हमारी कमजोरी का मूल स्रोत बन गई हैं।
यहां अरुंधति से हम पूछना चाहेंगे कि आखिर कश्मीर समस्या क्या है ? क्या जो समस्या कश्मीर की है वही जम्मू की भी है ? क्या लद्दाख भी वही सोचता है जो घाटी के हुर्रियत नेता चाहते हैं? जो बात जम्मू के लिए कोई समस्या नहीं वह कश्मीर घाटी के चालीस लाख लोगों के लिए समस्या क्यों है ? अरुंधति को मालूम होना चाहिये कि यह आजादी की लड़ाई है ही नहीं। यह मूलत: एक मनोवैज्ञानिक समस्या है.. हिंदू भारत.. के साथ रहने की।
अरुंधति जैसे लोगों की साजिश के कारण वे हमारे 15 करोड़ मुसलमानों से अपने को अलग समझते हैं। कश्मीर घाटी के लोगों को अलगाववादी मानसिकता के हवाले कर दिया गया है। यह मनोविज्ञान जनमत संग्रह के अनायास स्वीकार से पैदा हुआ है। इतिहास में कहीं भी और कभी भी वोट देकर राष्ट्रीयताओं पर निर्णय नहीं हुआ।
मनोवैज्ञानिक समस्याओं का इलाज आपरेशन नहीं होता और न गिरफ्तारियां होती हैं । सशक्त राष्ट्र की तरह व्यवहार करना हमें सीखना है। युद्ध अवश्यंभावी है तो युद्ध होगा, लेकिन उसकी आशंकाओं से कमजोरों की तरह व्यवहार करना हमें समाधान की ओर नहीं ले जाता। अरुंधति जैसी दो कौड़ी के लोगों को इस देश पर भारी पडऩे से रोकना होगा और सियासत इसका इलाज नहीं है।
Posted by pandeyhariram at 2:06 AM 0 comments
Tuesday, October 26, 2010
अनर्गल बातों से बचें
मनमोहन सिंह सरकार और कांग्रेस पार्टी दोनों के लिये यह बुद्धिमानी होगी कि वे राष्ट्रीय हितों के मामले में खासकर जम्मू कश्मीर के मामले में एक सुर में बोलें। यह एहतियात अन्य मसलों में बरतें या नहीं कम से कम अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा के भारत दौरे की तैयारी के समय तो जरूर बरतें। कारण यह हे कि जम्मू कश्मीर स्थायी रूप से भारत से मिल चुका हे और वह भारत का अभिन्न अंग है। पाकिस्तान ओर चीन ने नाजायज ढंग से उसके एक बाग पर कब्जा किया हुआ है। पहले तो अमरीका चाहता था कि वह कश्मीर के मामले पर भारत और पाकिस्तान में मध्यस्थता करे, लेकिन भारत के लगातार दबाव से उसने इस बार पर जोर देना कम कर दिया है, हालांकि उसने ऐसा करना एकदम बंद नहीं किया है।
कुछ दिन पहले तो एक खबर आयी थी अमरीकी राष्ट्रपति सुरक्षा परिषद में भारत की महत्वाकांक्षा को जम्मू और कश्मीर के समाधान से जोडऩा चाहते हैं। उनका मानना है कि ऐसा करने से दक्षिण एशिया में शांति स्थापित हो जायेगी। यद्यपि अमरीकी प्रशासन ने इसका विरोध किया है पर इसमें कहीं ना कहीं थोड़ा सच तो जरूर है क्योंकि अमूमन अखबार बिल्कुल झूठ के आधार पर खबरें नहीं गढ़ते।
जरा शुरू से गौर करें। जब ओबामा नये - नये पद पर आये तो उनका विचार था कि अमरीका को कश्मीर मसले पर मध्यस्थता करनी चाहिये। इसके लिये वार्ताकार के रूप में पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन का नाम भी तय कर लिया गया था। इसके बाद पाकिस्तान ने कोशिश की कि अफगानिस्तान-पाकिस्तान के बारे हॉलब्रुक सिद्धांत को यहां भी लगा दिया जाय। जिसके अनुसार दक्षिण एशिया में सारे संकट का कारण जम्मू कश्मीर है।
भारत सरकार ने काफी कूटनीतिक प्रयास किये ताकि होलब्रुक के सिद्धांत को कश्मीर पर लागू होने से रोका जा सके। यह सब उस समय की बात हे जब सरकार और पार्टी एक सुर में बोलती थी। अब हालात बदल गये हैं। अब तो कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की कमजोरी छिपाने के लिये पार्टी महासचिव राहुल गांधी लीपापोती करते नजर आ रहे हैं और चूंकि सबको मालूम है कि राहुल ही भविष्य में प्रधानमंत्री होंगे तो उनके समर्थन तथा जी हुजूरी में सभी लगे हैं। उन्हें उमर की इस बात में कोई गलती नहीं दिख रही है कि भारत में कश्मीर का विलय नहीं हुआ था। सोनिया गांधी ने भी समर्थन किया। उनका कहना हे कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है पर विशेष दर्जे के साथ।
अब इसका निहितार्थ यह है कि यदि कश्मीर का भारत में विलय नहीं हुआ है तो उसे वहां से अलग भी किया जा सकता है। अगर तथ्य सही है, तो हो सकता है कि चिदंबरम और दिग्विजय सिंह में शातिर लड़ाई शुरू हो जाय। क्योंकि एस एम कृष्णा गृहमंत्री की कुर्सी चाहते हैं। उधर दिग्विजय और चिदंबरम आपस में उलझे हुए हैं। वोट बैंक की राजनीति में लिप्त वे दोनों पंजे लड़ा रहे हैं। लेकिन अंतत: इससे भारत के राष्ट्रीय हितों को भारी आघात पहुंचेगा। जम्मू और कश्मीर के मामले में पारंपरिक भारतीय स्थिति यह है कि जम्मू और कश्मीर भारत का अभिन्न है। पी. चिदंबरम का कहना है कि कश्मीर मसले के समाधान सुझाने वालों के लिए कोई सीमा रेखा नहीं है। चिदंबरम की बात के कई मायने हो सकते हैं और उसके दुर्भावनापूर्ण अर्थ भी निकाले जा सकते हैं। यह सब जम्मू और कश्मीर जैसे एक संवेदनशील मामले पर अक्सर बोलने के जोखिम हैं।
वैसे सोनिया गांधी और सरकार के बीच इस स्थिति पर कुछ भी कहना कठिन है पर सरकार और पार्टी को ऐसा करने से स्थिति बिगड़ सकती है और विदेशी ताकतों को इस पर बोलने का मौका मिल सकता है। अतएव हर हाल में अनर्गल बोलने से बचना होगा।
Posted by pandeyhariram at 2:29 AM 0 comments
Monday, October 25, 2010
फैलता मलेरिया बढ़ती मौतें
हर साल लाखों लोगों की जिंदगियां लीलने वाले और इंसानों के लिए अभिशाप सरीखे मलेरिया का अस्तित्व भी इंसानों के जितना ही प्राचीन है। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑव हेल्थ के आंकड़ों के मुताबिक भारत में सबसे ज्यादा मलेरिया और डेंगू के मरीज कोलकाता में पाये जाते हैं। हैरत की बात है कि मलेरिया के इलाज की दवा का ईजाद कोलकाता मेडिकल कालेज के ही एक डाक्टर ने किया था और उस समय से अब तक सरकार उसके उन्मूलन के लिये जमीन- आसमान एक किये हुए है, लेकिन उन्मूलित होना तो दूर यह फैलता ही जा रहा है। हालांकि कोलकाता या पश्चिम बंगाल में इससे होने वाली मौतों के बारे में सही आंकड़े नहीं हैं, लेकिन एक नए शोध के मुताबिक देश में मलेरिया से प्रतिवर्ष होने वाली मौतों की संख्या अनुमान से बहुत ज्यादा है।
आंकड़ों के मुताबिक भारत में मलेरिया से विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुमान से 13 गुना अधिक मौतें होती हैं। भारत में हर साल होने वाली 200,000 से ज्यादा मौतों की वजह मलेरिया बीमारी होती है। यू एस नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ और कैनेडियन इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ ने संयुक्त रूप से यह शोध किया था। इन नए आंकड़ों से दुनिया भर में मलेरिया से होने वाली मौतों की संख्या को लेकर संशय की स्थिति है। आंकड़े बताते हैं कि 70 साल से कम आयु के लोगों की हर साल होने वाली मौतों में से 205,000 मौतों की वजह मलेरिया होता है। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक भारत में 2006 में मलेरिया से 10,000-21,000 मौतें होने का अनुमान है। टोरंटो स्थित सेंटर फॉर ग्लोबल हेल्थ रिसर्च के अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि मलेरिया न केवल बच्चों को बल्कि बड़ी संख्या में युवाओं को भी मार रहा है। उन्होंने कहा कि भारत घनी आबादी वाला देश है और जहां होने वाली मौतों का एक प्रमुख कारण मलेरिया है। मच्छर काटने की वजह से होने वाली डेंगू, चिकुनगुनिया, मस्तिष्क ज्वर आदि बीमारियों की जैसी खबरें इधर कुछ सालों में आई हैं, उन्हें देखते हुए मलेरिया पर नये दावे को खारिज करना आसान नहीं है। सवाल यह है कि इलाज आसान होने के बावजूद देश में मलेरिया की स्थिति इतनी गंभीर क्यों है? इसके पीछे दवाओं के बेअसर होने, बीमारी की अनदेखी करने और देश में सामुदायिक चिकित्सा की उचित व्यवस्था नहीं होने जैसे कई कारण हैं। पिछले दिनों खबर आई थी कि मलेरिया की सबसे कारगर दवा आर्टेमिसिनिन के खिलाफ मच्छरों में प्रतिरोधी क्षमता विकसित हो गई है। क्लोरोक्विन और सल्फाडॉक्सीन आदि दवाएं पहले ही कमजोर पड़ गई थीं। दूसरी समस्या यह है कि मलेरिया में अक्सर लोग घरेलू इलाज आजमाते हैं या फिर घर पर ही बुखार-सिरदर्द की आम दवाएं मरीज को दे दी जाती हैं। गांव-देहात में तो समय से इस बात की जांच भी नहीं हो पाती कि बुखार की वजह कहीं मलेरिया तो नहीं।
