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Wednesday, November 3, 2010

विकास का हवाई किला


लीजिए, अब 2010 के गुजरने में फकत दो माह रह गये हैं। पिछले लगभग दो दशकों से की जा रही वे ढेरों प्रस्तुतियां, योजनाएं, लेख, अध्ययन और भविष्यवाणियां याद करें, जिनमें से बहुतों का शीर्षक होता था - विजन 2010, भारत होगा महाशक्ति 2010 तक, 2010 की ओर। जी हां, आखिरकार हम उस 2010 को लगभग पार कर ही गये।
यह उन वर्षों में से एक है, जब तक बहुत सी चीजें हो जानी चाहिए थीं, लेकिन नहीं, हमने जो भविष्यवाणियां कीं, हम उनके आसपास भी कहीं नहीं हैं। अब बड़े सुविधाजनक ढंग से उन भविष्यवाणियों की जगह दूसरे ज्यादा बेहतर, आकर्षक वर्ष 2020 ने ले ली है और कुछ ज्यादा उत्साही लोगों ने 2050 तक की भविष्यवाणियां कर दी हैं।
वस्तुत: संभावना है कि 2050 तक हम पश्चिमी देशों से भी ज्यादा अमीर होंगे। ये आश्चर्य पैदा किया है विभिन्न शोध संस्थानों और उनके आंकड़ों ने, जो सनसनीखेज टीवी चैनलों से कम नहीं हैं।
इस तरह की भविष्यवाणियां मानकर चलती हैं कि वर्तमान विकास दर लगातार बनी रहेगी, वे पहले के प्रभावों को नकार देते हैं और इस तथ्य को बिल्कुल दरकिनार कर देते हैं कि बहुसंख्यक भारतीय जनता को ज्यादातर आर्थिक विकास का बहुत कम लाभ मिलता है।
वे इस बात को भी नकार देते हैं कि हमारे पास एक विकसित अर्थव्यवस्था के अधिकारों की बुनियादी चीजें भी नहीं हैं - एक प्रभावशाली कानून व्यवस्था, वित्तीय समझदारी, भ्रष्टाचार के खिलाफ समुचित प्रावधान, बौद्धिक संपदा कानून, व्यवसायों में सरकार का न्यूनतम हस्तक्षेप, पूंजी के प्रसार को प्रेरित करने के लिए प्रोत्साहन और ऐसी शिक्षा व्यवस्था, जो प्रतिभाओं को उभारे और उन्हें प्रेरित करे।
ये सब करना कितना उबाऊ और बोझिल है, जबकि आपको बस इतना करना है कि आंकड़ों को तब तक खींचते रहिए जब तक कि भारत पश्चिम को पीछे छोड़कर आगे न निकल जाए। अगर कागज पर बिखरे आंकड़ों में ये काम हो सकता है तो असल जिंदगी में भी कभी हो ही जाएगा। हकीकत को देखिए। हम सन् 2010 में हैं और अभी भी हम एक विकसित देश होने से कोसों दूर हैं।

हमारे यहां खाद्य पदार्थों की कीमतों में 20 प्रतिशत का इजाफा हो गया है, लगभग सभी सरकारी दफ्तर भ्रष्ट हैं, कानून व्यवस्था ऐसी है, जिसमें चीजें सिर्फ खिंचती जाती हैं और हमारे नेता इसे बदलने की बहुत कम फिक्र करते हैं क्योंकि जनता इन कारणों से वोट नहीं देती। बेशक काफी संख्या में पढ़े-लिखे और अगर मैं इस शब्द का इस्तेमाल करूं तो कहूंगा कि प्रबुद्ध लोग हैं, जो और कुछ नहीं, सिर्फ ये चाहते हैं कि काम हो। लेकिन भारत में अधिकांश लोग आज भी जाति, परंपरा, व्यक्तित्व और वंश के नाम पर वोट देते हैं। अब आप कहेंगे कि ये तो हम जानते हैं।
देश भर में फैले हुए प्रबुद्ध लोगों का समूह, जो अब तक बड़ा वोट बैंक नहीं है, उसे अपनी ताकत का इस्तेमाल करना चाहिए। चुनाव आयोग की वेबसाइट के अनुसार भारत में करीब 60 करोड़ मतदाता हैं। उनमें से भी आधे लोग वोट नहीं देते, इसलिए वोट देने वाले असल लोगों की संख्या आधी घटाकर 30 करोड़ कर देते हैं।
अब भी यह काफी बड़ी संख्या है। अगर आप प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में विजयी उम्मीदवार और दूसरे नंबर पर आने वाले उम्मीदवार के मतों का फर्क देखें और इस तरह संपूर्ण 530 निर्वाचन क्षेत्रों के मतों को जोड़ दें तो जो फर्क है, वह सिर्फ चार करोड़ वोटों का है। यही वे चार करोड़ वोट हैं, जो सभी निर्वाचन क्षेत्रों में ये तय करते हैं कि कौन विजयी होगा। वस्तुत: अगर उस चार करोड़ में से आधे लोग अपना वोट दूसरे उम्मीदवार को दे दें तो वह दूसरा उम्मीदवार जीत सकता है।
चार करोड़ का आधा होता सिर्फ दो करोड़ और यही वह संख्या है, जो यह तय कर सकती है कि कौन सबसे ऊपर होगा। दो करोड़ ऐसी संख्या है, जो आसानी से संभाली जा सकती है। एक मोटा अनुमान लगाएं तो यह संख्या उतनी है, जितनी दो बड़े महानगरों की जनसंख्या है। 2 करोड़ कुल पंजीकृत मतदाताओं की संख्या का मात्र 3 प्रतिशत है। अगर हमें इतनी संख्या में ही प्रबुद्ध लोगों की जरूरत है तो यह कोई असंभव लक्ष्य नहीं है लेकिन इस संबंध में भी कई पूर्वानुमान संभव हैं। सबसे पहले तो प्रबुद्ध व्यक्तियों को एकजुट होना चाहिए और आपस में गहराई से जुड़े रहना चाहिए। संभवत: हम सभी अपने देश से प्यार करते हैं, लेकिन हम सभी अलग-अलग दिशाओं में खिंच सकते हैं।
एक बार यदि हम एक प्रभावी वोट बैंक नजर आएंगे तो राजनीतिज्ञों के पास और कोई रास्ता नहीं होगा सिवाय इसके कि वे हमारी बातों पर गौर करें। छोटी-छोटी चिंगारी के रूप में पूरे देश में बिखरे होना अच्छी बात है, लेकिन अगर हम एक अग्निपुंज के रूप में इकट्ठे हो सकें तो यह और भी अच्छी बात है।
इंटरनेट, कॉलेज महोत्सव, गैर सरकारी संगठनों के बीच का नेटवर्क इत्यादि इन समस्त चिंगारियों को एकजुट करने के अवसर हैं। वैसे भी धीरे-धीरे ये परिवर्तन हो रहे हैं, लेकिन हमें इस बदलाव की गति को तेज करने की जरूरत है। ये मत कहिये कि क्या आपका मुद्दा है, बल्कि ये पूछिए कि क्या हमारा मुद्दा है।
ढेरों बेहतर इरादों वाले लोग हैं। बस, वे सब वोट बैंक के एक सूत्र में नहीं बंधे हैं। अगर हम आने वाले समय को ऐसा बना सकें, जिसमें हम ये करने का निश्चय लें, 2 करोड़ लोगों का वोट बैंक बना सकें तो सन् 2020 तक पन्नों पर बिखरे उन आंकड़ों का सचमुच कोई अर्थ होगा।

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