देश में सामुदायिक चिकित्सा का उचित प्रबंध न होने का आशय यह है कि सरकार और प्रशासन के स्तर पर मच्छरों, पिस्सुओं आदि से होने वाली बीमारियों की रोकथाम या बचाव का कोई प्रयास नहीं किया जाता। अखबार में खबर छप जाने पर जब-तब फॉगिंग की रस्म अदायगी जरूर कर दी जाती है, लेकिन यह खानापूर्ति मच्छरों पर कोई स्थायी असर नहीं छोड़ पाती। विदेशी मदद से चलने वाले एंटी पोलियो कैंपेन के तहत लगभग हर महीने घर-घर जाकर पोलियो ड्रॉप पिलाने की व्यवस्था करने वाली सरकार ने मच्छरों से पैदा होने वाली बीमारियों से जूझने का जिम्मा लोगों पर ही छोड़ रखा है।
चिकित्सा सेवाओं के निजीकरण के इस दौर में गरीब और मध्य वर्ग कहां जाए, जिसके लिए अब लगभग सभी अस्पतालों के दरवाजे बंद रहने लगे हैं। बिल गेट्स फाउंडेशन का कहना है कि स्मॉलपॉक्स की तरह दुनिया मलेरिया से भी हमेशा के लिए छुटकारा पा सकती है, लेकिन हमारे देश में जिस तरह महामारी बनते मलेरिया की अनदेखी की जा रही है, उसमें फिलहाल इससे कोई राहत मिलती नजर नहीं आती। नयी रिपोर्ट को अपने आंकड़ों से झुठलाने के बजाय सरकार इसे एक चेतावनी की तरह ले और डेंगू-मलेरिया के खिलाफ एक बड़ा अभियान छेड़े।
Posted by pandeyhariram at 12:16 AM 0 comments
इसे सरकारहीनता ही कहेंगे
बीते हफ्ते राजधानी में एक ऐसी घटना घटी जिसने राष्ट्र के रूप में हमारे स्वाभिमान को रौंद दिया। राजधानी में कश्मीर की आजादी की पैरवी करने और सरकार पर नैतिक दबाव बनाने के लिये एक सेमिनार का आयोजन किया गया था। इस सेमिनार का विषय था.. आजादी एकमात्र रास्ता.. और इसके मुख्य वक्ता थे हुरियत कांफ्रेंस के कट्टरपंथी धड़े के नेता सैयद अली शाह गिलानी। इस सेमिनार की सबसे बड़ी चौंकाने वाली बात थी गिलानी का माओवादियों की पैरोकार अरुंधति राय से मुलाकात। इससे देशभक्ति ही आहत हुई।
हमारा संविधान सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मूलभूत अधिकार देता है। अनुच्छेद 19 में वर्णित यह अधिकार एक नागरिक के रूप में हमारी स्वतंत्रता की गारंटी है। लेकिन क्या देश की एकता व अखंडता के खिलाफ बोलना या अलगाववाद की वकालत करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में आता है?
विचारों की स्वतंत्रता का महत्व है यह माना लेकिन देशद्रोहियों को देश की राजधानी में पाकिस्तान का प्रोपगैंडा करने की इजाजत देना केवल सरकारहीनता ही कही जायेगी। गिलानी और अरुंधती राय के जहरीले राष्ट्रीय बयानों पर उन्हें गिरफ्तार कर सबक देने वाली सजा दी जानी चाहिए। बिडम्बना यह थी कि इस अवसर पर...रूट्स इन कश्मीर, पनून कश्मीर, भारतीय जनता युवा मोर्चा.. आदि संगठनों ने विरोध प्रदर्शन किया लेकिन ज्यादातर मीडिया ने इस घटना पर विशेष ध्यान नहीं दिया।
मुख्य विपक्षी दल भाजपा का कहना है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में देश के किसी भी हिस्से को अलग करने की वकालत नहीं की जा सकती। इसीलिए उसने केंद्रीय सत्ता की नाक के नीचे.. अस्वीकार्य विचारों.. के प्रचार की इजाजत देने के लिए सरकार की तीखी आलोचना की है। जवाब में केंद्रीय गृहमंत्री ने कहा है कि सरकार ने पूरे आयोजन की फिल्म बनाई है और अगर कुछ ऐसा हुआ है जो संविधान सम्मत नहीं था, तो कानून मंत्रालय की राय के बाद कार्रवाई की जाएगी।
ठीक है, लेकिन अब तो बहुत हो चुका हे। सरकार और हमारे भारतीय समाज दोनों को इसके विरोध में उठ खड़ा होना चाहिये। अगर सरकार अब भी अरुंधति राय तथा उस सेमिनार के आयोजकों पर देश द्रोह का मुकदमा नहीं चलाती तो वह किस मुंह से पूर्वोत्तर के विद्रोहियों पर यह मुकदमा चला सकती है।
यही नहीं, हमारा समाज भी इनके विरुद्ध कार्रवाई कर सकता है। कम से कम सब लोग नहीं तो जिनके हाथ में सूचना तंत्र हैं जैसे टी वी चैनल और अखबार वे तो ऐसे तत्वों की निंदा आलोचना कर उन्हें हतोत्साहित कर सकते हैं। यह मालूम है कि इन दिनों राष्ट्रभक्ति फैशन में नहीं है और राष्ट्रभक्ति की बात करने वालों को लोग गंवार समझते हैं पर उनसे एक सवाल है कि क्या देशद्रोह और देश के विखंडन को फैशन बनने से रोका नहीं जा सकता?
कश्मीर के तालिबानीकरण ने वहां की पुरानी सूफी परम्परा को भी ध्वस्त कर दिया है। कश्मीर में मुस्लिम पीर दरवेशों को भी ऋषि कहा जाता है। पर वहाबी मुस्लिम कट्टरवाद ने हिन्दू मुस्लिम एक्य के तमाम पुलों को ही तोड़ दिया है। संवैधानिक और राजनीतिक बहस के अलावा देश के जनमानस में बेचैनी की वजह दूसरी भी है। भारतीय राष्ट्र-राज्य की स्थापना को अभी छह दशक से कुछ ही ज्यादा समय हुआ है और राष्ट्रों के निर्माण के लिहाज से यह बहुत ज्यादा समय नहीं होता।
हालांकि इन छह दशकों में भारतीय राष्ट्र - राज्य ने काफी मजबूती हासिल की है, लेकिन फिर भी ऐसी घटनाएं स्वतंत्रता आंदोलन के संघर्षों और स्वतंत्र भारत के आरंभिक वर्षों में देश के एकीकरण की स्मृतियों को ताजा कर देती हैं। जरूरत इस बात की है कि अलगाव की वकालत करने वाले स्वरों को बढऩे से रोका जाए। भारतीय राष्ट्र-राज्य अपने खिलाफ किसी भी तरह के हमले की इजाजत नहीं दे सकता, चाहे वह कश्मीर के अलगाववादी हों या लाल गलियारे में फैले माओवादी। जरूरत इस बात की भी है कि देश की अखंडता से जुड़े सवालों को राजनीतिक दलों के बीच मुकाबले का विषय न बनाया जाए।
Posted by pandeyhariram at 12:08 AM 2 comments
Friday, October 22, 2010
सावधान, कहीं मामला तूल न पकड़े
श्री रामजन्मभूमि मंदिर- बाबरी मस्जिद विवाद को सुलह समझौते से हल करने के प्रयास को संतों ने खारिज कर दिया और मांग की है कि पूरी विवादित जमीन रामलला की है और इसे रामलला को सौंप दी जाय। संतों का कहना है कि इस मांग को लेकर वे उच्चतम न्यायालय का भी दरवाजा खटखटायेंगे साथ ही पूरे देश में जनजागरण अभियान चलायेंगे ताकि अधिग्रहीत परिसर रामलला को सौंपे जाने के लिए माहौल तैयार किया जा सके।
संतों का मानना है कि विवादित जमीन का विभाजन को देश के बंटवारे जैसा है इसलिए जमीन का बंटवारा पूरी तरह अस्वीकार है। मंदिर को लेकर विगत 60 वर्षों से भारत के दो प्रमुख सम्प्रदायों - हिंदुओं और मुसलमानों - में टकराहट चलती दिख रही है। आगे भी शायद यह जारी रहे।
लेकिन अगर सामाजिक मनोविज्ञान की धरातल पर आकर यदि इस हालात का विश्लेषण करें तो ऐसा महसूस होता है कि यह दो सम्प्रदायों या राष्ट्रों या संस्कृतियों की टकराहट न होकर दो विचारधाराओं की टकराहट है। अगर गहराई से देखें तो महसूस होगा कि भारत जो आज है, वह एक राष्ट्र या संस्कृति से पृथक एक विचार भी है, एक दर्शन है भारत।
आज हिंदुत्व की मुखालफत करने वाले चंद कथित ..स्युडो सेकुलर.. लोग राम जन्मभूमि परिसर पर हिंदुओं के दावे को गलत कह कर उन्हें हास्यास्पद बता रहे हें और अनका मानना हे कि 1528 में जब बाबर के फौजी सरदार मीर बाकी ने यह मस्जिद बनवाई थी, उस समय से वहां सौहार्दवश रामलला की आरती होती थी। अलग-अलग संप्रदायों से जुड़े भारतीय आजादी के साठ बरसों में भारत के धर्मनिरपेक्ष विचार के प्रति आस्थावान रहे हैं, लेकिन जो संगठन और राजनीतिक पार्टियां भारत के इस विचार के खिलाफ थे, उन्होंने अयोध्या में मस्जिद के स्थान पर राममंदिर निर्माण अभियान के रूप में हिंदुत्व के नए शक्तिशाली प्रतीक का आविष्कार किया। इस अभियान ने हिंदू बहुल के आगे अल्पसंख्यक धार्मिक विश्वास के अस्तित्व पर सवाल खड़ा कर दिया। जो भारतीय संविधान धर्म से ऊपर उठकर सभी व्यक्तियों को समान अधिकार और सुरक्षा देने का वचन देता है, इस अभियान ने उस संविधान पर ही सवालिया निशान लगा दिया। जिस जमीन पर मस्जिद थी, उस जमीन पर हिंदुओं का दावा आस्था पर आधारित था।
आस्था के आधार पर फैसला देने वालों की आलोचना करने वालों से एक बाद पूछी जा सकती है कि आखिर 1528 में वहां ही क्यों आरती होती थी, रामलला की जन्मभूमि के नाम पर दूसरी जगह क्यों नहीं ?
लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सदा क्यों हिंदू आस्थाओं पर ही आघात पहुंचाया जाता है?
कुछ लोगों का तर्क हे कि 1528 में जब मीर बाकी ने मस्जिद बनवायी उस काल में रामचरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसी दास वयस्क रहे होंगे और उन्होंने इसकी चर्चा या इस पर कोई आपत्ति नहीं उठायी, यह दलील इतनी ही व्यर्थ जितनी एक किशोर का कुतर्क।
तुलसी की रचनाओं का उद्देश्य, लक्ष्य या मनोविज्ञान भौगोलिक सीमांकन नहीं था। वे न इतिहास लेखन कर रहे थे न दस्तावेज तैयार कर रहे थे। उनका उद्देश्य समष्टि के वैराट्य का व्यष्टि में समायोजन था। एक ऐसा पाठ्य प्रयास जो अवचेतन में दृष्य - श्रव्य का प्रभाव उत्पन्न कर अवचेतन को..रेशनालाइज.. कर सके।
कथित धर्मनिरपेक्षता के घातों प्रतिघातों के बावजूद आज जन जन के हृदय में अगर राम हैं तो इसका बहुत बड़ा श्रेय तुलसी को ही जाता है। तुलसी ने आपत्ति नहीं की बल्कि एक शब्द की नयी व्युत्पत्ति कर उसे निष्पत्ति तक पहुंचा दिया।
अगर अदालत ने आस्था का आदर किया हे तो संतों की मांग सर्वथा उचित है और उस पर क्रियान्वयन भी जरूरी है। वरना संदेह है कि समाज में आंतरिक विखंडन का खतरा बढ़ सकता है। ऐसे संवेदनशील मौके पर एक मामूली प्रशासनिक गलती सदियों तक घाव बनकर रिस सकती है।
यह जब्र भी देखा है तारीख की निगाहों ने
लमहों ने खता की थी सदियों ने सजा पायी है।
Posted by pandeyhariram at 3:49 AM 0 comments
Labels: babri masjid, rammandir
Thursday, October 21, 2010
भारत का विचार और ग्राम विकास
40 के दशक के प्रतिष्ठित दार्शनिक बट्रेंड रसल ने सत्ता की व्याख्या करते हुये कहा था कि वे स्वयं तानाशाही और कम्युनिज्म के विरोधी हैं पर गांवों के विकास के लिये कम्युनिज्म और सोशलिज्म का तरीका ही सरल है।
लेकिन गांधी जी ने उसी अवधि में ग्राम विकास के.. न्यूक्लियर डिजाइन.. का समर्थन किया है। महात्मा गांधी के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई के दौरान भारत का विचार फला-फूला और विकसित हुआ। यह विचार ऐसे आजाद भारत का विचार था, जो अमीरों से छीनकर आर्थिक विकास का हामी नहीं था बल्कि कुटीर उद्योग और ग्राम विकास के आधार पर आर्थिक प्रगति के लिए एक सुरक्षित, सहिष्णु और समतावादी घर होता। लेकिन आजादी के बाद हालात और विचार दोनों बदल गये। वास्तविकता नहीं, भूगोल को प्राथमिकता दी जाने लगी। यहां भूगोल से मंतव्य है आकार का। यानी विकास में आकार का महत्व बढऩे लगा और अंग्रेजों द्वारा तैयार किये गये चार मेट्रो शहर ही विकास के मानक बनने लगे। देश का बाकी हिस्सा पिछडऩे लगा। हमारे नेता और अर्थशास्त्री यह नहीं देख पाये कि हमारी आबादी का तीन चौथाई हिस्सा गांवों और झोपडिय़ों में रहता है। वह वहां रहने के लिये इसलिये अभिशप्त हैं कि उनमें मेट्रो बसाने की कुव्वत नहीं है। भारत तब तक कमजोर रहेगा, जब तक उसकी ताकत चार परंपरागत महानगरों तक सीमित रहेगी। जब गरीबों और साधनहीनों ने अवास्तविक उम्मीदों के साथ इन शहरों की तरफ बढऩा शुरू किया तो वे शहर से ज्यादा जख्म बनकर रह गए।
यह तर्कसंगत ही है कि चारों मेट्रो शहरों को उनका आधुनिक स्वरूप देने में अंग्रेजों का महत्वपूर्ण योगदान था, जबकि भारत की ऐतिहासिक राजधानियां चाहे वह लखनऊ हो या मैसूर, पटना हो या जयपुर, ब्रिटिश राज के दौरान पतन के दौर से गुजर रही थीं।
आधुनिक भारत का पुनर्निर्माण आर्थिक और राजनीतिक सत्ता के अपने पुराने केंद्रों के इर्द-गिर्द हो रहा है। यही वह भारत है जो हमारे सामाजिक और आर्थिक इतिहास की शीशे की छतों को भेदता हुआ ऊपर बढ़ा जा रहा है। इसने मार्क्सवाद की धारणा को उलटकर रख दिया है। अमीरों से छीनकर गरीबों में बांटने की बजाय उसने अपनी ही हांडी से मक्खन निकालने की कला सिखाई है।
भारत का नया नक्शा अब दर्जनों ऐसे नये इलाकों से पटा पड़ा है, जिनके कारण श्रमशक्ति का पलायन गैरजरूरी हो जाता है। हमारा आने वाला कल बिहार, यूपी या राजस्थान के छोटे कस्बों में है। एक दशक से भी कम समय में बिहार का गया या यूपी का मऊ, कोलकाता या नोएडा को चुनौती देने लगेगा। इन क्षेत्रों में एक ऐसा आर्थिक साम्राज्य तैयार हो रहा है जिसके इर्द-गिर्द भारतीय अपने नए भविष्य का निर्माण कर सकते हैं। धीरे धीरे हम आर्थिक महाशक्ति होने की दिशा में बढ़ रहे हैं। यहां कुछ क्षण के लिये अपने निकटतम पड़ोसी चीन की समृद्धि से तुलना करें तो पता चलेगा कि मार्क्सवाद या समाजवाद के बिना भी विकास का ढांचा मजबूत और कारगर हो सकता है। हमारे व्यक्तिवादी विकास की खिल्ली उड़ाने वाले हमारे जज्बात को नहीं समझते। यह कोई मूल्य आधारित फैसला नहीं है, यह केवल मौजूदा हकीकत का आकलन है।
Posted by pandeyhariram at 12:26 AM 0 comments
Saturday, October 16, 2010
कितने मुनासिब हैं ये लोग इस सफर के लिये...
औसत वजन से कम वजन वाले 47 प्रतिशत बच्चों के इस देश में कामनवेल्थ के 101 मेडल, चमकती रोशनी, तालियों की गडग़ड़ाहट और चमत्कृत दर्शकों के इस देश की तस्वीरें जहां विदेश गयीं, वहीं खेलगांव और कनाट प्लेस के आस-पास के मैले कुचैले तथा भूखे बच्चों और अधनंगी , भूखी महिलाओं - लड़कियों की तस्वीरें भी विदेश गयी। उसके साथ गयी पिछले दिनों प्रकाशित इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट की वह रिपोर्ट भी जिसके अनुसार गरीबी, भुखमरी और कुपोषण से प्रभावित 84 देशों की सूची में भारत चीन और पाकिस्तान से ही नहीं, सूडान तक से पिछड़ा हुआ 67वें स्थान पर है। पाकिस्तान 52वें स्थान पर तथा नेपाल 56वें नंबर पर है, लेकिन असली अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगी चीन तो मात्र 7वें स्थान पर है। मतलब सारी राजनीतिक बुराइयों के बावजूद अपनी जनता की देखभाल में चीन की स्थिति हमसे बहुत है। संस्थान ने बच्चों में कुपोषण, बाल मृत्यु दर और न्यूनतम कैलोरी पा सकने वाले लोगों के अनुपात को आधार बनाया है। मनमोहन सिंह सरकार मंदी के दौर में भी प्रगति और उच्च विकास दर के दावे कर रही है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों ने तथ्यों के आधार पर साबित किया है कि यहां पड़ोसी देशों की तुलना में अधिक लोग भुखमरी के शिकार हैं तथा ऊंची विकास दर का लाभ अत्यंत गरीब लोगों को नहीं मिल पा रहा है। गरीबों के नाम पर योजनाएं ढेर सारी हैं लेकिन वितरण व्यवस्था में गड़बडिय़ों और भ्रष्टाचार के कारण आर्थिक असमानता की खाई चौड़ी होती जा रही है। मोटे अनुमान के अनुसार भारत में हर साल लगभग 25 लाख शिशुओं की अकाल मृत्यु होती है। इसी तरह 42 प्रतिशत बच्चे गंभीर कुपोषण के शिकार हैं।
अपने बच्चे को पेटभर भोजन नहीं खिला सकने से अधिक शर्मनाक बात किसी माता-पिता के लिए दूसरी नहीं हो सकती। एक तरफ जहां हमारे नवधनाढ्यों की दौलत की चमक-दमक है, वहीं दूसरी तरफ लाखों लोग तकलीफों और शर्मिदगियों का बोझा ढोने को मजबूर हैं। वे अपना पेट काटकर भी बच्चों को पर्याप्त भोजन नहीं करा पाते। भोजन के लिए बेचैन बच्चों के आंसू मां-बाप खासकर माएं नहीं देख सकतीं हैं। कई जगह तो यह भी सुनने में आता है कि जब भूखे बच्चों की तकलीफ बर्दाश्त के बाहर हो जाती है, तब मांएं तंबाकू मसलकर उन्हें अपनी अंगुलियां चूसने को दे देती हैं। इससे वे बिना कुछ खाए-पिए भी सो जाया करते हैं।
यदि बच्चे छोटे हों तो उन्हें तब तक पीटा जाता है, जब तक वे रोते-रोते न सो जाएं। लेकिन बच्चों के बड़े होने पर उन्हें भूख के साथ जीना सिखाने की कोशिश की जाती है। यह एक ऐसा सबक है, जो जिंदगी भर उनके काम आता है। क्योंकि मां-बाप को पता है कि भूख जीवन भर उन्हें सताने वाली है।
जिन लोगों के लिए भूख जिंदगी की एक क्रूर सच्चाई है, उनसे बातचीत करके बारे थोड़ा जानकर हम जैसे लोग उनकी स्थिति को थोड़ा समझ सकते हैं। उन्हें अपना जीवन बचाए रखने के लिए कड़ी मेहनत करनी होती है। वे बहुत जल्द बूढ़े और जर्जर या बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। ऐसा नहीं है कि इस तरह की रिपोर्ट पहली बार आई है। भारतीय सामाजिक-आर्थिक शोध संस्थानों के सर्वेक्षणों में भी इस तरह के निष्कर्ष सामने आ चुके हैं। असली समस्या तो बच्चों के जन्म के पहले से शुरू हो जाती है। भारत सरकार के बाल महिला कल्याण मंत्रालयों और विभागों के बावजूद गर्भवती महिलाओं को न्यूनतम भोजन देने की कोई समन्वित योजना नहीं है। माएं भूखीं हैं और उनके पेट में पल रहे बच्चे भी कुपोषित और भूखे। देश का बचपन अगर ऐसा है तो जवानी कैसी होगी इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है।
Posted by pandeyhariram at 1:15 AM 0 comments
जय हो, हम हैं कामयाब!!
महासप्तमी के दिन कामनवेल्थ गेम्स में 101 मेडल लेकर भारत ने खेल के विजय का अभियान शुरू किया। तमाम आशंकाओं और आलोचनाओं के बीच भारत ने दुनिया को दिखा दिया कि वह बड़े से बड़े आयोजन की मेजबानी करने में सक्षम हैं। आयोजन से पहले जो एक-दो देश छोटी-मोटी बातों के लिए नाक-भौंह सिकोड़ रहे थे, वे भी हमें ओलम्पिक की मेजबानी का दावेदार मानने लगे हैं। छोटी-मोटी शिकायतों को छोड़ दिया जाए तो कमोबेश तमाम मेहमान हमारे लिए प्रशंसा के भाव और संतुष्टि के साथ लौटे हैं। मैदान के बाहर हमने अतिथि देवो भव: की अपनी परंपरा निभाई, तो मैदान के भीतर मेहमानों को जबरदस्त चुनौती देकर हमारे खिलाडिय़ों ने अपने धर्म का पालन किया। एक सौ एक पदक जीतकर हमारे खिलाडिय़ों ने कामनवेल्थ गेम्स का अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया है। शूटर, पहलवान और वेटलिफ्टर कामनवेल्थ गेम्स में हमें पदक दिलाते रहे हैं, लेकिन इस बार अन्य स्पर्धाओं में भी हमारे खिलाडिय़ों ने अपनी मौजूदगी का सशक्त अहसास कराया। इसमें खास बात यह थी कि पदक विजेताओं में अधिकांश खिलाड़ी गांवों से जुड़े थे और पदक जीतने की लालसा में उन्होंने प्रशिक्षण और सुविधाओं के अभाव को आड़े नहीं आने दिया। पर इस सबके बीच यह बात तो साफ हो ही गई कि जितनी ऊर्जा और संसाधन हमने आयोजन पर खर्च की है, अगर उसका पांच-दस प्रतिशत भी खिलाडिय़ों के प्रशिक्षण पर लगाया जाय तो वे एशियाई और ओलम्पिक खेलों में भी इसी तरह पदकों की झड़ी लगा सकते हैं।
अधूरी तैयारियों को जुगाड़ के सहारे पूरा करके सफल आयोजन का सबसे बड़ा सबक यही है कि अगर हमने सब कुछ योजना के मुताबिक किया होता तो हमें किसी फेनेल या हूपर के तीर न झेलने पड़ते। गलतियों से हमने कुछ सीखा इसके लिए सबसे अच्छा रास्ता तो यही होगा कि लंदन ओलम्पिक के लिए खिलाडिय़ों को तैयार करने में अभी से जुट जाना होगा।
बुद्धिजीवियों का एक वर्ग कामनवेल्थ गेम्स के आयोजन को लेकर शुरू से ही बहुत क्रिटिकल रहा। इसमें पूर्व खेल मंत्री और कांग्रेस एम पी मणि शंकर अय्यर भी शामिल हैं जिन्होंने खेल की तुलना सर्कस शो से की थी। खेल शुरू होने से पहले मीडिया आयोजन की खामियां खोज रहा था। मगर अब खेल की सफलता ने वह कर दिखाया है, जिसकी किसी को उम्मीद न थी। आम लोगों ने जी भरकर प्रतिस्पर्धाओं का लुत्फ उठाया।
यह भरोसा मिला कि आने वाले सालों में भारत बड़े इंटरनेशनल इवेंट्स ऑर्गनाइज कर सकता है। इस बार रेकॉर्ड कायम करने वाली भारत की मेडल संख्या ने उनमें यकीन भरने का काम किया है कि वे स्पोर्ट्स में ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, कनाडा जैसे ताकतवर और स्पोर्टिंग नेशंस को भी बराबर की टक्कर दे सकते हैं। देश की गरीब जनता की जरूरतों को भुलाकर एक सर्कस शो पर करोड़ों रुपये फूंकने की दलील देने वाले गेम्स के आलोचक आगे की बजाय पीछे देखते हुए ऐसा कर रहे हैं। वे यह नहीं समझ रहे कि भारत के एक बड़ी ताकत बनने का दावा सिर्फ आंकड़ों में ही नहीं कैद रहना चाहिए। इसे तमाम क्षेत्रों में दिखाई देना चाहिए।
कामनवेल्थ गेम्स की कामयाबी ने यही किया है। उसने भारत के भविष्य की तस्वीर पेश की है - आत्मविश्वास से भरा, बुनियादी सुविधाओं से लैस, सफलता का जश्न मनाता हुआ भारत। खेलों का औपचारिक अंत हो गया, मगर हमारे पास इस सफल आयोजन का कीमती अनुभव रह गया है। यह अनुभव भविष्य में और बड़े आयोजनों की सफलता का सबब बनेगा। हमारे पास हमारे खिलाडिय़ों की हैरतअंगेज कामयाबियों के नजारे रह गए हैं, जो नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा का स्त्रोत बनेंगे। हमने खेलों में 70 हजार करोड़ रुपये झोंके, मगर कमाए कितने, इसका हिसाब शायद कोई न लगा पाए। करोड़ों लोगों के दिलोदिमाग में पैठे अनुभव का हिसाब कोई लगाए भी तो कैसे ?
Posted by pandeyhariram at 1:10 AM 0 comments
Friday, October 15, 2010
कल विजयदशमी है
कल (सत्रह अक्टूबर को ) विजयदशमी है। इस अवसर पर हम विजय की बात करते हैं। उसका अर्थ क्या है ?
क्या यह आधिपत्य है, अथवा अपने लिए किसी वैभव की प्राप्ति है ? यदि हम ध्यान से प्राचीन दिग्विजयों का वर्णन पढ़ें तो तीन बातें स्पष्ट होती हैं -
एक तो इन दिग्विजयों का उद्देश्य आधिपत्य स्थापित करना नहीं रहा हैं। कालिदास ने एक शब्द का प्रयोग किया है -...उत्खात प्रतिरोपण....। यानी उखाड़ कर फिर से रोपना। जैसे धान के बीज बोए जाते हैं, फिर पौधे होने पर उखाड़ कर पास के खेत में रोपे जाते हैं। और इस धान की फसल बोए हुए धान की अपेक्षा दुगुनी होती हैं। इसमें अपने आप में दुर्बल पौधे नष्ट हो जाते हैं और सबल पौधे अधिक सबल हो जाते हैं। यह उस क्षेत्र के हित में होता है जिसमें जीत कर पुन: उसी क्षेत्र के सुयोग्य शासक को वहां का आधिपत्य सौंपा जाता हैं। इससे उस क्षेत्र की दुर्बलताएं अपने आप नष्ट हो जाती है और उसकी शक्ति और अधिक उभर कर आ जाती है।
दूसरी बात इस प्रकार की विजय यात्रा में निहित थी कि किसी सामान्य जन को सताया नहीं जाय, उसकी खेती न नष्ट की जाय। युद्ध उस भूमि पर हो जो ऊसर हो - और युद्ध से केवल सैनिक प्रभावित हों, साधारण जन न हों। उनके युद्ध में मारे गए सैनिकों को जीतने वाला पक्ष पूरा सम्मान देता था।
विभीषण किसी भी प्रकार रावण की चिता में अग्नि देने के लिए तैयार नहीं हो रहे थे। राम ने कहा कि वैर मरने के बाद समाप्त हो जाता हैं। रावण तुम्हारे बड़े भाई थे, इसीलिए मेरे भी बड़े भाई थे, इनका उचित सम्मान के साथ अंतिम संस्कार करो।
तीसरी बात यह थी कि दिग्विजय का उद्देश्य उपनिवेश बनाना नहीं था, न अपनी रीति नीति आरोपित करना था। भारत के बाहर जिन देशों में भारत का विजय अभियान हुआ, उन देशों को भारत में मिलाया नहीं गया, उन देशों की अपनी संस्कृति समाप्त नहीं की गई, बल्कि उस संस्कृति को ऐसी पोषक सामग्री दी गई कि उस संस्कृति ने भारत की कला और साहित्य को अपनी प्रतिभा में ढाल कर कुछ सुंदरतर रूप में ही खड़ा किया।
कंपूचिया में अंकोरवाट और हिंदेशिया में ...बोरोबुदुर.. तथा ..'प्रामवनम.. इसके जीवंत प्रमाण हैं, जहां पर अपनी संस्कृति के अनुकूल उन-उन देशों के लोगों ने भारतीय धर्म-संस्कृति को नया रूप प्रदान किया। एक उद्देश्य यह अवश्य था कि नाना प्रकार के रंगों से इंद्रधनुष की रचना हो।
अब एक प्रश्न है कि केवल राम का ही विजयोत्सव क्यों इतना महत्वपूर्ण है ? उसके बाद अनेक विजय अभियान हुए। वो इतने महत्वपूर्ण क्यों नहीं हुए ? उनका उत्सव इस तरह क्यों नहीं मनाया गया ?
इसका समाधान यही है कि राम की विजय यात्रा में राम के सहायक हैं वानर व भालू जातियां। अयोध्या से कोई सेना नहीं आई थी। वह अकेले..'एक निर्वासित का उत्साह... है, जिसने राक्षसों से आक्रांत अत्यंत साधारण लोगों में आत्मविश्वास भरा और जिसने रथहीन होकर भी रथ पर चढ़े रावण के विरुद्ध लड़ाई लड़ी।
ऐसी यात्रा से ही प्रेरणा ले कर गांधी जी ने स्वाधीनता के विजय अभियान में जिन चौपाइयों का उपयोग किया वे ..रामचरितमानस.. की हैं -.. रावन रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा।.. ऐसी विजय में किसी में पराभव नहीं होता, राक्षसों का पराभव नहीं हुआ, केवल रावण के अहंकार का संहार हुआ। राक्षसों की सभ्यता भी नष्ट नहीं हुई। उसी प्रकार जैसे अंग्रेजों का पराभव नहीं हुआ। अंग्रेजों की सभ्यता नेस्तनाबूद करने का कोई प्रयत्न भी नहीं हुआ, केवल प्रभुत्व समाप्त करके जनता का स्वराज्य स्थापित करने का लक्ष्य रहा। इसलिए विजयदशमी आज विशेष महत्व रखती है।
हम खेतिहर संस्कृति वाले लोग आज भी नए जौ के अंकुर अपनी शिखा में बांधते हैं और उसी को हम जय का प्रतीक मानते हैं। आनेवाली फसल के नए अंकुर को हम अपनी जय यात्रा का आरंभ मानते हैं।
हमारे लिए विजययात्रा समाप्त नहीं होती, यह फिर से शुरू होती है, क्योंकि भोग में अतृप्ति, भोग के लिए छीना-झपटी, भय और आतंक से दूसरों को भयभीत करने का विराट अभियान, दूसरों की सुख-सुविधा की उपेक्षा, अहंकार, मद, दूसरों के सुख की ईर्ष्या- यह सभी जब तक हैं, कम हो या अधिक... विरथ रघुवीर.. को विजययात्रा के लिए निकलना ही पड़ेगा। आत्मजयी को इन शत्रुओं के ऊपर विजय प्राप्त करने के लिए नया संकल्प लेना ही होगा।
विजयदशमी के दिन लोग नीलकंठ पक्षी देखना चाहते हैं। नीलकंठ सुंदर-सा पक्षी है। गला उसका नीला होता है। उस पक्षी में लोग विषपायी शिव का दर्शन करना चाहते हैं। आत्मजयी जब विजय के लिए निकलेगा तो उसे बहुत-सा गरल पीना पड़ेगा। यह गरल अपयश का है, लोकनिंदा का है और सबसे अधिक लोकप्रियता का है। आज इस गरल को पीने के लिए कोई तैयार नहीं है।
विजयदशमी का उत्सव सार्थक होता है दक्षिण से उत्तर की राम की वापसी यात्रा से। इसमें राम रास्ते में अपने मित्र ऋषि भारद्वाज से मिलते हैं और अपने मित्र निषादराज से मिलते हैं, गंगा फिर से पार करते हैं। अंत में पहले भरत से मिलते हैं, फिर अयोध्या में प्रवेश करते हैं और सिंहासन पर आसीन होते हैं।
वस्तुत: जन-जन के मन में वनवासी राम भी तो राजा ही थे। केवल सिंहासन पर आसीन नहीं थे, किंतु सिहांसन पर उनकी पादुका आसीन थी। उनके प्रतीकचिह्न से शासन चल रहा था। भरत तो अपने को न्यायधारी मानते थे। महात्मा गांधी उसी प्रकार की स्तुति में जनता के शासक को देखना चाहते थे।
शासन तो सनातन राम का ही हैं। उनकी तरफ से प्रतिनिधि होकर, धरोहरी होकर शासन चलाना ही जनतंत्र के शासक का लक्ष्य होना चाहिए। राम का राज्याभिषेक सत्य का राज्याभिषेक है, सात्विक ज्ञान का राज्याभिषेक है।
Posted by pandeyhariram at 12:04 AM 1 comments
Thursday, October 14, 2010
पाकिस्तान की आग को भारत में फैलने से रोकें
पाकिस्तान में हाल में भीषण बाढ़ आयी थी। उससे भारी नुकसान हुआ था। इसके पहले भी वहां भूकंप आया था और जान- ओ- माल का जो नुकसान हुआ था वह इस बाढ़ से कहीं ज्यादा था।
अब पूछा जा सकता है कि आज इतने दिनों के बाद खासकर महाष्टमी के दिन पाकिस्तान की इस विपदा के विश्लेषण की क्या गरज आ पड़ी ?
प्रश्न समीचीन है लेकिन गरज इसलिये है कि इस बाढ़ ने पाकिस्तान को सामाजिक, आर्थिक तथा नैतिक रूप से एक ऐसे तिराहे पर खड़ा कर दिया है कि वहां भारी विपर्यय की आशंका बढ़ती जा रही है और वह मुल्क विखंडन के कगार पर पहुंच रहा है। अगर ऐसा होता है तो वहां के संकट का सबसे खराब असर हमारे देश पर पड़ेगा।
अगर पुराणों को मानें तो इसी दिन मर्यादा के प्रतीक राम और पुराणों के सबसे बड़े आतंकी रावण में घनघोर युद्ध चल रहा था। आज हमारा देश भी उसी तरह के एक युद्ध में खड़ा है। हमें आतंकियों के मुकाबिल होना है। इसलिये जरूरी है कि व्यूह रचना के पहले उनके बार में जान लें।
भूकम्प से बहुत बड़े नुकसान के बावजूद वह संकट एक खास भौगोलिक क्षेत्र में ही सीमित था। दूसरी बात कि उस समय वहां मुशर्रफ का शासन था और आरंभिक भ्रष्टाचार को किसी तरह से काबू कर लिया गया और राहत कार्य में सेना तथा सिविल अफसरों को झोंक दिया गया था। दूसरे कि उस भूकंप से सेना के कार्यरत अफसरों के परिजनों पर कोई ज्यादा आंच नहीं आयी थी।
जहां तक बाढ़ का सवाल है तो वह विस्तृत भौगोलिक क्षेत्र में फैला हुआ था। कहा जा सकता है कि वह पाकिस्तान के इस पार से उस पार तक फैला हुआ था। बाढ़ ने पाकिस्तान की कृषि अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचाया। खासकर पंजाब और पख्तूनकावा में तो बाढ़ से भारी नुकसान हुआ। यह वही इलाका है जहां से पाकिस्तान की सेना और पख्तून तालिबानों की भर्ती होती है। अब बाढ़ ने सेना और तालिबानों को अलग- अलग ढंग से प्रभावित किया है। सेना के जवानों के परिवार इस बाढ़ से प्रभावित हुए हैं। खेती चौपट हो गयी है। अब परिजन चाहते हैं कि वे छुट्टी लेकर आयें तथा खेती तथा घर की सुध लें लेकिन देश की स्थिति को देखते हुये उन्हें छुट्टी मिल नहीं पाती। इससे सेना के जवानों और उनके परिजनों में असंतोष बढ़ता जा रहा है। अब इस असंतोष के कारण सेना विद्रोहियों से मुकाबले से पैर पीछे खींच रही है साथ ही निचले तबके के फौजियों में तालिबानों के प्रति सहानुभूति बढ़ती जा रही है और सेना के तालिबानीकरण की राह प्रशस्त हो रही है।
बाढ़ की स्थिति पर ओसामा बिन लादेन के संदेश में इस तरह के उकसावे का जिक्र भी था। बाढ़ का जेहादियों पर दूसरे तरह का असर पड़ा है। उन्होंने मानवीय सहायता कार्य को बढ़ा दिया है और यह साबित करना चाह रहे हैं कि जेहादी ही सही हैं सरकार उनके मुकाबले क्रूर तथा असंवेदनशील है। सरकार जहां कृषि से हुई हानि का अंदाजा लगाने में नाकामयाब रही वहीं सेना के नैतिक बल को दृढ़ करने भी सफल नहीं हो सकी।
पाक सरकार और उसके अंतरराष्ट्रीय समर्थक समझते हैं कि रुपया ही सब कुछ है तथा वे रुपया दे भी रहे हैं लेकिन इससे दूरदराज के गांवों में रह रहे सैनिकों के परिवारों की समस्या का समाधान नहीं हो सका है। इसका परिणाम होगा कि पाकिस्तान में अस्थायित्व बढ़ेगा और साथ ही आतंकवाद को भी जनसमर्थन मिलेगा। ऐसे में भारत पर असर पडऩा लाजिमी है। भारत सरकार को चाहिए कि वह इस तथ्य पर गौर करे और अपने देश पर इसके असर को रोकने के लिये कमर कस ले।
Posted by pandeyhariram at 11:57 PM 0 comments
Tuesday, October 12, 2010
चीनी असंतुष्ट राजनीतिज्ञ को नोबेल : कहीं नतीजे प्रतिगामी न हो जाएं
जेल में बंद चीनी असंतुष्ट राजनीतिज्ञ लियु जियोबो को इस वर्ष का नोबेल प्राइज दिया जाना संभवत: प्रतिगामी प्रमाणित हो सकता है। जियो बो...चार्टर 08... शीर्षक के एक लोकतांत्रिक घोषणापत्र के सह लेखक हैं। उस घोषणा पत्र पर चीन के 300 से अधिक विद्वानों, साहित्यकारों ओर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने हस्ताक्षर किये हैं और उस घोषणापत्र को 10 दिसम्बर 2008 को आनलाइन प्रकाशित किया गया था। इसी दिन राष्ट्रसंघ के मानवाधिकार घोषणा की 60 वीं जयंती थी। यह घोषणापत्र सोवियत संघ के जमाने के चेकोस्लोवाकिया के चार्टर 77 की तरह है। इसमें चीनी संविधान द्वारा प्रदत्त गारंटी को लागू करने और मानवाधिकार तथा लोकतांत्रिक संस्थानों को स्वतंत्रता देने की सिफारिश की गयी है। जियाबो के इस घोषणापत्र में चेतावनी दी गयी है कि शासन में परिवर्तन के अभाव में राष्ट्रीय संकट पैदा हो सकता है। हालात में सुधार के लिये उसमें संगठन बनाने की आजादी, स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना और एक दलीय शासन प्रणाली की समाप्ति सहित 17 सुझाव दिये गये हैं। अब जियाबो को नोबेल प्राइज दिये जाने के बाद चीन को शर्म आने की जगह वहां विरोध और गुस्सा बढ़ता हुआ देखा गया।
गत 8 अक्टूबर को चीन के सबसे बड़े अंतरराष्ट्रीय पत्र..ग्लोबल टाइम्स.. ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि... जियाबो की सजा के विरोध का आधार कानूनी नहीं है। बल्कि पश्चिमी देश चीन पर अपने मूल्यों को थोपना चाहते हैं। लेकिन वे कामयाब नहीं हो सकेंगे। उल्टे नोबेल कमेटी ने अपने को ही नीचा कर लिया। कमेटी ने यह निर्णय बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं किया। लेकिन वह ओर वे सियासी ताकतें, जिनका वह प्रतिनिधित्व करती है, सब मिलकर चीन के भविष्य के विकास को अवरुद्ध नहीं कर सकतीं। चीन की कामयाबी की कहानी नोबेल प्राइज से कहीं ज्यादा प्रगल्भ है।...
पत्र के उसी अंक में रेनमिन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर शी इन होंग ने अपने एक लेख में कहा है कि....नोबेल कमिटी कहने के लिये तो स्वायत्त है और स्वतंत्र है लेकिन उसके इस कार्य ने चीन विरोधी ताकतों को मदद पहुंचायी है। इससे उसकी साख को आघात पहुंचा है और लोगों में उसके प्रति गुस्सा भड़का है।...
वैसे कथित रूप से चीन में सियासी सुधार की प्रक्रिया आरंभ हो चुकी है। हालांकि इसके कोई लक्षण कहीं नहीं दिख रहे हैं पर वह ऐसा कहता चल रहा है। लेकिन चीन में राजनीतिक सुधार का अर्थ एक दलीय शासन प्रणाली को खत्म करना नहीं है, जैसा मानवाधिकार संगठन कहते या चाहते हैं। चीन में राजनीतिक सुधार का अर्थ है एक दलीय शासन प्रणाली की कमियों की पड़ताल और उन्हें समाप्त किया जाना। चीन में बोलने की आजादी का अर्थ सरकार की रचनात्मक समीक्षा है। अब जनता को भय हो गया है कहीं चीन का विकास न रुक जाय। चीनी असंतुष्ट नेता को इनाम दिये जाने का समय चीनी नेताओं का अनुसार गलत है, क्योंकि अभी चीन में राजनीतिक और सामाजिक सुधार के दौर शुरू हुये हैं और वहां की जनता तथा सरकार के गुस्से से कहीं वह अवरुद्ध न हो जाये। अगर ऐसा होता है तो सबसे ज्यादा हानि उन लोगों को होगी, जो चीन में राजनीतिक सुधार के पक्षधर हैं।
Posted by pandeyhariram at 3:06 AM 0 comments
Friday, October 8, 2010
गांव गया था गांव से भागा
अक्टूबर के शुरू में गांव गया था। सिवान जिले के पचलखी पंचायत का खुदरा गांव। बड़े बूढ़े बताते हैं कि कभी इसका नाम खुदराज यानी ...सेल्फ गवर्नड... था। 18वीं सदी के उत्तरकाल में ग्राम पंचायती व्यवस्था वाला वह गांव था।
वक्त के दीमक ने और सामाजिक लापरवाही ने आखिर के ..ज.. को चाट लिया। कभी का निहायत पिछड़ा यह गांव अपने में कई किवंदंतियां लपेटे हुये है। सबसे प्रमाणिक है कि.. उत्तर प्रदेश के कन्नौज के समीप मुगलों और फिरंगियों में युद्ध में पराजय के बाद मुगल सेना के चंद सूरमा कान्यकुब्ज सरदारों में से शहादत के बाद बचे चार पांच सरदारों का समूह बिहार के हथुआ रियासत आया। सामाजिक पिछड़ेपन के कारण अज्ञातवास के लिये यह सबसे मुफीद जगह थी। हथुआ में भूमिहार राजा थे जो ब्राह्मणों से पूजा-पाठ के अलावा और कोई सेवा ले नहीं सकते थे और आने वाले पंडितों का दल अयाचक था। तलवार चलाने वाले हाथ न चंवर डुला सकते और न मंदिरों में घंटियां। इसीलिये राजा ने अपने राज के दूरदराज के कोने में जमीन का एक टुकड़ा उन्हें वृत्ति के रूप में दे दिया। वक्त ने सूरमाओं को खेतिहर बना दिया। वृत्ति आज भी वहां के ब्राह्मणों की काश्त में है पर सरकारी कागजात में वह वृत हो गयी है।..
बदलते समय के साथ आबादी बढ़ी और लोगों ने खेती- बाड़ी छोड़ कर नौकरी चाकरी शुरू कर दी। शिक्षा कभी इस गांव की प्राथमिकता सूची में नहीं रही। हालांकि इसी गांव के एक शिक्षक ने प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद के भी शिक्षक रहे हैं। इन दिनों वहां के नौजवान विदेशों में नौकरी को ज्यादा तरजीह देते हैं और खाड़ी के देशों में नौकरियों की धूम है। मामूली पढ़े लिखे परिवारों से भरे इस गांव में विदेश से आये पैसों के प्राचुर्य ने लोगों में अनुशासनहीनता और लापरवाही भर दी है।
गांव गुम शहर की जमीनों में,
आदमी खो गये मशीनों में।
हर तरफ आग सी लगी क्यूँ है,
देश के सावनी महीनों में।
इस समय बिहार के गांव चुनाव के प्रति जागरूक हैं। शायद ही कोई गांव का निवासी ऐसा होगा, जो चुनावी गणित में अपने को विशेषज्ञ न समझता हो। इसे देखकर तो ऐसा लगता है जैसे राग दरबारी का शनीचर हर जगह मौजूद है। अपनी जाति के वोट एवं लाठी की ताकत बढ़ाने के लिये आम आदमी जनसंख्या बढ़ाने में पूरी तरह से व्यस्त है। वह व्यस्त रहने के लिये और कोई काम नहीं करता। दबी-छुपी बेरोजगारी से पूरा गांव त्रस्त है। गांव के कई स्थानों पर लोग गोल घेरे में बैठे हुये ताश या जुआ खेलते मिल जायेंगें। इस खेल में खिलाडिय़ों की साख को ऐसे युवक प्रमाणित करते हैं, जो थानों में पुलिस से थोड़ी-बहुत जुगाड़ रखते हैं एवं वास्ता पड़ऩे पर किसी भी विवाद में दान-दक्षिणा देकर मामले को रफा-दफा कर सकतें हैं। सही मायने में यही लोग गांव में नेता हैं।
इस मामले में बाबा रामदेव का कथन सही दिखता है कि गांव की राजनीति थानों व ब्लाकों से चलती है। पुलिस का एक सिपाही या दरोगा किसी की नेतागिरी हिट कर सकता है या उसे पलीता लगा सकता है। इसलिये आमतौर पर नेतागिरी की इच्छा रखने वाला कोई भी आदमी पुलिस के खिलाफ नहीं जाता। यहां पुलिस पंचायतों के अनुसार नहीं चलती बल्कि पंचायतें पुलिस के अनुकूल कार्य करती हैं। गांव के कुछ समझदार व पढ़े लिखे लोग बताते हैं कि पंचायती राज कानून के बनने से पहले आजादी के बाद ग्राम स्वराज की संकल्पना में गांवों को विकास का केन्द्र बनाया जाना प्रस्तावित था लेकिन पता नहीं फिर कब व कैसे, गांव के स्थान पर ब्लाक व सब डिवीजन काबिज हो गये। अब केवल गांव का सचिव व कर्मचारी गांव के लिये नियुक्त होता है लेकिन उसका कार्यालय ब्लाक व तहसील में होता है और उनकी असली ताकत जिला मुख्यालय पर होती है। अब प्रधान उनकी बाट जोहते हैं, यदा-कदा इनके दर्शन गांव में होते हैं।
गांव में एक कहावत बहुत प्रचलन में है कि... 'मुखिया का चुनाव, प्रधानमंत्री के चुनाव से ज्यादा कठिन है।...वास्तव में ऐसा है भी, क्योंकि पूरे पांच साल तक का सम्बध, अब वोट निर्धारित करता है न कि गांव समाज का आपसी सम्बध। चुनाव में यह स्पष्ट रहता है कि किसने किसको वोट दिया है। अब गांव के मुखिया की हैसियत पहले के विधायक की बराबर है। यह भी बिल्कुल सच है क्योंकि अब गांव के विकास कार्यों के लिये इतना ज्यादा पैसा आता है कि उसमें हिस्सेदारी की कीमत किसी भी रंजिश को बरदाश्त कर सकती है। इस कारण से गांव में झगड़े व रजिंशे भी बढ़ी हैं। दलित गांव घोषित होने पर सरकार गांव में पैसे की थैली खोल देती है और गांववाले दलित गांव में बनने बाली सीमेंटिड सड़क पर भैंस व बैल बांधकर उपयोग में ला रहें हैं। इसे रोकना झगड़े को आमंत्रण देना है। मनरेगा का पैसा गांव का कायाकल्प करे या न करे लेकिन मुखिया का कायाकल्प कर दे रहा है। फर्जी मजदूरी का भुगतान मस्टर रोल पर दिखाया जा रहा है। शासन का जोर अभी पूरी तरह से मनरेगा के पैसे को खर्च करने पर है। गांवों में इस धन से कितनी परिसम्पत्तियों का निर्माण हुआ, इसका आकलन व प्रमाणन बाद में किया जायेगा। इसी प्रकार लगभग दर्जनों लाभकारी योजनाओं ने पंचायत चुनावों को मंहगा कर दिया है। गांव में शाम होने का इतंजार भी नहीं किया जा रहा है, मांस-मदिरा का सेवन बड़ी बेतक्कुलफी से किया जा रहा है। अब स्वाभाविक है कि जब ज्यादा पैसा खर्च होगा तो कमाई भी उसी अनुपात में की जायेगी। इसलिये एम.एल.ए. जैसे चुनाव में प्रत्येक मुखिया व बी.डी.सी, मेम्बर को मोटी रकम मिल जाती है। एम एल सी जैसे परोक्ष चुनावों में खुलकर वोटों की खरीद-फरोख्त होती है। हम इन चुनावों के समय आचार संहिता के अनुपालन पर ध्यान नहीं दे पायेंगें तो इसका असर देश में सांसदों के चुनाव तक पर पड़ेगा ही। महिलाओं के आरक्षण का सवाल हो या एस.सी,एस.टी आरक्षण का मसला चुनाव की असली डोर पुरूषों व प्रभु जातियों के हाथ में है। महिला मुखिया चयनित गांव में कभी किसी बैठक में आप उस महिला को नहीं देखेंगें जो वास्तव में प्रधान है। हां पंचायती राज का एक प्रभाव बड़ा स्पष्ट दिखाई देने लगा है कि अब गांव का कोई आदमी सरकारी दौरे को कोई तवज्जो नहीं देता, वो केवल फायदे के सरकारी कारकून को पहचानता है।
कुछ भी हो इतना सच है कि पंचायती राज ने लोकतंत्र के निचले पायदान पर खुशहाली को चाहे चंद आदमी तक ही पहुंचाया हो लेकिन आम आदमी को राजनैतिक रूप से जागरूक अवश्य किया है।
... और इस जागरुकता में गांव लोग मोह, माया, कोमलता, नफासत इत्यादि भूल गये हैं। पहले कुएं का पानी मीठा लगता है अब उसमें पक्षियों के कंकाल मिलते हैं। नहर का पानी नीला दिखता था अब वह गंदला हो गया है।
गांव के मेले में इस बार पिपुही नहीं मिली तो नातिन के लिये भोंपा खरीदना पड़ा। खुरमा और गट्टा बाजार से गायब थे और उनकी जगह बिकने वाली बेरंग जलेबियों में खमीर की खटास की जगह यीस्ट की कड़वाहट मुंह के जायके को खराब कर दे रही थी। बजरंग बली के मंदिर के चबूतरे से सटे अंडों की दुकान और सामने सड़क की पटरियों पर बकरों के गोश्त की बिक्री तेजी पर थी। बजरंग बली की मूर्ति में आकेस्ट्रा पर बजते द्विअर्थी भोजपुरी गाने और जुलूस में नाचते कूदते नौजवानों में अधिकांश के मुंह से निकलते दारू के दुर्गंध के भभके ने बचपन में देखे महाबीरी अखाड़े के मेले की रुमानियत पर मिट्टी डाल दिया।
बमुश्किल हफ्ता गुजरा और मन उचट गया। वहां से भाग निकला।
गांव गया था,गांव से भागा।
सरकारी स्कीम देखकर
पंचायत की चाल देखकर
रामराज का हाल देखकर
आंगन में दीवाल देखकर
गांव गया था, गांव से भागा।
सौ-सौ नीम हकीम देखकर
घिघियाता इंसान देखकर
कहीं नहीं ईमान देखकर
बोझ हुआ मेहमान देखकर
गांव गया था, गांव से भागा।
नये धनी का रंग देखकर
बातचीत का ढंग देखकर
पुलिस चोर के संग देखकर
मैं अपनी औकात देखकर
गांव गया था, गांव से भागा।
Posted by pandeyhariram at 3:55 AM 0 comments
सिमी और संघ की तुलना
बुधवार (छह अक्टूबर) को राहुल गांधी, पी एम इन मेकिंग, ने कह डाला कि कट्टरवाद के मामले में..राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर एस एस).. और स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑव इंडिया (सिमी)... में कोई अंतर नहीं है। हालांकि जैसी उम्मीद थी भारतीय जनता पार्टी ने इसपर तत्काल टिप्पणी की। अपनी चाल और चरित्र का डींग मारने वाली भाजपा की टिप्पणी भी डिग्री के हिसाब से उतनी ही अशालीन और असंयमित थी, जितनी राहुल की टिप्पणी। कांग्रेस की ओर से इस पर कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की गयी हे और उस राष्ट्रीय पार्टी में इस टिप्पणी को दोहराये जाने या इसका प्रचार करने जैसी जल्दीबाजी या होड़ भी नहीं दिख रही है, जैसा कि अक्सर ऐसे मौकों पर देखने को मिलता हे। जो लोग कांग्रेस का इतिहास जानते हैं, उन्हें यह अच्छी तरह मालूम है कि उसमें आरंभ से दो धड़े रहे हैं, पहला नरम दल या उदारपंथी और दूसरा गरम दल या कट्टरपंथी। अब कांग्रेस में जो उदार पंथी हैं उन्हें अपनी भावनाओं को रोकने में इस समय काफी संघर्ष करना पड़ रहा होगा।
राहुल गांधी के अब तक के वक्तव्यों के अध्ययन - विश्लेषण तथा उनकी गतिविधियों के सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक विश्लेषण से यह समझा जा सकता हे कि है उन्होंने अगर खुद से यानी अपनी सोच के आधार पर यह कहा है तो बस मुतमईन रहें कि यूं ही सहज ही कह डाला होगा, क्योंकि वे बहुत जटिल सोच वाले गंभीर राजनीतिज्ञ नहीं हैं। बहुत मुमकिन है कि उन्हें मध्य प्रदेश के दौरे के समय कांग्रेस महासचिव के रूप में यह बयान देने के लिये कनविंस किया गया होगा। क्योंकि मध्य प्रदेश के कई शहर इन दिनों सिमी के कार्यकर्ताओं तथा पदाधिकारियों की गिरफ्तारी को लेकर चर्चा का विषय बनने के बाद असहज हैं। इसी तरह मध्यप्रदेश के कई शहर संघ की गतिविधियों को लेकर खबरों में रहा करते हैं। लेकिन अब सवाल उठता है कि क्या इस वक्तव्य को केवल प्रांतीय परिप्रेक्ष्य में ही देखा जायेगा ?
कांग्रेस पार्टी के महासचिव के बारे में ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता है। बाल की खाल निकालने में माहिर राजनीतिक विश्लेषक निश्चित ही ऐसा होने भी नहीं देंगे।
राहुल गांधी के वक्तव्य के पीछे कांग्रेस के कथित सेक्यूलर खेमे की इस बेचैनी की तलाश जरूर की जा सकती है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के बाद संघ के क्षेत्रों में पैदा हुए उत्साह को काबू में रखने का एक उपाय इस तरह का वक्तव्य भी हो सकता था।
राजनीतिक रूप से संघ कोई आक्रामक मुद्रा अपनाए उसके पहले ही उसे प्रतिरक्षा के कवच में ढाल दिया जाए। राहुल गांधी की राजनीतिक सूझ-बूझ के प्रति पूरी तरह से विश्वास व्यक्त न कर पाने की गुंजाइश अपनी जगह कायम रखते हुए भी इस तथ्य पर तो गौर किया ही जा सकता है कि तमाम पक्की घोषणाओं के बावजूद वे आजमगढ़ की यात्रा पर नहीं गए। वे तमाम लोग जो स्वयं के सोच व राष्ट्र के अच्छे-बुरे के प्रति ईमानदारी से आश्वस्त हैं, इतना जरूर मानते हैं कि अयोध्या मामले में आए फैसले से संघ को कोई लाभ मिल पाएगा, इसमें संदेह है। लेकिन संघ पर किए जाने वाले इस तरह के हमलों से कथित कट्टरपंथी संगठन के उदारीकरण की प्रक्रिया को धक्का अवश्य लग सकता है, जिससे कि कम से कम अभी तो कांग्रेस बच सकती है। वैसे भी कहना मुश्किल है कि राहुल गांधी की टिप्पणी से सहमत होने का सभी कांग्रेसी सार्वजनिक रूप से उत्साह दिखाना चाहेंगे।
Posted by pandeyhariram at 2:19 AM 0 comments
खुशहालों की बढ़ती तादाद
हमारे देश में पढ़े लिखे लोगों का यह प्रिय शगल है कि गरीबी और भुखमरी का अरण्य रोदन करें। इन दिनों ये गरीबों के शोषण का भी स्यापा करने लगे हैं। उनकी हां में हां मिलाते हैं अपने को प्रगतिशील कहने वाले अखबार। लेकिन, सच यह है कि पिछले दो दशकों में किसी बड़ी नारेबाजी या वैचारिक प्रोत्साहन के बगैर हमारे गरीब वर्ग से लगातार और धीमे-धीमे निकल कर लगभग बीस करोड़ लोग मध्यवर्ग में शामिल हो चुके हैं। यूं तो गरीब ग्रामीण पिछले कई दशकों से गांवों से शहर आकर मध्यवर्ग में सपरिवार शामिल होना चाहता रहा है, पर अब गांवों में बैठे कई नवसंपन्न खेतिहर परिवार तथा ग्रामीण विकास कार्यों से जुड़े कर्मी भी मध्यवर्ग में शामिल होते जा रहे हैं। इसकी पुष्टि कर रही है, एशियाई विकास बैंक (एडीबी) की एक ताजा रपट। उसके जांच के पैमानों या इस वर्ग की राज-समाज में भागीदारी के महत्व पर हो रही अनेक लंबी बहसें अपनी जगह हैं, पर यह निर्विवाद है कि आजाद भारत में शहरीकरण तथा मध्यवर्ग, दोनों लगातार बढ़ रहे हैं।
मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदण्ड बदलो तुम,
जुए के पत्ते सा
मैं अभी अनिश्चित हूँ ।
भारत में मध्यवर्ग की भारी बढ़ोतरी इस बात का सहज लक्षण है, कि देश में तनिक धीमे और अनिच्छा से ही सही, जन्मना संपन्न वर्गों के साथ आरक्षण, जेंडर समता और साक्षरता के कानूनों से लाभान्वित मतदाताओं का एक बड़ा समूह लगातार राज-समाज में वर्ग विशेष के वर्चस्व को सक्षम चुनौती दे रहा है। और इस चलन को चुनावी वजहों से ही सही, सभी दल घोषणापूर्वक शह दे रहे हैं। अपने मां-बाप से अधिक काबिल बन गए कई गरीब युवाओं के दिल में मेहनत तथा शिक्षा के बूते समाज में ऊंचे उठने के अरमान पहले सिर्फ मुंबइया फिल्मों के स्वप्नलोक में ही दिखाए जाते थे, पर आज इसके ठोस उदाहरण उच्च प्रशासकीय सेवाओं से लेकर नए सेवा क्षेत्रों तक में मौजूद हैं। जब कोई देश शुरू-शुरू में तेजी से तरक्की कर रहा हो, तो लोगों को असमानता उतनी अधिक नहीं खटकती, क्योंकि उनको अचानक क्षितिज पर खुद अपने लिए सामाजिक तथा आर्थिक, दोनों क्षेत्रों में तरक्की कर पाने की अनेक संभावनाएं नजर आने लगती हैं, पर जैसे-जैसे वे मध्यवर्ग की पायदानें चढ़ते हैं, उनको अपने बच्चों के भविष्य तथा अच्छी जीवनशैली बनाए रखने को लेकर असंतोष व आर्थिक असुरक्षा महसूस होने लगती है। अंगरेजी तथा आत्मविश्वास के पैमाने पर भी वे तथा उनके बच्चे खुद को कमतर महसूस करते हैं। जब उनके मेधावी बच्चों का नगण्य हिस्सा ही आई ए एस सरीखी प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल हो पाता है, तो हताश बच्चे कहते हैं कि उन सरीखा निम्न मध्यवर्ग का लड़का चाहे अपने को जितना भी तराश ले, बड़ा पद उन खास लोगों को ही मिलता है, जो पुश्तैनी तौर से उच्च मध्यवर्ग से आते हैं । इस बिंदु पर आकर नए मध्यवर्ग के लिए पुराने मध्यवर्ग की तरह अपने बच्चों की बाबत जाति तथा धर्म पर निरपेक्षता या प्रोफेशनल क्षेत्र में समाजवादी मूल्यों को कायम रखना कठिन हो जाता है। शिक्षा, स्वास्थ्य और सार्वजनिक संसाधनों की मिल्कियत और अवसर की समानता के नए संदर्भ उनके लिए महत्वपूर्ण हैं। हमको अगर अपने मध्यवर्ग की युवा जमात को प्रगति का डायनामो तथा धर्मनिरपेक्षता और किफायती जीवन मूल्यों का जनहितकारी केंद्र बनाना है, तो सबसे पहले शिक्षा को घटिया राजनीति तथा संदिग्ध पूंजी से मुक्त कराने वाले नए ढांचे गढऩे होंगे। हर बरस फोर्ब्स के धनकुबेरों की फेहरिस्त में बड़ी तादाद में शामिल हो रहे अपने नव धनाढ्य लोगों पर दबाव बनाना होगा कि वे अपनी बीवियों के लिए जलपोत या हवाई जहाज खरीदने के साथ देश के लाखों होनहार बिरवों को पनपाने के लिए भी तिजोरी खोलें। आखिर उन्हें भी तो अपने बढ़ते उपक्रमों के लिए बड़ी संख्या में योग्य हुनरमंद कार्यकर्ताओं की जरूरत होगी।
ये जो फफोले तलुओं मे दीख रहे हैं
ये मुझको उकसाते हैं ।
पिण्डलियों की उभरी हुई नसें
मुझ पर व्यंग्य करती हैं ।
मुँह पर पड़ी हुई यौवन की झुर्रियाँ
कसम देती हैं ।
कुछ हो अब, तय है
मुझको आशंकाओं पर काबू पाना है,
पत्थरों के सीने में
प्रतिध्वनि जगाते हुए
परिचित उन राहों में एक बार
विजय-गीत गाते हुए जाना है
जिनमें मैं हार चुका हूँ।
Posted by pandeyhariram at 1:57 AM 0 comments
फिर गरमाने लगी है सियासत
राममंदिर की जमीन पर फैसला शायद किसी भी पक्ष को स्वीकार नहीं है। मंगलवार (चार अक्टूबर ) को विनय कटियार ने कहा कि वे मंदिर वहीं बनायेंगे यानी उस जमीन की जद में कोई मस्जिद नहीं बनने दी जायेगी। सुन्नी वक्फ बोर्ड भी सुप्रीम कोर्ट में जाने के लिये कमर कस रहा है। ऐसा लगता है कि गत 30 सितम्बर को साम्प्रदायिक सद्भाव और सामाजिक सौहार्द की खुशफहमी आहिस्ता-आहिस्ता छीजने लगी है। अयोध्या के फैसले के पहले और उसके दौरान सुरक्षा व्यवस्था और उसके बाद समाज का सहमा-सहमा सा रुख, इन सारी बातों का अगर सामाजिक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें तब पता चलेगा कि हमारे नेता हकीकत से कितनी दूर हैं। यहां जिस हकीकत से मकसद है, वह यह है कि सांप्रदायिक उन्माद यूं ही नहीं भड़क जाता। बहुतेरे दंगे हमारे राजनेताओं द्वारा उकसाये गये और प्रायोजित होते हैं। इस बार हर राजनेता, चाहे वह कितना ही आत्मपोषक क्यों न हो और हर राजनीतिक दल, चाहे वह कितना ही उग्र क्यों न हो, पहले से ही इस बात पर एकमत था कि मुल्क में अमन-चैन बनाये रखना बहुत जरूरी है। फिर ऐसे में कोई समस्या कैसे हो सकती थी ?
उस दिन हर किसी का ध्यान इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले पर इतना केंद्रित था कि हमारे इतिहास के इस महत्वपूर्ण क्षण पर किसी ने गौर ही नहीं किया। हिंदू राजनीतिक दल और मुस्लिम राजनीतिक संगठन, हिंदू रूढि़वादी और कट्टरपंथी मुस्लिम धर्मगुरु, धर्मनिरपेक्ष और छद्म धर्मनिरपेक्ष, आंखों पर पट्टी बांधे मार्क्सवादी और उग्र ईश्वर विरोधी, सभी का एक ही लक्ष्य था कि देश की फिजा नहीं बिगडऩे दी जाएगी और अमन-चैन कायम रखा जाएगा। क्या वजह थी कि हिंदुओं और मुस्लिमों के नेता, जो पूरे छह दशक से अदालत में यह केस लड़ रहे थे, का अचानक हृदय परिवर्तन हो गया ?
भारत में यह बदलाव क्यों और कैसे आया, यह कोई नहीं जानता। क्या ऐसा कोई सुनिश्चित समय और स्थान था, जब नये भारत का उदय हुआ हो ? क्या कोई ऐसी घटना थी, जो इस बदलाव का कारण बनी ? संभव है 26/11 के बाद हमें यह अहसास हुआ हो कि अगर हम एक नहीं हुए, तो हमें कोई नहीं बचा पाएगा।
बाबरी-अयोध्या विवाद के चार केंद्रीय पड़ाव माने जा सकते हैं। ये हैं - 1949 में ब्रितानी हुकूमत के तालों को खोलना और मूर्तियों की स्थापना, 1989 में मंदिर के लिए शिलान्यास, 1992 में बाबरी ध्वंस और अब 2010 में यह फैसला। इन चारों महत्वपूर्ण पड़ावों के समय कांग्रेस सत्ता में रही है। अगर अयोध्या इस किस्म का आखिरी मुकदमा है, तो शायद हमें इसकी कानूनी प्रक्रिया को भी अंतिम परिणति तक पहुंचने देना चाहिए। हमने छह दशकों तक इंतजार किया है। फिर भला और दो या तीन साल इंतजार क्यों नहीं ? अव्वल तो कोई भी...सौहादर्पूर्ण... समाधान हरेक व्यक्ति व पक्ष के लिए पर्याप्त सौहार्दपूर्ण हो सकेगा, इसकी संभावना नहीं है। इससे बढ़कर यह एक ऐसा..राजनीतिक... समझौता हो सकता है, जिससे समुदायों के बीच रिश्ते बेहतर होने के बजाय तनावपूर्ण हो सकते हैं। अगर हम अपनी संस्थाओं पर भरोसा करते हैं, तो हमें उन पर पूरी तरह भरोसा करना ही चाहिए।
Posted by pandeyhariram at 1:54 AM 0 comments